Atmadharma magazine - Ank 048
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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आसोः२४७३ः २६३ः
ज्ञानकांड अने कर्मकांड
सर्वज्ञदेवना शासन सिवाय अन्य कोई मतमां आ पांच भावोनुं स्वरूप नथी. आ पांच भावोने बराबर
ओळखे तो अनेक प्रकारनी मिथ्या मान्यताओ टळी जाय.
औदयिकभाव–शुभाशुभ कर्माना उदयथी आत्मामां जे विकारी भाव थाय ते औदयिकभाव छे. ‘कर्मना
उदयथी थाय’ ए व्याख्या निमित्तथी छे, खरेखर तो पोताना सहज चैतन्यभावथी च्यूत थईने जे विकारभाव
आत्मा करे ते औदयिकभाव छे, अने ते वखते कर्मनी दशा उदयरूप होय छे ते निमित्त छे. पोताना वीतरागी आनंद
स्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान–एकाग्रता ते ज्ञानकांड छे अने ते स्वभावने भूलीने जे शुभाशुभभावो करे छे ते कर्मकांड छे,
कर्मकांड ते औदयिकभाव अर्थात् अधर्मभाव छे अने ज्ञानकांड ते धर्मभाव छे. दया, भक्ति, व्रत वगेरे संबंधी
शुभभावो ते बधा औदयिकभाव छे, तेनाथी कर्म बंधाय छे पण धर्म थतो नथी. ते दयादिना शुभभावमां जे धर्म
माने ते कर्मकांडी छे–अज्ञानी छे. देहनी क्रियामां धर्म माने ते तो जडवादी स्थूळ मिथ्याद्रष्टि छे. देहनी क्रिया तो नहि
पण आत्मामां जे दया भक्तिना भाव थाय ते भाव पण क्रियाकांड छे अने ए क्रियाकांडमां धर्म माने तो ते
मिथ्याद्रष्टि छे. शुभभाव अने अशुभ भाव ते बन्ने क्रियाकांड छे अने ए बन्ने औदयिक भाव छे. अनादिथी बधा
जीवोने आ भाव होय छे. ते कर्मरूप छे पण धर्मरूप नथी अथत तेनाथी बंधन थाय छे पण धर्म थतो नथी. आम
औदयिकभावनुं स्वरूप जे समजे ते पुण्यथी कदी धर्म माने नहि, कोई पण शुभरागथी आत्माने लाभ माने नहि.
आत्मस्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान–चारित्ररूप जे ज्ञानकांड (अर्थात् ज्ञाननी क्रियानो समूह) छे तेना वगर धर्म थाय
नहि. वीतरागी आनंदथी भरपूर एवो आत्मानो त्रिकाळीस्वभाव तेमां परिणमवुं ते धर्मनी क्रिया छे. धर्मनी क्रिया
एटले ज्ञानकांड अने अधर्मनी क्रिया एटले क्रियाकांड.
अनादिथी जीवने आ औदयिकभाव छे, अने ते भावथी रहित शुद्ध पारिणामिकस्वभाव पण अनादिथी
एकरूप छे. ते स्वभावने जाणे तो विकारी औदयिकभावोने पोतानुं स्वरूप न माने अने तेने पोतानुं कर्तव्य न
समजे. सौथी पहेलां जीव ज्यारे आवी समजण करे त्यारे तेने औपशमिकभाव प्रगटे छे, ते ज धर्मनी शरूआत छे.
पुण्य–पापना औदयिकभावोथी रहित आत्माना स्वभावभावनी श्रद्धा–ज्ञान–स्थिरतारूप ज्ञानक्रिया ते धर्म
छे अने ते मुक्तिनो उपाय छे. अने जेटला प्रकारनो पुण्य–पापनो राग छे ते बधोय कर्मकांड छे, तेना वडे कर्म बंधाय
छे पण आत्माना धर्मनी पुष्टि थती नथी. आत्माना स्वभावमां रागनी पुष्टि नथी, एटले जे भावे रागनी उत्पत्ति
थाय ते आत्मानो स्वभाव नथी. आत्मानो चैतन्यस्वभाव त्रिकाळ निरालंबी छे, स्वयंसिद्ध छे; आगमनो आधार
तेने नथी. आगममां आत्माना स्वभावने शुद्ध वर्णव्यो माटे आत्मा एवो छे–एम नथी परंतु आत्मा स्वयं पोताना
स्वभावथी सदाय शुद्ध छे, अने जे स्वभाव छे ते ज आगममां वर्णव्यो छे. एवा चैतन्य स्वभावने अवलंबीने जे
भाव प्रगटे ते धर्म छे. सहज वीतरागी आनंदथी भरपूर प्रचंड–अतिशय ऊग्र अखंड चैतन्य स्वभावनी सन्मुख
थईने जे श्रद्धा अने ज्ञानभाव प्रगटयो तेने ज्ञानकांड अथवा तो धर्मनी क्रिया कहेवाय छे. औपशमिक, क्षायोपशमिक
अने क्षायिक ए त्रणे भावो धर्मरूप छे. (ज्ञाननो क्षयोपशमभाव अनादिथी बधा जीवोने छे, परंतु मिथ्यात्वने
कारणे ते क्षयोपशमभाव धर्मनुं कारण नथी. सम्यग्दर्शन पूर्वक ज्ञाननो जे क्षयोपशम होय तेने सम्यग्ज्ञान कहेवाय छे
अने ते धर्मरूप छे.)
शरीर, मन, वाणीनी क्रिया ते तो जडनी क्रिया छे, तेमां तो आत्मानो अर्धम के धर्म नथी. अने पुण्य–पाप
ते कर्मकांड छे, रागनी क्रियानो समूह छे. ज्ञानीने ते भाव विद्यमान होय पण ज्ञानी तेने अशुद्धभाव जाणे छे, तेनाथी
आत्मानो धर्म मानता नथी, तेथी ते राग वखते पण ज्ञानी तो साची श्रद्धा ज्ञानरूप ज्ञानकांडना ज कर्ता छे एटले के
ते धर्मी छे. अने अज्ञानी जीव आत्माना शुद्धभावने जाणतो नथी पण ते रागादि कर्मकांड वडे आत्मानो धर्म थाय
एम माने छे तेथी ते अधर्मी छे. केम के ते ज्ञानकांडने जाणतो नथी पण कर्मकांडनो ज कर्ता थाय छे.
आत्मा ज्ञानस्वभावनी मूर्ति छे; ज्ञान सिवाय ‘कंईक करुं’ एवी वृत्ति ऊठे ते क्रियाकांड छे, तेमां धर्मनो
भाव नथी.–जो आम स्वभावभावने अने विभावभावने ओळखे तो पोताना परमस्वभावनी रुचि करीने
विभावभावोने हेय समजीने तेने छोडे. पण जो स्वभाव शुं अने विभाव शुं–एनुं भेदविज्ञान ज न होय तो जीव
कोनी रुचि करे? अने कोने छोडे? त्रिकाळी आत्मस्वभा–