Atmadharma magazine - Ank 048
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ः २६२ः आत्मधर्मः ४८
कया भावे धर्म थाय अने कया भावे अधर्म थाय?
मंगळिक तरीके पारिणामीक भावनो महिमा
(वीर सं. २४७३ वैशाख वद ६ श्रीसमवसरण जिन प्रतिष्ठा महोत्सव दिने
पंचास्तिकाय गाथा प६ उपर पूज्य गुरुदेवश्रीनुं प्रवचन)
आ गाथामां जीवना पांच भावोनुं वर्णन छे. आत्मामां पांच भावो छे; शरीर वगेरे जड वस्तु छे, ते जडनी
अवस्था ते तेनो भाव छे. जडना भाव जडमां होय छे, ने आत्माना भाव आत्मामां होय छे; अहीं आत्माना
भावनी वात छे. आजे समवसरणमां श्री सीमंधर भगवान अने श्री कुंदकुंदाचार्यदेवनी प्रतिष्ठानो मंगळदिन छे,
तेथी व्याख्यानमां मंगळरूपे जीवना पांच भावोमांथी पारिणामिक भावनुं वर्णन सोथी पहेलां थशे.
जीवने धर्म करवो छे, परंतु जीवना भाव क्या क्या छे अने तेमां क्या भावथी धर्म थाय छे ते समज्या
वगर धर्म थाय नहि. आत्मवस्तुमां पांच प्रकारना भाव छे, ए पांच प्रकारना भावोमां अनादि अनंत बधा
आत्माओनुं वर्णन आवी जाय छे. ए पांच भावोनुं स्वरूप समजे तो धर्म–अधर्मनो विवेक थाय. ते पांच भावोनुं
स्वरूप समज्या वगर धर्म–अधर्म समजाय नहि.
पारिणामिक, औदयिक, औपशमिक, क्षायोपशमिक ने क्षायिक ए पांच भावो आत्माना छे. ए पांचमांथी जे
पारिणामिक भाव छे ते द्रव्यस्वभाव छे. उदयादि चार भावो पर्यायरूप छे–एक समयपूरता छे अने पारिणामिक
भाव द्रव्यस्वभावरूप छे–त्रिकाळ एकरूप छे. आत्मानो सत्तारूप त्रिकाळी स्वभाव ते पारिणामिकभाव छे. जेणे धर्म
करवो होय तेणे आत्माना आ पांच भावोने जाणवा जोईए. जो जीवे कदी पूर्वे धर्म कर्यो होत तो तेने आवी
संसारदशा न होत. पण पूर्वे कदी धर्म समज्यो नथी तेथी अज्ञानपणे रखडे छे. सूक्ष्मपणे तो आत्मामां अनंत
प्रकारना भावो छे, पण जीवने धर्म करवा माटे अनंतप्रकारना भावोने पांच प्रकारना भावोमां वर्णव्या छे, ए पांच
प्रकारना भावो समजवाथी जीवने धर्म–अधर्मनो विवेक थई जाय छे. तेमां सोथी पहेलां मंगळ तरीके
पारिणामिकभाव वर्णवीए छीए.
आत्मा त्रिकाळ एकरूप निरपेक्ष स्वरूपे छे ते पारिणामिकभाव छे. शरीर–मन–वाणीथी पार, रागद्वेषथी
पार अने निर्मळ अवस्थानी अपेक्षाथी पण पार एवो आत्मानो निरपेक्ष स्वभाव छे; विकार करवाथी ते स्वभाव
घटी जतो नथी अने अविकार पर्याय करवाथी ते स्वभाव वधी जतो नथी एवो जे स्वभावभाव सदाय एकरूप छे
ते पारिणामिकभाव छे; ए पारिणामिकभाव ने जाणवाथी–मानवाथी सम्यग्दर्शन थाय छे, ए ज महा मंगळ छे.
आत्माना पारिणामिक स्वभावमां परनो संबंध तो नथी, विकारनो संबंध नथी, अने शुद्धपर्याय प्रगटे तेनी
अपेक्षा पण नथी. अनादिअनंत आत्माना होवापणाना सामर्थ्यवाळो स्वभावभाव ते पारिणामिकभाव छे. पांच
भावथी अनादिअनंत आत्मस्वरूप जणाई जाय छे. ते पांचमां सौथी पहेलां पारिणामिकभाव वर्णववानुं कारण ए
छे के ए भावने जाण्या वगर अनादिथी जीवे बधुं कर्युं छे, पण पोताना स्वभाव सामर्थ्यरूप त्रिकाळी
पारिणामिकस्वभावने जाण्यो नथी. ए पारिणामिक स्वभावने जाण्या वगर जीव अनादिथी जे कांई भावो करे छे ते
विकार छे, अधर्म छे, तेने औदयिकभाव कहेवाय छे. ते पारिणामिकभावने जीव जाणे तो तेना लक्षे औपशमिक वगेरे
भावो प्रगटे, ते धर्म छे.
आत्माना त्रिकाळी स्वभावने धर्म के अधर्मनी अपेक्षा नथी; अनादिथी अधर्मभाव करे छे तेथी कांई
त्रिकाळी स्वभावनो नाश थई गयो नथी अने धर्मभाव करे तेथी कांई ते नवो प्रगटतो नथी. नवा प्रगटे ते तो
औपशमिक क्षायोपशमिक ने क्षायिकभाव छे. पारिणामिकभाव तो त्रिकाळ छे, तेमां प्रगटवुं के नाश थवुं एवी अपेक्षा
नथी, ते भावना लक्षे धर्मदशा नवी प्रगटे छे, परंतु ते भाव पोते नवो प्रगटतो नथी, ए तो सदाय पूरो एकरूप छे.
आवो पारिणामिकस्वभाव त्रिकाळ एकरूप बधाय आत्मामां छे. पारिणामिकभाव बधा आत्मानो सरखो छे,
पुद्गल वगेरे सर्वे पदार्थोमां पारिणामिकभाव छे. वस्तुना अस्तित्वरूप, होवावाळो, सत्तावाळो, निरपेक्ष त्रिकाळ
स्वभाव ते पारिणामिकभाव छे. एवा वस्तुस्वभावने जाण्या वगर सम्यग्दर्शन–सम्यग्ज्ञान थाय नहि अने
सामायिक वगेरे कांई साचुं होय नहि. आवा पारिणामिक स्वभावनुं बहुमान, ओळखाण अने रुचि करवी ते
सम्यग्दर्शननुं कारण छे, ते ज धर्म छे, ते ज मंगळ छे. आ रीते प्रथम पारिणामिकस्वभाव भावनुं बहुमान करीने
मंगळिक कर्युं.