छे, तेनाथी तारा आत्मानुं किंचित् हित थवानुं नथी. क्रियाकांड वडे आठ कर्मो बंधाय छे. तुं गमे तेवा पुण्यभाव करे
तो तेनाथी पण मोह वगेरे कर्मो बंधाय छे. माटे तुं विचार करे के मुक्तिनो रस्तो ए क्रियाकांडथी जुदो छे.
कर्मनो उदय निमित्तरूप हतो, तेथी व्यवहारे एम बोलाय के ते कर्मना उदयथी जीवमां औदयिकभाव थयो. परंतु
वास्तविकपणे तो ते भाव जीवे पोते कर्यो छे, कर्मे कराव्यो नथी. कर्म तो निमित्त छे, निमित्त एटले पर, अने परनी
अपेक्षाथी कथन करवुं ते व्यवहार एम अहीं समजवुं. जे औदयिकभाव छे ते बंधभाव छे, अधर्म छे, विकार छे,
छोडवा जेवो छे. पोतानो पारिणामिक जीवस्वभाव त्रिकाळ छे, वर्तमान पण एवो ने एवो ज स्थित छे एनी
ओळखाण, महिमा अने एकाग्रता करवाथी ते उदयभाव टळी जाय छे.
परिणाम होय तो ते ज्ञानी नहि. परंतु एनी ए मान्यता जुठी छे. जो एम होय तो तो एकला वीतरागी जीवोने ज
धर्मी कहेवाय अने बीजा कोई–चोथा–पांचमा–छठ्ठा वगेरे गुणस्थानवाळा जीवोने धर्मी कही शकाय नहि. पण भाई!
शुभभाव तो मुनिने पण होय छे, अने कवचित अशुभभाव पण होय छे, छतां ते शुभाशुभ भाव वखते पण
श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र धर्म तेमने टकेलो छे. छतां तेमने जे राग छे ते राग तो धर्म नथी ज, राग तो अधर्म ज छे.
अने जो रागने धर्म माने अथवा राग करतां करतां धर्म थशे एम माने तो ते मिथ्याद्रष्टि छे, तेने धर्म नथी.
धर्मात्माने राग होवा छतां तेओ ते रागने धर्म मानता नथी, तेथी सम्यग्द्रष्टि धर्मात्माने अशुभराग वखते पण
श्रद्धा–ज्ञानरूपी धर्म तो होय छे. जीव गमे तेवी शुभक्रिया करे ते औदयिकभाव छे–अधर्म छे. अने ते भावथी जो
पोते आत्मानुं हित माने तो ते मिथ्यात्वरूपी महापापने पोषण आपीने संसारमां रखडे. सम्यग्द्रष्टि मुनिने पण
जेटलो शुभराग छे तेटलो औदयिकभाव छे–पण धर्मभाव नथी.
कुंदकुंदाचार्यदेवे अहीं पांच भावो वर्णव्या छे अने तेमना शिष्य श्री उमास्वामीआचार्यदेवे मोक्षशास्त्रना बीजा
अध्यायना पहेला सूत्रमां ए पांच भावो वर्णव्या छे. अन्य कोई मतमां आ पांच भावोनुं वर्णन नथी.
पहेलां मूक्यो छे. जेम शांत पाणीमां मेल नीचे दबाई जाय तेम अनादि अज्ञानी जीव ज्यारे चैतन्य स्वभावमां ढळे
छे त्यारे तेने मिथ्यात्वादिनो मोहभाव दबाई जाय छे, तेने औपशमिक सम्यग्दर्शन कहेवाय छे. अनादि अज्ञानी
जीवने पहेलां दर्शनमोहनो उपशम ज थाय छे. ए औपशमिकभावनो पुरुषार्थ जणाववा माटे मोक्षशास्त्रमां पहेलां
तेनुं वर्णन छे. जे जीव ए औपशमिकभाव प्रगट करे ते ज औदयिक वगेरे भावोने यथार्थपणे ओळखे छे. अहीं
पांच भावोनुं ज्ञान कराववुं छे तेथी औदयिक वगेरे भावो क्रमसर वर्णव्या छे. पहेलां औदयिकभावनुं वर्णन करतां
कह्युं छे के जे भाव कर्मना उदयथी थाय ते औदयिक भाव छे, एटले के आत्माना जे भाव वखते कर्मनो क्षय के
उपशम न होय पण उदय होय एवो विकारी भाव ते औदयिकभाव छे. ए औदयिकभावना आश्रये धर्म नथी.