Atmadharma magazine - Ank 046
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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द्वितीयश्रावणः२४७३ः २२पः
विकारी थई जवानी शंका होती नथी. काळद्रव्य मारा अस्तिकायमां नथी. खरेखर मारा अस्तित्वमां विकाररूपी
परकाळनी अस्ति नथी. स्वभावना स्वकाळमां एकत्वपणुं छे, पण विकारमां एकत्वपणुं नथी तेथी विकार ते
अस्तिकाय नथी. जेम काळना बे अणु कदी भेगां थतां नथी तेथी ते अस्तिकाय नथी तेम आत्माना स्वभाव साथे
विकार कदी एकमेक थतो नथी तेथी विकार ते परकाळ छे, जीवना स्वकाळमां तेनी नास्ति छे. जेणे विकाररूपी
परकाळने आत्मानो मान्यो अथवा तो तेनाथी आत्माने लाभ मान्यो तेणे आत्माना अस्तिकायने मान्यो नथी
अने पोतानो स्वकाळ तेने प्रगटयो नथी.
वळी, कोई जीव जो काळद्रव्यने सर्वथा अभावरूप ज माने अथवा तो मात्र औपचारिक छे एम माने तो
तेने पण आत्माना स्वकाळनी (–शुद्धपर्यायनी) प्राप्ति नथी. जेने पोतानो स्वकाळ प्रगटे तेने तेमां निमित्तरूप
परकाळनुं पण ज्ञान थाय. पोताना स्वकाळमां निमित्तरूप परकाळ छे, ते निमित्तने जेणे सर्वथा न मान्युं तेणे
पोताना स्वकाळने पण स्वीकार्यो नथी; तेथी काळद्रव्यने नहि स्वीकारनार मिथ्याद्रष्टि छे.
समयसारनी प्रतिष्ठा अने मंगळिक
आजे समयसारजीनी प्रतिष्ठानो मंगळ दिवस छे. आजे प्रतिष्ठाने दसमुं वर्षे बेसे छे, दसमां वर्षनां
समयसारना मांगळिक उजवाय छे. आत्मानो परम पारिणामिक स्वभाव ते ज समयसार छे; ए समयसारना
स्वरूपमां ज्यांसुधी निःशंकता न थाय त्यांसुधी पोताना आत्मामां समयसारनी प्रतिष्ठा थाय नहि–अर्थात्
सम्यग्दर्शन–ज्ञान चारित्र प्रगटे नहि. ज्यांसुधी ए समयसार स्वभावनी निःसंदेह प्रतीति न प्रगटे त्यांसुधी
रुचिपूर्वक घूंटी घूंटीने तेनुं ज ज्ञान कर. मारा स्वसमयमां बधा परसमयोनी (–परद्रव्योनी अने परभावोनी)
नास्ति छे. आवी प्रतीतिवाळा जीवने “मारा द्रव्यमां शुद्धपर्यायनो व्यय थई जशे तो” एवी शंका न होय, पण “
मारा द्रव्यमां समये समये शुद्धतानी वृद्धिनो ज उत्पाद छे”–एम पूर्णतानी प्रतीति ज होय छे. एवी प्रतीतिना जोरे
समये समये शुद्धतानी वृद्धिरूप पर्यायनो उत्पाद थाय छे–ते ज महामंगळिक छे.
साधकनुं एक ज कार्य
जेने पोताना शुद्धस्वभावनी प्रतीति थई तेने बधुं कर्तृत्व छूटीने ते साधक थयो, एटले हवे तेने
पोताना गुणस्वभावमां ज अभेद थवानुं एक ज कार्य रह्युं. साधकने ते अभेद थवामां हीनाधिकता होय, पण
तेमां वच्चे बीजुं कार्य आवीने विघ्न पाडे नहि. जेणे शुद्धचैतन्यस्वभावने प्रतीतिमां लीधो तेने हवे, ‘विकारने
कायम राखुं अथवा तो भविष्यमां विकारनी उत्पत्ति थशे’ एवी भावना होय ज नहि. जीवस्वभावनी जेणे
भावना करी तेने प्रतीत छे के मारा चैतन्यस्वभावमांथी तो शुद्धपर्याय ज खीले छे; तेथी तेवा साधक जीवने
विकारनी भावना त्रणकाळमां होती नथी. भविष्यमां विकारनी उत्पत्ति थशे अने मारी शुद्धतानो नाश थई जशे.
एवी जेने शंका छे तेने विकारनी ज भावना छे, पण स्वभावनी भावना नथी. वर्तमानमां ज ते विकारथी
आघो खस्यो नथी. जो स्वभावनी प्रतीतिनो उत्पाद थयो होय तो विकारनी उत्पत्ति थवानी शंका क्यांथी
आवी? स्वभावद्रष्टिमां तो विकारनो अभाव ज छे. स्वभावद्रष्टिमां साधकने तो स्वभावमां अभेद थवुं. ए
एक ज प्रकारनुं कार्य छे.
पुरुषार्थनी प्रतीति– श्रीकृष्णनुं द्रष्टांत
पूर्ण स्वभाव सामर्थ्यना विश्वासे जे उपडया ते पाछा पडे ज नहि, पण जेओ पहेलेथी ज परलक्षे शंका करे
छे ते स्वभावमां कदी आगळ वधी शकशे नहि. आ संबंधमां पांडवो अने कृष्णनुं द्रष्टांत छे के–
पद्मनाभ राजा द्रौपदीनुं अपहरण करी जाय छे, त्यारे श्रीकृष्ण अने पांडवो तेनी सामे लडवा जाय छे.
पहेलां पांच पांडवो लडवा जाय छे अने रथ उपर चडतां कहे छे के ‘आज कां तो पद्मनाभ राजा, अने कां तो
अमे!’–तेमां पहेलां पर आव्यो; लडाईमां तेओ हारीने पाछा आव्या. तेमने पोतानी शक्तिनो विश्वास न
आव्यो के ‘आज अमारी ज जीत छे.’ पछी श्रीकृष्ण लडवा जाय छे, जतां जतां बोले छे के ‘आज हुं राजा,
पद्मनाभ नहि’ एटले के मारी जीत ज छे; तेओ जीतीने आवे छे. (अहीं द्रष्टांत मात्र छे, पर साथेनी हार–जीत
ते तो पुण्य अनुसार छे.)
तेम आत्मस्वभावनी आराधना करवा माटे, अज्ञानी जीव पांच इन्द्रियो अने कर्मना लक्षे एम माने छे
के जो कर्मनुं जोर वधारे हशे तो पाछा पडी जशुं–एटले ते तो पहेलेथी ज हारेला छे. मात्र इन्द्रियाधीन ज्ञान
करीने देव–गुरु–शास्त्र वगेरे परावलंबने जेणे लाभ मान्यो छे, पण स्वाधीन अतीन्द्रिय ज्ञानवडे स्वभाव
सामर्थ्यनी