एकरूप शुद्ध छे, ए स्वभावना लक्षे शुद्धपर्यायनी उत्पत्ति थाय छे अने विकारनो नाश थाय छे; ए ज मंगळिक
छे. पर्यायमां विकार थाय छे पण त्रिकाळ स्वभावमां विकार नथी. पोतानी पर्यायमां विकार होवा छतां ‘मारो
स्वभाव विकार रहित छे’ एवुं भान साधक धर्मात्माने ज होय छे, अने तेओ ते स्वभावनी एकाग्रताना जोरे
विकारनो नाश करे छे. केवळीभगवानने विकार होतो ज नथी; अज्ञानीने पर्यायमां विकार होय छे पण विकार
रहित स्वभावनुं भान होतुं नथी, तेथी तेने विकार कदी टळतो नथी. ज्ञानीने पूर्ण अविकारी स्वभावना लक्षे
अविकारी पणानो अंश प्रगटयो छे, ते अंश द्वारा पूर्ण स्वभावनी एकाग्रतावडे पूर्णता प्रगट करे ज. माटे भव्य
जीवोए पोताना आत्मामां मंगळिक पर्याय प्रगट करवा माटे, ए पांच भावोने ओळखीने पारिणामिक
स्वभावनो परम महिमा लावीने तेमां ज लीन थवुं.
तेना उपर मंडायेली छे. आजे तो जैनशासननी राजधानी तरीके सोनगढने ओळखावीए तो ते पण
व्याजबी छे.
तत्त्वज्ञाननी प्रवृत्ति एवी बनी रहे छे के मुमुक्षुओ तेमां ज रत रहे छे.
प्रभुनी मूर्तिओ पण बिराजमान छे. उपरना भागमां श्री नेमीनाथ भगवाननी तीव्र वैराग्य मूद्रावंत प्रतिमा
शोभे छे.
दिव्यवाणी झीली रह्या छे–एवुं द्रश्य तेमां नजरे पडे छे; उपरांत श्री गणधरदेव, संतोना टोळां, देवो–मनुष्यो ने
तीर्यंचो श्रोताओ वगेरे द्रश्यो छे.
(४) श्री समयसार–प्रतिष्ठाः–श्री जैनस्वाध्याय मंदिरमां वीतरागदेवनी साक्षात् वाणी समान् परमागम
“प्रतिष्ठा–मंदिर” जोतां ज एम ख्यालमां आवी जाय छे के आखा भारतमां श्री समयसार परमागमनी सर्वोत्कृष्ट
भक्ति ने बहुमान जो क्यांय होय तो ते अहीं ज छे. अने ज्यारे समयसार उपर सद्गुरुदेवश्रीना प्रवचनोने
सांभळीए त्यारे एम ख्याल आवे छे के समयसारमां भरेला ऊंडा–ऊंडा तत्त्वज्ञानने सर्वोत्कृष्टपणे वर्तमानमां
समजवानुं स्थान सोनगढ ज छे.
जोईने मुमुक्षुओनां हृदयोमां आत्मिक भावनानी ऊर्मिओ जाग्या वगर रहेती नथी...श्रोताओने माटे श्री
जैनस्वाध्याय मंदिर टूंकुं पडयुं अने आ नवो श्री–