Atmadharma magazine - Ank 046
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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द्वितीयश्रावणः२४७३ः २२७ः
समजाय अने धर्मदशा प्रगटे. ए सिवाय बीजुं गमे तेटलुं करी करीने जिंदगी काढे तोपण तेने धर्म थवानो नथी,
जेवा भावे अनंत भव कर्या एवी ज जातनो ते भाव छे. ए ऊंधो भाव फेरवीने अपूर्व स्वभावदशा प्रगट कर्या
वगर जन्ममरणनो अंत आवे नहि.
हुं जीव छुं, मारामां अजीव नथी,
हुं जीव छुं, मारामां पुण्य–पाप नथी,
हुं जीव छुं, मारामां संसार नथी,
हुं जीव छुं मारे मोक्ष ज छे–एम स्वभावनी प्रतीत वगर धर्म नथी. कोई कहे के धर्म तो करीए छीए पण
अमारूं शुं थाशे एनी कांई खबर पडती नथी.–तो एम कहेनार जीवे धर्म ज कर्यो नथी परंतु धर्मना नामे अधर्मनुं
ज सेवन कर्युं छे. धर्म करे अने तेना फळनी शंका रह्या करे एम बने ज नहि.
सम्यग्द्रष्टि जीवनी अपूर्व निःशंक दशा.
सम्यग्दर्शन थतां जीवनी केवी अपूर्व दशा होय छे ते संबंधी श्रीमद् राजचंद्र कहे छे के–ते पवित्रदर्शन थया
पछी गमे ते वर्तन हो, परंतु तेने तीव्र बंधन नथी, अनंत संसार नथी, अभ्यंतर दुःख नथी, शंकानुं निमित्त नथी,
अंतरंग मोहिनी नथी...चिरंकाळ आनंदनी प्राप्ति, अद्भूतस्वरूप दर्शितानी बलिहारी छे! वळी, जेना आत्मामांथी
अनंतकाळनुं ऊंधुंं परिणमन टळी गयुं छे अने स्वभाव तरफनुं परिणमन प्रगट थयुं छे– क्षणे क्षणे अनंत शुद्धता
वधती जाय छे अने क्षणेक्षणे अनंत कर्मोनो नाश थाय छे,–ते आत्माने हवे संसारमां रखडवानी शंका होय एम
बने ज केम?
आनंद
आजे समयसार–प्रतिष्ठानो मंगळ दिवस छे, सवारमां मंगळिक तरीके आनंदनी वात करी छे. श्रीजयधवला
शास्त्रमां कह्युं छे के– दिव्यध्वनिनी परंपराथी गणधरादि संतोने अंग–पूर्वोनो जे उपदेश मळ्‌यो ते ‘परमानंद’ छे,
केम के ते परमानंद थवामां निमित्त छे. भगवाननी हयातिमां गणधर वगेरे संतोने संपूर्ण परमानंद प्राप्त थवानी
लायकात हती अने तेमने निमित्तरूपे भगवाननी वाणी हती, तेथी भगवाननी वाणीनी परंपरामां जे आगम छे
तेने परमानंद कहेवाय छे. अने भगवाननी वाणीनी परंपरा सिवायना पाछळथी संत–मुनिओए रचेलां आगमो
‘आनंद मात्र’ छे. केमके ते पण एक देश आनंद थवानुं निमित्त छे. भगवानना विरह बाद जीवोने संपूर्ण परमानंद
थवानी लायकात न हती, पण अंशे आनंद थवानी लायकात तो हती, ते आनंदनुं नोआगम आ समयसार छे. तेथी
ते समयसारने पण आनंदरूप कहेवाय छे. एक देश आनंदनुं निमित्त छे अने एकदेश आनंद प्रगटे छे. आ
समयसार समजे अने आनंद न प्रगटे ए वात वीतरागना शासनमां नथी–अर्थात् समयसार समजे तेने अवश्य
वीतरागी आनंद प्रगटे ज. आत्माना आनंदमां निमित्तरूप शास्त्रोने पण ‘आनंद’ संज्ञा आपी छे.
मने जीतनार कोई नथी
नेपोलीयन बोनापार्ट कहेतो हतो के ‘अशक्य’ शब्द मारा शब्दकोषमां छे ज नहि. अर्थात् हुं जेना उपर
विजय न मेळवी शकुं एवुं कोई छे ज नहि. ए पोतानुं ज जोर भाळे छे, पोताना जोर पासे बीजाना जोरने गणतो
नथी. तेम जे जीव चैतन्य स्वभावना पुरुषार्थमां जाग्यो ते एम प्रतीत करे छे के हुं सर्वे विकारनो क्षय करनार छुं,
मने जीती जाय एवुं कोई आ जगतमां छे ज नहि. स्वभावना जोर पासे कोई विकारनुं के कर्मोनुं जोर मानता ज
नथी. मारा स्वभावमां कोई उपाधिभाव नथी तेथी ए स्वभावनी प्रतीतमां हवे कोई विकार थवानो भय नथी,
अने तेथी भवमां रखडवानी शंका नथी.
पांच भावो
पांच भावोमां जेने पारिणामिक स्वभाव भाव प्रतीतमां आव्यो तेणे ज पांचे भावोना स्वरूपने यथार्थ
जाण्युं छे. पण जेने त्रिकाळी स्वभाव भावनी प्रतीति बेठी नथी तेणे एकेय भावने यथार्थस्वरूपे जाण्यो नथी. पांच
भावोमां पारिणामिक भाव निरपेक्ष छे अने अन्य चारे भावो कर्मनी उपाधिवाळा छे. औदयिकभावमां कर्मनी
हाजरीनी उपाधि छे, क्षायोपशमिकभावमां कर्मनी कंईक हाजरी अने कंईक अभाव एवी उपाधि
(–अपेक्षा) छे. ए चारे भावो क्षणिक छे, तेना लक्षे विकल्प टळतो नथी; अने त्रिकाळी पारिणामिक स्वभावनी
द्रष्टिए केवळज्ञाननी उत्पत्ति अने विकारनो नाश–एवी दशा थाय ज, ते दशा पाछी फरे नहि.
आत्मामां मंगळिक प्रगट करवा भव्यजीवोए शुं करवुं?
जीवोए पोताना आत्मामां मंगळिक पर्याय प्रगट करवा माटे शुं करवुं? चारे भावो कर्मनी उपाधिवाळा छे
ते उपर जोवानुं छोडी दईने पांचमा पारिणामिकभाव–