Atmadharma magazine - Ank 048
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ः २६४ः आत्मधर्मः ४८
वने ओळखीने जे अंतर्मुख ज्ञानक्रिया प्रगटी ते ज्ञानकांड छे, एवा स्वभावनी भावना रहित अज्ञानी जीव मन–
वचन–कायाना लक्षे रागादि क्रियाकांडरूप परिणमे छे अने तेमां धर्म माने छे; ए ज औदयिकभाव छे, अने ते
अधर्म छे.
ज्ञानकांड अने कर्मकांड भिन्न छे. धर्ममां क्रियाकांड आवता हशे के नहि? धर्ममां क्रियाकांड तो आवे छे, पण
ते कया? ज्ञानरूपी क्रियाकांड के कर्मरूपी क्रियाकांड? आत्माना स्वभावनी ओळखाण–श्रद्धा अने स्थिरता ते ज्ञानना
क्रियाकांड छे, ए ज्ञानरूपी क्रियाकांड धर्ममां होय छे? परंतु अज्ञानीओ ते अंतरंगक्रियाने तो ओळखता नथी तेथी
तेओ शरीरादिनी क्रियाने धर्मना क्रियाकांड मानी ले छे अने रागादि कर्मकांडवडे धर्म माने छे. तेनी ए मान्यता
मिथ्या छे. जेने पोतानी मानेली क्रियानो आग्रह छे एवो अज्ञानी एम बोले छे के–साचुं समज्या पछी तो धर्ममां
अमारी क्रिया आवशेने? ज्ञानी तेने कहे छे के–हे भाई, धर्ममां तें मानेली क्रिया तो कदापि आववानी ज नथी.
समज्या पछी पण जे व्रतादि क्रिया आवशे ते तारी मानेली नहि होय. तें जेटली क्रियामां धर्म मान्यो छे ते बधी
जडनी क्रियाने विकारी क्रिया (कर्मकांड) छे, पण तेमां क्यांय धर्म नथी. हजी जेने धर्मनुं भान नथी–आत्मा कोण छे
तेनुं भान नथी, तेने धर्मनी क्रिया केवी होय तेनी खबर क्यांथी पडे?
स्वच्छंदता अने पात्रता
ज्ञानी पासेथी धर्मनी वात सांभळीने जे स्वीकारतो नथी अने उलटो कहे छे के जे रीते तमे कहो छो ते रीते
शास्त्रमां बतावो तो मानुं. ए रीते, ज्ञानीना आत्मानी सीधी वात जे कबुलतो नथी अने शास्त्रना लखाण मागे छे
ते स्वच्छंदी छे. अहीं एम कहेवानो आशय नथी के ज्ञानी जे कहे तेने समज्या वगर हाएहा पाडी देवी. परंते
ज्ञानीना आत्मा पासेथी सीधुं सत् सांभळीने जे निर्णय न करी शक्यो ते शास्त्रना लखाण उपरथी निर्णय केम करी
शकशे? माटे पहेलां तो ज्ञानी पासेथी ज सत् समजवुं जोईए. अनादि मिथ्याद्रष्टि जीवने सम्यग्दर्शन थवामां एकला
शास्त्रनुं निमित्त होय नहि, पण साक्षात् सत्पुरुषनुं ज निमित्त होय–एवो नियम छे.
श्रीमद्राजचंद्रजीए एकवार एक ‘मुनि’ ने झाटकया हता के अरे, आवी मुनिदशा होय? पटारा राखे ने
परिग्रहना पोटलांनो पार नहि, आ तमारी मुनिदशा कहेवाय?
त्यारे, ते मुनिने श्रीमद्राजचंद्रजी प्रत्ये बहुमान हतुं अने पोतानामां पात्रता हती तेथी तेमनी वातनो
विरोध न जाग्यो पण अर्पणता जागी, अने कह्युं–प्रभु! अमे साधु नथी, अमे मुनि नथी, अमे तो दंभी छीए.
बस! श्रीमदे जाणी लीधुं के आ पुरुष पात्र छे, तेने स्वच्छंद नथी पण अर्पणता छे, सत्ने सरळपणे
स्वीकारी ल्ये छे. तरत ज फरी पाछुं ते मुनिने कह्युं–नहि, नहि, तमे मुनि छो.
आवुं जोतां अज्ञानीने तो आश्चर्य थाय के हजी हमणां ज मुनि होवानी ना पाडी, ने वळी कहे छे के हा, तमे
मुनि छो. आम बे वात सांभळीने अज्ञानी तो मूंझाई जाय पण ते ज्ञानीनुं हृदय जाणे नहि. अने संप्रदायनी
ममतावाळा तो ए सांभळीने भडकी ऊठे के–अरे, आ वस्त्रवाळाने मुनि केम कह्या? पण भाई रे, तुं विचार तो कर
के ज्ञानीओ कांईक आशयथी एम कहेता हशे! पहेलां परीक्षा करी अने तरत ज अंतरथी हा पाडीने सत् वात कबुली
लीधी अने कही दीधुं के हुं मुनि नथी. बस, ए सत्नो हकार जोईने तेने नैगमनये मुनि कही दीधा. सत् भेटतां ज हा
पाडी दीधी तेथी भविष्यमां मुनिदशानी पात्रता जोईने मुनि कही दीधा. त्यां तेमने ख्याल तो छे के मुनिदशा
वस्त्रसहित न होय. अने वर्तमानमां आ मुनि नथी. परंतु तेमने ख्याल आवी गयो के आ जीव भविष्यमां एक–बे
भवे मुनिदशा प्रगट करशे एवी पात्रता छे.
‘अपूर्व अवसर’ काव्यमां पोते ज कहे छे के ‘मात्र देह ते संयम हेतु होय जो...’ एटले के एवी मुनिदशा
क्यारे आवशे के ज्यारे एक मात्र शरीर ज संयमना हेतुथी होय. शरीर सिवाय वस्त्रादि कांई ज न होय. त्यां एम
कह्युं अने वळी अहीं ते मुनिने वस्त्र होवा छतां तेने कह्युं के तमे मुनि छो. पण एम कहेवानी जुदी अपेक्षा छे.
सामाए तरत स्वच्छंद छोडीने अर्पणता प्रगट करी छे, तेथी तेनामां लायकात जोईने अने अंशनी शरूआत जोईने
नैगमनये वर्तमानमां ज मुनि कही दीधा. एक–बे भवे ते मुनिदशा प्रगट करशे. क्रियाकांडथी जोनारा तो आवुं जोईने
भडकी ऊठे. पण धीरो थईने समज्वा मागे तो ज्ञानीना अंतरनी गहनता समजाय. ज्ञानीना हृदयनो अंश पण
पकडे त्यारे तेनी सत् वात समजाय. स्वभावने जाण्या वगरना क्रियाकांड ते अधर्म छे.
हे जीव, तुं याद राख! के तारा शुद्रस्वभावने जाण्या वगर तुं जेटला क्रियाकांड करे ते बधा अधर्म