Atmadharma magazine - Ank 046
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ः २२२ः आत्मधर्मः ४६
– जीवनी प्रतीत क्यारे थई कहेवाय? –
वीर सं. २४७३ वैशाख वद ८ श्री समयसार–प्रतिष्ठा महोत्सव दिने पंचास्तिकाय गाथा प६ उपर पूज्य
गुरुदेवश्रीनुं प्रवचन
जीवतत्त्वना पांच भावोनी वात छे. जीवतत्त्वने माने तेने कया भावो होय अने न माने तेने कया भावो
होय, ते आ पांच भावोमां समजाई जाय छे.
भवनो त्रास कोने टळे?
जीवनो स्वभाव शुद्ध परमानंद निराकुळस्वरूप छे, ते स्वभाव त्रिकाळ बधाय जीवोने छे, तेमां कर्मनी
उपाधि नथी; एने पारिणामिक भाव कहेवाय छे. अने कर्म उपाधिवाळो विकारीभाव अनादिथी जीवने छे, ते
विकारीभावने औदयिकभाव कहेवाय छे, ते भाव क्षणिक छे. मारुं त्रिकाळी स्वरूप क्षणिक विकारथी रहित छे– एम
जेने स्वभावद्रष्टि थई अने विकार उपरथी द्रष्टि टळी गई ते जीवना अंतरमांथी जन्म–जरा–मरणनी शंका, भय ने
त्रास नीकळी जाय छे. स्वभाव स्वीकार्यो एने जन्म–मरणनी शंका केम रहे? जन्म–मरणनुं कारण तो विकार छे,
स्वभावमां विकार नथी, तेथी जेणे स्वभाव स्वीकार्यो अने प्रतीत करी तेने भवनो त्रास होतो नथी अर्थात् मारे
घणा भव हशे एवी तेने शंका होती नथी.
नाना बाळको ज्यारे लडाई करे त्यारे कहे छे के–आवी जाय, मारी सामे कोण थाय छे? एवो बळवान कोण
छे के जे मने जीती शके? मने पहोंचवानी कोईनी ताकात नथी. तेम जेने पोताना स्वभाव सामर्थ्यनी प्रतीत थई छे
ते एम निःशंक थाय छे के हवे एवो कोई भाव के कोई कर्म नथी के जे मने स्वभावथी च्यूत करीने संसारमां
रखडावे. हवे मारा स्वभावनी द्रष्टिथी निर्मळतानी ज उत्पत्ति छे अने विकारनी नास्ति छे. एवी निःशंकता थतां
भवनो त्रास अंतरमांथी टळी जाय छे.
समयसार–प्रतिष्ठानुं मंगळिक
आजे श्री जैनस्वाध्यायमंदिरमां श्री समयसारनी महापूजनिक स्थापनानो मंगळिक दिवस छे. समयसारनी
प्रतिष्ठाने आजे दसमुं महामंगळिक वर्ष बेसे छे. समयसार एटले आत्मा, तेनी पवित्र दशा प्रगट करवा माटेनुं
आजे दसमुं वर्ष बेसे छे.
आत्माना जे पांच भावो छे तेमां एक तरफ एक त्रिकाळी स्वभाव भाव छे अने बीजी तरफ चार
क्षणिक भावो छे, चार क्षणिक भावोनुं लक्ष छोडीने त्रिकाळी स्वभाव उपर लक्ष करीने तेनी जीव प्रतीत करे तो
निर्मळदशा प्रगटे, ते ज मंगळिक छे. पहेलां तो पोताना स्वभावनो विश्वास आववो जोईए. पोताने विकार
जेटलो ज मानी बेसे तो अविकारी थवानो पुरुषार्थ थाय नहि, पण जो विकाररहित स्वभाव त्रिकाळ छे तेनी
प्रतीति–विश्वास करे तो पर्यायमां विकाररहित दशा प्रगटवानो पुरुषार्थ करे. माटे पहेलां जेवो स्वभाव छे तेवो
विश्वासमां लेवो जोईए.
स्वभाव शक्तिनो विश्वास
एक पुस्तकमां चेलाति चोरनी वात आवे छे. ते चोर पासे अमुक प्रकारनी विद्या हती, तेथी तेने पोतानी
शक्तिनो विश्वास हतो के मने कोई पकडवा समर्थ नथी. ज्यारे ते शहेरमां चोरी करवा जाय छे त्यारे पोकार करे छे के
“हुं अमुक शेठने त्यां लूंट करवा आव्यो छुं, जेने नवी मातानां दूध पीवां होय ते घरनी बहार नीकळजो...” अहीं ते
चोरने पोतानी शक्तिनो विश्वास हतो–एटलुं द्रष्टांत लेवुं छे. तेम जेने सम्यग्ज्ञानरूपी विद्या होय तेने पोताना
स्वभावना जोरे एवो विश्वास होय के कोई कर्मनो उदय मने पाडवा समर्थ नथी. जे जीव धर्म करवा नीकळ्‌यो छे तेने
जो पोतानी शक्तिनो विश्वास नहि होय तो धर्म क्यांथी करशे? तने तारी स्वभाव शक्तिनो विश्वास छे के नहि? तुं
कोण छो? शुं शुभभाव करवा जेटली ज तारी शक्ति छे? के बीजी कांई शक्ति छे? आत्मा परमार्थे एने कहेवाय के
जेनामां पुण्य–पाप विकार नथी. अपूर्णता नथी पण शुद्ध स्वभावरूप छे.–एवा स्वभावनी जेणे श्रद्धा करी तेने एवी
शंका न होय के भविष्यमां कर्मनो उदय आवे ने मने पाडी दे. जीव स्वभाव ते पारिणामिक भाव छे. ने विकार ते
औदयिकभाव छे. जेने रखडवानी शंका छे, तेने जीवतत्त्वनी श्रद्धा नथी. जीवतत्त्वनी श्रद्धा त्यां पडवानी शंका नहि,
ने पडवानी शंका त्यां जीवतत्त्वनी श्रद्धा नहि.