Atmadharma magazine - Ank 048
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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आसोः२४७३ः २६६ः
अने सम्यग्द्रष्टिनो क्षायोपशमिकभाव–ए बे भावो मोक्षमार्गरूप छे–एटले के मोक्षनुं कारण छे, क्षायिकभाव
मोक्षरूप छे एटले जे गुणनो क्षायिकभाव प्रगटे ते गुणनी अपेक्षाए मोक्ष थयो कहेवाय छे. जेमके क्षायिक
सम्यग्दर्शन प्रगट थतां श्रद्धागुणनो क्षायिकभाव प्रगटयो छे एटले के श्रद्धागुण अपेक्षाए मोक्ष छे. अने बधा
गुणनी संपूर्ण अविकारीदशा प्रगट थतां द्रव्यनो मोक्ष थाय छे; पारिणामिकभाव बंध–मोक्षनी अपेक्षारहित त्रिकाळ
एकरूप छे, ते बंध–मोक्षनुं कारण नथी. परंतु ते पारिणामिकस्वभावना लक्षे मोक्ष प्रगटे छे अने तेनुं लक्ष
चूकवाथी बंधभाव प्रगटे छे.
तीर्थंकरनामकर्मना कारणरूप सोळ भावनानो क्रम
तीर्थंकरनामकर्मनो आस्रव थवाना कारणरूप जे सोळभावना छे तेमा सौथी पहेलां दर्शनविशुद्धिभावना छे.
तेने बदले कोई जीवो अर्हंत् भक्ति पहेलां मनावे छे, तेनी द्रष्टि ऊंधी होवाथी पर तरफथी शरूआत करी छे. अने
‘दर्शनविशुद्धि’ मां स्वभाव तरफथी शरूआत थाय छे.
तीर्थंकरनामकर्मनो भाव अधर्म??
तीर्थंकरनामकर्म तो जड छे, पण जे शुभभावे ते बंधाय छे ते औदयिकभाव छे, तेने जे धर्म माने अथवा तो
तेने धर्मनुं कारण माने ते अधर्मी छे; तेने पांच भावोना स्वरूपनी खबर नथी तेथी ते बंधभावोने आदरणीय माने
छे. जे भावे तीर्थंकर नामकर्म बंधाय ते अधर्मभाव! अररर! अज्ञानीनां तो काळजां ध्रुजी ऊठे एवुं छे. घणां वर्षो
पहेलां एक वार ज्यारे भरसभामां आ वात जाहेर थई त्यारे एक श्रोता तो सभामांथी उभा थई भागी थया.
तेनाथी ए वात सहन थई शकी नहि पछी समजे तो क्यांथी? अत्यारे तो घणा जिज्ञासुओ आ वात समजता थया
छे. जे भावथी तीर्थंकर नामकर्म बंधाय ते भावने पुण्यभाव कहो, अथवा शुभभाव कहो, औदयिकभाव कहो,
बंधभाव कहो, के अधर्मभाव कहो,–तेमां फेर नथी.
चैतन्यना लक्षे विकारनो नाश ने कर्मना लक्षे उत्पत्ति
प्रश्नः– औदयिकभावनी व्याख्या एम करी के कर्मना उदयथी अर्थात् कर्मना लक्षे जे शुभाशुभ भाव थाय ते
औदयिकभाव छे. परंतु अज्ञानी तो कर्मने जोई शकतो नथी, तो तेणे कर्मनुं लक्ष कई रीते कर्युं?
उत्तरः– जेनी द्रष्टि पोताना शुद्धस्वभावथी च्यूत छे तेनी द्रष्टि क्यांक बीजे अटकी छे. अज्ञानीने विकाररहित
स्वभावनुं लक्ष नथी तेथी कर्मना उदयथी विकार थाय, एवी तेनी ऊंधी मान्यता होवाथी तेने विकार थया वगर
रहेशे ज नहि. मारा चैतन्यस्वभावना लक्षमां टकी रहुं तो विकारनी उत्पत्ति ज थाय नहि, एम स्वभावद्रष्टि करवाने
बदले ऊंधी द्रष्टि करे छे के कर्मनो उदय होय तेथी विकार थाय ज. आ ऊंधी द्रष्टि ज विकारनी उत्पत्तिनुं मूळियुं छे.
स्वभावनुं लक्ष नथी तेथी विकारभाव थाय छे अने ते विकारभावमां कर्म निमित्त छे तेथी कर्मना लक्षे ज विकार थाय
छे एम कही दीधुं छे. मिथ्याद्रष्टि जीव कर्मने जुए छे एम त्यां कहेवुं नथी परंतु विकारना निमित्तनुं ज्ञान कराववा
माटे ते कथन छे. मिथ्याद्रष्टि भले कर्मना उदयने न देखे, परंतु ‘कर्मना उदयथी मिथ्यात्व थाय’ एवो तेनो ऊंधो
अभिप्राय छे तेथी ज तेने क्षणे क्षणे मिथ्यात्वभाव थया ज करे छे. मारा आत्मस्वभावमां कोई जातनो विकारभाव
नथी, अने ए स्वभावना लक्षे विकारनी उत्पत्ति थती नथी–एम जो स्वभाव द्रष्टि करे तो मिथ्यात्वनो उत्पाद थाय
नहिं ‘नंदिसेण, आर्द्रकुमार वगेरे मोटा मोटा मुनिओने पण कर्मना तीव्र उदये पाडी नाख्या’ एम कही जे जीव कर्मनुं
जोर माने छे ते जीवना ऊंधा अभिप्रायमांथी क्षणे क्षणे विकारभावनी ज उत्पत्ति थाय छे. कर्मना उदय प्रमाणे विकार
थया करे एम जेणे मान्युं, तेने स्वभाव तरफ जोवानुं ज क्यां रह्युं? विकार हुं करुं छुं अने मारा स्वभाव भावमां
रहीने हुं ज तेने टाळुं छुं–एम तो तेणे मान्युं नहि तेथी स्वभाव तरफ तेनो पुरुषार्थ ज वळशे नहि. तेनो अभिप्राय
ज चैतन्यनुं लक्ष चूकीने कर्मना लक्षवाळो छे. स्वभावनी शुद्धतानुं लक्ष ते चूक्यो छे तेथी तेने क्षणे क्षणे
औदयिकभावनी ज उत्पत्ति छे. अने जे जीव पारिणामिक चैतन्यस्वभावना लक्षे टक्यो छे तेने एम श्रद्धा छे के मारो
स्वभाव शुद्ध छे, विकारनो अंश पण मारा स्वभावमां नथी, तेना एवा अभिप्रायमां क्षणे क्षणे निर्मळतानी ज
उत्पत्ति अने विकारनो नाश छे.
कर्मनो उदय होय तो तेना निमित्ते विकार थाय, एम जेणे कर्मनो निमित्त तरीके स्वीकार कर्यो तेणे नैमित्तिक
तरीके पोताना विकारीभावने मान्यो, एटले के तेणे पोतानी लायकात विकारपणे ज थवानी मानी छे. तेणे पोतानी
भूलने टकावी राखी पण ते भूलथी खसीने स्वभावमां टक्यो नहि. जो स्वभावमां टके तो भूल रहे नहि अने कर्मने
निमित्त कहेवाय नहि.