द्वितीयश्रावणः२४७३ः २३१ः
परम पूज्य सद्गुरुदेवश्री सुवर्णपुरीमां हंमेशा धर्मनो उपदेश आपीने शासन पर अपार उपकार करी रह्या छे.
तेमनी वाणी सांभळनार जिज्ञासुओनां जीवन पलटाई जाय छे. तेओश्रीनी वाणी मुमुक्षुओने मोक्ष पामवा माटे जागृत
करे छे. तेमना उपदेशनो मूळ पायो ए छे के तमे आत्मानी साची समजणनो उपाय करो, अनादिना असत्नुं सेवन छोडो.
अहो, मुमुक्षुओनां महा सद्भाग्ये आ पंचमकाळमां अजोड गुरुदेवश्री मळी गयां छे...भरतक्षेत्रमां धर्मकाळ
वर्तावीने अमारा जेवा पामर जीवोनो उद्धार करनार हे सद्गुरुदेव! आप त्रिकाळ जयवंत वर्तो, आपना
चरणारविंदमां अमारा नमस्कार हो.
(अनुसंधान पाना नं. २१४ थी चालु.)
४. प्रत्यक्ष सद्गुरु योगमां वर्ते द्रष्टि विमुख. प. ग्रहे नहि परमार्थने लेवा लौकिक मान.
(२) अर्थ आपी समजावोः–अ. १. सद्व्यवहार, २. जिनदेह, ३. अल्पप्रयासे, ४. स्वच्छंद, प. समक्ति. १०
ब. आखी गाथा पूरी करोः ......... पाम्या एम अनंत छे...
‘क’ वर्गना प्रश्नोना जवाब
जवाब (१)–जेनामां चेतनागुण होय तेने जीवद्रव्य कहे छे; जीवद्रव्य अनंतानंत छे अने ते आखा लोकाकाशमां
रहेलां छे. एक जीवने लोकाकाश जेटला असंख्य प्रदेश होय छे, संकोचविकास अपेक्षाए ते वर्तमान शरीर प्रमाण छे,
समुद्घात अपेक्षाए लोकाकाश जेवडो छे अने सिद्धदशामां जीवनो आकार लगभग छेल्ला शरीर जेवडो होय छे.
जवाब (२) जे पुद्गलस्कंधो कर्मरूपे परिणमे तेने कार्मणवर्गणा कहेवाय छे अने ज्ञानावरणादि कर्मोना समूहने
कार्मणशरीर कहे छे. एमां फेर एटलो छे के कार्मणशरीरमां तो पुद्गलस्कंधो कर्मरूपे परिणमी गया छे, अने
कार्मणवर्गणाना स्कंधो वर्तमानमां कर्मरूपे परिणम्या नथी पण भविष्यमां कर्मरूपे थवानी तेनामां लायकात छे.
जवाब (३)–शरीर, भाषा अने मन ए त्रणे जड छे, केमके तेओ पुद्गलस्कंधोनां बनेलां छे, तेनामां ज्ञान
नथी. शरीर ते आहारवर्गणा स्कंधोनुं बनेलुं छे, भाषा ते भाषावर्गणाना स्कंधोनी बनेली छे अने मन ते
मनोवर्गणाना स्कंधोनुं बनेलुं छे. माटे ते त्रणे जड छे.
जवाब (४)–दरेक द्रव्यमां प्रदेशत्व गुण होवाथी तेनो आकार अवश्य होय छे. अने दरेक द्रव्यमां
प्रमेयत्वगुण छे ते एम बतावे छे के द्रव्य कोईने कोई ज्ञाननो विषय छे.
जवाब (प) – केवळज्ञान–त्रणकाळ त्रणलोकना सर्व पदार्थोने एक साथे जे प्रत्यक्ष जाणे ते ज्ञानने
केवळज्ञान कहेवाय छे. केवळज्ञान एटले पुरेपुरुं ज्ञान.
अंतनुं शरीर–छेल्लुं शरीर. जीवने सिद्धदशा थतां पहेलां जे शरीर होय ते शरीरने अंतनुं शरीर कहेवाय छे.
अर्थक्रिया–प्रयोजनभूत क्रिया; दरेक वस्तुमां वस्तुत्व नामनो गुण होवाथी दरेक वस्तुमां अर्थ क्रिया होय छे.
जेम पाणीने धारण करवानी क्रिया ते घडानी अर्थक्रिया कहेवाय छे तेम पोताना गुणोए पर्यायने धारण करवी ते
दरेक द्रव्यनी अर्थक्रिया छे. पोतानी मोक्षपर्याय धारण करवी ते जीवनी शुद्ध अर्थक्रिया छे.
(आत्मसिद्धि)
जवाब (१) १. प्रत्यक्ष सद्गुरु समान परोक्ष जिनभगवाननो उपकार नथी. केमके प्रत्यक्षसद्गुरु पासेथी
तो उपदेशादिनो लाभ मळी शके छे, वळी जिनेन्द्र भगवाननुं स्वरूप समजावनार पण सद्गुरु छे. सद्गुरुना उपदेश
वगर जिननुं स्वरूप समजाय नहि. (२) जीव अनादिथी पोतानी ऊंधी मान्यताथी स्वछंदे वर्ती रह्यो छे; जो ते
स्वछंद छोडीने सद्गुरु कहे तेम समजे तो तेनुं अज्ञान टळे अने तेनो जरूर मोक्ष थाय. (३) मान कषाय ते जीवनो
महा शत्रु छे; मने घणुं ज्ञान छे–इत्यादि प्रकारे जीव मान करे छे, ते माननो नाश सद्गुरुना शरणथी थाय छे, पण
पोताना स्वछंदे मान टळतुं नथी. सद्गुरुना समागमथी पोते पोताना दोषोने ओळखीने ते टाळी शके छे. (४)
अज्ञानी मतार्थी जीव सद्गुरु पासेथी सत् सांभळवा छतां पोतानी ऊंधी मान्यता छोडे ज नहि, अने अंतरथी तेनो
विरोध करे. ‘हुं कंईक जाणुं छुं’ एवुं अभिमान करीने स्वछंदी जीव सद्गुरुनी आज्ञाथी विरूद्ध वर्ते छे. (प) मतार्थी
जीवो पोताना परिणामने तो जाणता नथी अने ‘हुं व्रत करुं छुं’ एवुं मिथ्या अभिमान सेवे छे. परंतु सद्गुरुए
बतावेलो साचो परमार्थ मार्ग तेने ते ग्रहण करता नथी; लौकिक मान लेवा खातर व्रतादिनुं अभिमान छोडता नथी.
जो साची समजण करे अने व्रतादिनुं अभिमान मूकी दे तो लौकिकमां तेनुं मान रहे नहि, तेथी मतार्थी जीव साचा
मार्गने मानता नथी.
जवाब (२) १. सद्व्यवहार–साचो व्यवहार; जे आत्माना परमार्थ स्वभावने बतावनार होय तेने
सद्व्यवहार कहेवाय छे. तत्त्वना अभ्यासनो सत्य पुरुषार्थ ते सद्व्यवहार छे. २. जिनदेह–जिनेन्द्रभगवाननुं शरीर;
जिनेन्द्र भगवानना शरीरनुं वर्णन ते आत्मानुं वर्णन नथी, पण शरीरना गुणोथी आत्माना गुण जुदा छे.