त्रिकाळी स्वभावनी प्रतीतवाळाने उदयभाव मारो छे एवी मान्यता होती नथी. चैतन्यनो जे अप्रतिहत मंगळभाव
प्रगटयो ते केवो होय एनुं आ वर्णन छे. विकारीभाव ते आस्रवतत्त्व छे, जीवतत्त्वमां ते नथी, कर्मो वगेरे
अजीवतत्त्व छे, ते जीवतत्त्वमां नथी एम विकारथी अने कर्मोथी भिन्न स्वभावने जाणे तो जीवतत्त्वने मान्युं
कहेवाय.
जोर छे के मारा स्वभावनी प्रतीतिने फेरवी शके? कर्मनो उदय आवे ने हुं पडी जाउं तो? एवी अज्ञानीने शंका छे,
एटले के हुं जीव ज रहेवानो नथी; विकार के मिथ्यात्व मारा चैतन्यस्वभावमां पेसी जाय तो! अरे भाई, तें कोनो
विश्वास कर्यो? तें तारा स्वभावने जीवतत्त्वरूपे मान्यो नहि पण विकाररूपे मान्यो. शुद्ध आत्मानो विश्वास न कर्यो
पण विकार अने अज्ञाननो विश्वास कर्यो. स्वभावना भानथी हुं विकारने जीतुं– एम नहि पण विकार मने जीती
जाय अने कर्मना उदयथी हुं पडी जाउं–एम माननार जैन तो नथी परंतु जैननुं कथन सांभळवानी ताकात पण
तेनामां नथी, जैनदर्शनमां प्ररूपेला स्वतंत्रताना कथनोने ते जीरवी शकशे नहि, केमके तेने पोताना स्वभावनो
विश्वास बेठो नथी. पाछा पडवानी वात सांभळवानो पण जैनदर्शनमां अवकाश नथी.
जीवद्रव्यमां अजीव द्रव्यनो–कर्मनो अभाव छे; अने जीवतत्त्वमां आस्रवादि तत्त्वनो अभाव छे; ध्रुवतत्त्व क्षणिक
उत्पाद–व्यय जेटलुं नथी; आम अस्ति अने नास्तिरूप स्वभावनी प्रतीत वडे जे जीव औदयिक विकारीभावनो नाश
करवा तैयार थयो छे तेने कदी पण एवी शंका पडती नथी के कर्मनो उदय आवशे तो हुं पाछो पडी जईश.
स्वरूप छे? सत् श्रवण करनार पात्र जीव एटलुं तो समजे छे के पुद्गल कर्म वगेरेथी तो मारुं जीवतत्त्व भिन्न छे,
अने कर्मना निमित्ते जे पुण्य–पाप आस्रव थाय ते विकारीभाव छे, ए विकारी तत्त्वमां मारुं जीवतत्त्व नथी, ने मारा
जीवतत्त्वमां विकारी तत्त्व नथी. जेणे आवुं मानवानी शरूआत करी तेने कर्मना उदयथी भविष्यमां पडवानी शंका
होती नथी. अने जेने एवी शंका छे तेणे जीवतत्त्वने मान्युं नथी, पण जीवने अने आस्रवतत्त्वने एक मान्यां छे.
जीवतत्त्वनी ताकात सदाय विकारथी भिन्नपणे टकवानी छे तेने ते मानतो नथी. अने जे जीवस्वभावने नथी
मानतो तेणे तेना कहेनार एवा देव–गुरु–शास्त्रने पण मान्या नथी.
छे. पात्र शिष्य एवो छे के तेने भगवान आत्मानो स्वभाव सांभळवानी अने समजवानी होंश छे, पण कर्मना
उदयना जोरनी आ वात सांभळवानी के विकारनी तेने होंश नथी. स्वभावना महिमा पासे विकारने के कर्मने
याद करतो नथी. आजे तो ‘समयसार’ नी प्रतिष्ठानो वार्षिक महोत्सव छे. समयसार एटले
शुद्धआत्मस्वभाव, तेने बतावनार आ ‘समयसार–शास्त्र’ छे. भगवान समयसार तो एम कहे छे के त्रिकाळी
आत्मस्वभावनी प्रतीतमां औदयिकभाव कदी स्वभावथी अधिक थाय नहि. उदय अधिक थाय के स्वभाव? जेणे
स्वभावनो महिमा जाण्यो छे ते कदी उदयनुं अधिकपणुं मानतो नथी. एटले क्षणिक औदयिकभावथी मारो
स्वभाव भूलाई जशे एवी तेने कदी शंका, पडती नथी, पण मारा स्वभावनी प्रतीतिनी द्रढताना जोरे क्षणिक
विकारनो नाश थई जशे एम निःशंकता होय छे.