ज्यारे मारो हाथ तेने निमित्त थाय त्यारे ते उपडे’–एम माननार जीवो वस्तुनी पर्यायने स्वतंत्र मानता नथी
एटले के तेओनी संयोगीद्रष्टि छे; तेओ वस्तुना स्वभावने ज मानता नथी, तेथी मिथ्याद्रष्टि छे. लाकडुं ज्यारे ऊंचुं
नथी थतुं त्यारे तेनामां ऊंचुं थवानी लायकात ज नथी, अने ज्यारे तेनामां लायकात होय छे त्यारे ते स्वयं ऊंचुं
थाय छे; पण हाथना निमित्तथी ऊंचुं थतुं नथी. पण ज्यारे ऊंचुं थाय त्यारे हाथ वगेरे निमित्त स्वयमेव होय ज.
एवो उपादान–निमित्तनो मेळ कुदरती स्वभावथी ज होय छे. निमित्तनुं ज्ञान कराववा माटे ‘हाथना निमित्ते ऊंचुं
थयुं’ एम कहेवानो मात्र व्यवहार छे.
अंतराय होय ज नहि. एवो ज उपादान–निमित्तनो संबंध छे के बन्नेनो मेळ होय. छतां एकबीजाना कारणे कोईनी
क्रिया थई नथी. सोयनी गमन करवानी योग्यता थई माटे लोकचूंबक नजीक आव्यो– एम नथी अने लोकचूंबक
नजीक आव्यो माटे सोय खेंचाणी–तेम पण नथी. सोयनी क्षेत्रांतरनी लायकात होय छे ते ज वखते लोकचूंबकमां ते
क्षेत्रे ज रहेवानी लायकात होय छे–आनुं नाम ज निमित्त–नैमित्तिक संबंध छे.
जेम अन्य पत्थर पण सोयने कांई नथी करतां छतां तेने निमित्त केम नथी कहेवातुं?
तेवी लायकात ते समये नथी. जेम सोयमां उपादानपणानी लायकात छे तेथी ते खेंचाय छे, तेम ते वखते ज
लोकचूंबकपत्थरमां
निमित्त कहेवाय छे. लोकचूंबकमां निमित्तपणानी जे लायकात छे तेने बीजा बधा पदार्थोथी जुदी पाडीने ओळखवा
माटे तेने ‘निमित्त’ कहेवाय छे, पण तेना कारणे सोयमां किंचित् विलक्षणता थई नथी. उपादानमां कार्य थाय त्यारे
व्यवहारे–आरोपथी बीजा पदार्थने निमित्त कहेवाय छे. ज्ञाननो स्वभाव स्वपर प्रकाशक छे तेथी ते उपादान अने
निमित्त बन्नेने जाणे छे.
कहेवाय नहि. धर्मास्तिकायनी माफक ज बधा निमित्तोनुं स्वरूप समजी लेवुं. धर्मास्तिकायमां निमित्तपणानी एवी
लायकात छे के पदार्थो गति करे तेमां ज तेने निमित्त कहेवाय, पण स्थितिमां तेने निमित्त कहेवाय नहि, स्थितिमां
निमित्त कहेवाय–एवी लायकात अधर्मास्तिकायमां छे.
नथी तेओ लोकाग्रे स्थित थाय छे ते पण तेमनी ज तेवी लायकात छे ते कारणे छे ते वखते अधर्मास्तिकायने निमित्त
कहेवाय छे.
उत्तरः– तेमनी लायकात ज तेवी छे; केमके ते लोकनुं द्रव्य छे अने तेनी लायकात लोकना छेडा सुधी ज