जेवा भावे अनंत भव कर्या एवी ज जातनो ते भाव छे. ए ऊंधो भाव फेरवीने अपूर्व स्वभावदशा प्रगट कर्या
वगर जन्ममरणनो अंत आवे नहि.
हुं जीव छुं, मारामां पुण्य–पाप नथी,
हुं जीव छुं, मारामां संसार नथी,
ज सेवन कर्युं छे. धर्म करे अने तेना फळनी शंका रह्या करे एम बने ज नहि.
अंतरंग मोहिनी नथी...चिरंकाळ आनंदनी प्राप्ति, अद्भूतस्वरूप दर्शितानी बलिहारी छे! वळी, जेना आत्मामांथी
अनंतकाळनुं ऊंधुंं परिणमन टळी गयुं छे अने स्वभाव तरफनुं परिणमन प्रगट थयुं छे– क्षणे क्षणे अनंत शुद्धता
वधती जाय छे अने क्षणेक्षणे अनंत कर्मोनो नाश थाय छे,–ते आत्माने हवे संसारमां रखडवानी शंका होय एम
बने ज केम?
केम के ते परमानंद थवामां निमित्त छे. भगवाननी हयातिमां गणधर वगेरे संतोने संपूर्ण परमानंद प्राप्त थवानी
लायकात हती अने तेमने निमित्तरूपे भगवाननी वाणी हती, तेथी भगवाननी वाणीनी परंपरामां जे आगम छे
तेने परमानंद कहेवाय छे. अने भगवाननी वाणीनी परंपरा सिवायना पाछळथी संत–मुनिओए रचेलां आगमो
‘आनंद मात्र’ छे. केमके ते पण एक देश आनंद थवानुं निमित्त छे. भगवानना विरह बाद जीवोने संपूर्ण परमानंद
थवानी लायकात न हती, पण अंशे आनंद थवानी लायकात तो हती, ते आनंदनुं नोआगम आ समयसार छे. तेथी
ते समयसारने पण आनंदरूप कहेवाय छे. एक देश आनंदनुं निमित्त छे अने एकदेश आनंद प्रगटे छे. आ
समयसार समजे अने आनंद न प्रगटे ए वात वीतरागना शासनमां नथी–अर्थात् समयसार समजे तेने अवश्य
वीतरागी आनंद प्रगटे ज. आत्माना आनंदमां निमित्तरूप शास्त्रोने पण ‘आनंद’ संज्ञा आपी छे.
नथी. तेम जे जीव चैतन्य स्वभावना पुरुषार्थमां जाग्यो ते एम प्रतीत करे छे के हुं सर्वे विकारनो क्षय करनार छुं,
मने जीती जाय एवुं कोई आ जगतमां छे ज नहि. स्वभावना जोर पासे कोई विकारनुं के कर्मोनुं जोर मानता ज
नथी. मारा स्वभावमां कोई उपाधिभाव नथी तेथी ए स्वभावनी प्रतीतमां हवे कोई विकार थवानो भय नथी,
अने तेथी भवमां रखडवानी शंका नथी.
भावोमां पारिणामिक भाव निरपेक्ष छे अने अन्य चारे भावो कर्मनी उपाधिवाळा छे. औदयिकभावमां कर्मनी
हाजरीनी उपाधि छे, क्षायोपशमिकभावमां कर्मनी कंईक हाजरी अने कंईक अभाव एवी उपाधि
(–अपेक्षा) छे. ए चारे भावो क्षणिक छे, तेना लक्षे विकल्प टळतो नथी; अने त्रिकाळी पारिणामिक स्वभावनी
द्रष्टिए केवळज्ञाननी उत्पत्ति अने विकारनो नाश–एवी दशा थाय ज, ते दशा पाछी फरे नहि.