Atmadharma magazine - Ank 046
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ः २२४ः आत्मधर्मः ४६
जेने पुरुषार्थमां शंका छे ते धर्म करी शकशे नहि
हजी पोतानो स्वभाव समज्या पहेलां शरूआतथी ज शंका करवा मांडे छे के–कर्मनो उदय आवशे तो पडी
जवाशे–पण अरे नमाला! पुरुषार्थहीन! स्वभावनो पुरुषार्थ उपाड, तो तने पडवानी शंका थाय नहि. हजी सत्नी
शरूआत कर्या पहेला तो पडवानी वात मांडे छे. पण तारा आत्मामां कांई पुरुषार्थ छे के नहि? हजी तो धर्म करवानी
वात सांभळता ज तने कर्मना उदयथी पडवानी शंका पडे छे पण स्वभावनो पुरुषार्थ उछळतो नथी, तो ताराथी धर्म
केम थशे?
जीवतत्त्व अने उत्पाद–व्यय–ध्रुव
नवतत्त्वो छे ते दरेकनुं स्वरूप जुदुं छे. नवतत्त्वो जुदा अने जीवतत्त्व जुदुं एम नथी, पण ते नवमां एक
जीवतत्त्व छे अने बीजा आठ तत्त्वो जुदा छे. जीवतत्त्वमां आठ तत्त्वो नथी. जीवतत्त्व ध्रुव पारिणामिकभावे छे, ए
तत्त्वने माने तो विकारीतत्त्वोनो नाश थाय अने अविकारी तत्त्वनी उत्पत्ति थाय– अर्थात् ध्रुवस्वभावना लक्षे
पुण्य–पाप–आस्रव–बंधनो व्यय अने संवर–निर्जरा–मोक्षनो उत्पाद थाय छे. त्रिकाळी जीवतत्त्व तो ध्रुव छे, ते
उत्पादव्ययरूप नथी आवी ध्रुवनी प्रतीतमां मोक्षनो उत्पाद अने संसारनो व्यय थया वगर रहे ज नहि.
जीव सत् छे अने सत् उत्पाद–व्यय ध्रुवयुक्त होय छे, तेनी जीव उत्पाद–व्यय–ध्रुवयुक्त छे. आत्मा
त्रिकाळ पारिणामिक–स्वभावथी ध्रुव छे–ए निरूपाधिक निरपेक्ष तत्त्वने जाणतां, ते निरूपाधिक ध्रुवनी द्रष्टिमां
औपाधिकभाव व्यय खाते रह्यो पण उत्पत्ति खाते रह्यो नहि अने ते निरूपाधिक ध्रुवनी द्रष्टिमां संवर निर्जरा–
मोक्षरूप निरूपाधिकभाव उत्पाद खाते रह्यो, पण व्यय खाते रह्यो नहि. एटले जेने पोताना ध्रुवस्वभावनी द्रष्टि
छे तेने ‘मारामां विकारनी उत्पत्ति थशे अने शुद्धपर्यायनो व्यय थशे अर्थात् हुं साधकपणाथी पाछो पडी जईश’
एवी शंका कदी होती नथी, पण मारामां क्षणे क्षणे शुद्धतानो ज उत्पाद अने अशुद्धतानो व्यय छे–एम निःशंकता
होय छे.
परमपारिणामिक स्वभाव एटले शुं? एकलो निरपेक्ष चैतन्यस्वभाव; ए चैतन्यस्वभावमां बंध–मोक्ष
नहि, बंधमोक्षनी अपेक्षाथी पार एकरूप स्वभाव! स्वभाव! स्वभाव! ते स्वभावनी द्रष्टिमां संवर–निर्जरा–
मोक्षनो उत्पाद थाय छे, ते उत्पादनो व्यय करवानी ताकात त्रणकाळमां कोईनी नथी. शुद्धजीवतत्त्वमां वर्तमानमां
अने विकार पुण्य–पापनो तथा जडनो अभाव छे. तो पछी जेना स्वभावमां विकारनो अभाव ज छे, तेमां
भविष्यमां विकारनी उत्पति क्यांथी थाय? एटले स्वभावनी द्रष्टिमां विकारनी उत्पत्ति छे ज नहि. भविष्यमां
कर्मनो तीव्र उदय आवे ने विकार थाय अने हुं पडी जउं–एवी जेने शंका छे तेने स्वभावनी द्रष्टि नथी. स्वभावमां
तो विकारनो त्रिकाळ अभाव छे, अने ए स्वभावनी द्रष्टि विकारनी नाशक छे, पण उत्पादक नथी. स्वभावनी
प्रतीतिमांथी मोक्षनी ज उत्पत्ति छे.
जे जीव ज्ञानस्वभावनी प्रतीति करतो नथी अने विकारनी उत्पत्तिने तथा अविकारीदशाना व्ययने संभारे
छे तेने शुद्धस्वभावनी प्रतीत नथी. ज्ञानस्वभावनी प्रतीतरूपी दोरो बांध्या वगर ए जीव पोताने भूलीने संसारमां
रखडशे. जो जीव स्वभावनी श्रद्धारूपी दोरो बांधे तो पोताना स्वभावमां कदी शंका न पडे. आत्मानो पारिणामिक
भाव एवो छे के जीव घणो विकार करे तेथी ते भावमां कांई घटतुं नथी अने जीव विकार टाळीने अविकारभाव करे
तेथी ते भावमां कांई वधी जतुं नथी, ए तो अनादिअनंत एकरूप छे. एवा स्वभावने जेणे जाण्यो ते जीवने
ज्ञाननी ज उत्पत्ति अने विकारनो नाश–एम थया वगर त्रणकाळमां रहे नहि.
एक जीवतत्त्वने मानतां अजीवनो अभाव, विकारनो व्यय अने अविकारीनी उत्पत्ति छे. एकवार पण
विकारथी अने परथी भिन्न निरपेक्ष जीवद्रव्यने माने तो जीवने विकारनो संपूर्ण व्यय अने अजीवना संबंधनो
पूरेपूरो अभाव थया वगर रहे ज नहि.
स्वकाळ अने परकाळ
पांच द्रव्यो अस्तिकायरूप छे, अने काळ द्रव्य अस्तिरूप छे पण कायरूप नथी. जीवनो स्वकाळ ते
अस्तिकायरूप छे, जीवना स्वकाळमां पर काळनी नास्ति छे. जेने शुद्ध जीवास्तिकायनी प्रतीति थई तेने पोतानी
शुद्धपर्यायरूपी स्वकाळ प्रगटयो, तेने कोई काळ नडतो नथी. पंचमकाळ नडे–एम ज्ञानी मानता नथी, केमके पोताना
स्वकाळमां तो ते काळनी नास्ति छे. स्वभाव प्राप्तिना काळ सिवाय बीजा काळनी अस्ति ज नथी एटले के मारा
स्वकाळनी अस्तिमां पर काळनी (–जडनी अने विकारनी) अस्ति ज नथी, एवा भानमां ज्ञानी जीवने स्वकाळने
भूलीने