Atmadharma magazine - Ank 046
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ः २२०ः आत्मधर्मः ४६
अहो! श्री सत्पुरुष के वचनामृतं जगहितकरं
मूद्रा अरू सत्समागम सूती चेतना जागृत करं
गिरती वृत्ति स्थिर रखे दर्शनमात्र से निर्दोष है
अपूर्व स्वभाव के प्रेरक सकल सद्गुण कोष है.
सद्गुरुनो महिमा वर्णवतां तेओ कहे छे के–‘हे कुंदकुंदादि आचार्यो! तमारां वचनो पण स्वरूपानुसंधानने
विषे आ पामरने परम उपकार भूत थयां छे. ते माटे हुं तमने अतिशय भक्तिथी नमस्कार करुं छुं.’
‘आत्मसिद्धि’ मां ‘अहो! अहो! श्री सद्गुरु...’ इत्यादि अनेक गाथाओमां तेमणे श्री सद्गुरुनुं माहात्म्य
गायुं छे. सद्गुरुनो उपकार वर्णवतां तेमनुं हैयुं भक्तिथी, माहात्म्यथी, प्रमोदथी उभराई जाय छे. तेओए जणाव्युं
छे के–पोताना स्वछंद अने मत छोडीने जे सद्गुरु शरणमां जाय छे ते आत्मज्ञान पामे छे; अने सद्गुरुनो उपकार
तो जिनप्रभु करतां पण वधारे महिमावंत छे, केम के जेम दूर रहेल क्षीरसमुद्र अत्रेना तृषातूरनी तृषा न छीपावे
पण मीठा पाणीनो कळशो तृषा छीपावे तेम प्रत्यक्ष सद्गुरु संबंधमां पण समजवुं.
तेमनी उच्च भावना
श्रीमद् राजचंद्रजीए ‘अपूर्व अवसर’ मां पूर्णतानी भावना भावी छे. तेमनी वैराग्य भावनाना उच्च
आशयो वैराग्यमां तरबोळ करी दे तेवा छे. तेओश्री भावना भावे छे के क्यारे अमे संबंधोना बंधनने छेदीने
सत्पुरुषोना पंथे चालीशुं! क्यारे बाह्यमां लोक प्रत्ये अने अंतरंगमां शुभाशुभभावो प्रत्ये उदासीन थईने अनन्य
एवा आत्माने सर्व प्रकारे ग्रहण करशुं?
महापुरुषनी अंतरदशा
मान–अपमान, जीवन–मरण, भव–मोक्ष वगेरे माटे तेमने चैतन्यने अनुसरीने समभाव वर्ततो हतो.
ज्ञानमां ज्ञानपणे स्थिर रही सर्व पदार्थोने ज्ञेयपणे जाणवा ते ज खरो समभाव छे. ज्ञान ते ज के जे हर्ष–शोक वखते
हाजर थाय. ज्ञानीओ हर्ष शोकमां एकाकार थता नथी. तेओश्री कहे छे के–शुद्ध ज्ञानने आश्रये ज निराबाध सुख
रहेलुं छे. ते महापुरुष करुणा करी कहे छे के–शुद्ध अने निर्दोष एवा चैतन्य तत्त्वने पर पदार्थोमां नहि मूंझवतां तेने
निर्दोष अने अपूर्व सुख लूंटवा दो. विनय अने विवेक ए ज धर्मना मूळ हेतुओ छे. विवेक एटले भेदज्ञान जेम
वडील पासे आपणे खराब आचरण आचरता नथी तेम आत्मा पासे पण शुभाशुभने बदले शुद्ध परिणमवुं ए ज
यथार्थता छे. तेमने निश्चय आत्मज्ञाननी प्राप्ति थयेल अने तेनो महिमा एक ज वाक्यमां तेओ अपूर्व रीते वर्णवे
छे के–अनंत काळथी जे ज्ञान भवहेतुरूप थतुं हतुं तेने समय मात्रमां जात्यंतर करी जेणे भवनिवृत्तिरूप कर्युं ते
कल्याणमूर्ति सम्यग्दर्शनने नमस्कार हो.
तेमणे करेलुं जिनमार्गनुं वर्णन
तेओए जिनमार्गनुं स्वरूप एक ज कडीमां कह्युं छे के–
जड भावे जड परिणमे चेतन चेतन भाव,
कोई कोई पलटे नहि छोडी आप स्वभाव.
आमां तेमणे जगत मात्रना जड–चेतन् पदार्थोने स्वतंत्र कह्या छे. स्वतंत्रता ए ज यथार्थता, यथार्थता ए
ज वीतरागता अने वीतरागता ए ज मुक्तिनुं कारण छे. वळी तेओए कह्युं छे के–
आ भव वणभव छे नहि ए ज तर्क अनुकूळ,
विचारतां पामी गया आत्मधर्मनुं मूळ.
आ कडीमां तेमणे आत्मा त्रिकाळ छे एम बताव्युं, अने ते द्रव्यद्रष्टि थई, अने ए ज यथार्थ द्रष्टि छे, अने
ते उपर विचारतां आत्मसाक्षात्कार थाय छे. कारण के द्रव्यद्रष्टिमां भव के भवनो भाव होतो नथी.
समाधिमरण अने अंतरंगदशा
सं. १९प७ना चैत्र वद प ने मंगळवारे ते महापुरुषनुं राजकोट खाते समाधिमरण थयुं. तेमने पोता माटे
एटली निःशंकता वर्तती हती के तेओश्रीए कह्युं हतुं के–‘देह एक ज धारीने, जाशुं स्वरूप स्वदेश रे.’ तेओ गृहवासी
छतां वनवासी, भोगी छतां त्यागी अने अपूर्ण छतां पूर्ण हतां. शी तेमनी अंतरनी ऊज्जवळता, हृदयनी
एकाग्रता, चारित्रनी शुद्धता अने आत्मानी एकाग्रता! तेमनी भव्य अने वैराग्यथी अंकित मूद्रावाळुं चित्र
‘सुवर्णना प्रवचन’ नी (सुवर्णपुरीना प्रवचन मंडपनी) दीवाल पर शोभी रह्युं छे.
देह छतां जेनी दशा वर्ते देहातीत,
ते ज्ञानीना चरणमां हो वंदन अगणित
(आ निबंधोमां राणपुरना नंदलाल हरगोवनदास शाहे लखेल निबंध त्रीजा नंबरे हतो; ते निबंधमांथी
केटलोक भाग अहीं आपवामां आवे छे.)