Atmadharma magazine - Ank 048
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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आसोः२४७३ः २६८ः
पणे पोतपोतानी भूमिका अनुसार अंशे होय छे. मोक्षमार्ग ज दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी एकतारूप छे, ते चारित्रदशामां
ज होय छे; सम्यग्द्रष्टि जीवोने नियमथी चारित्र प्रगटवानुं ज छे तेथी चोथा–पांचमा गुणस्थाने पण उपचारथी
मोक्षमार्ग कह्यो छे. उत्तमक्षमा एटले सम्यग्दर्शनपूर्वकनी क्षमा. उत्तमक्षमा मिथ्याद्रष्टिने होती नथी.
७. उत्तमक्षमा सिवायनी बीजी चार क्षमाओ
क्षमाना पांच प्रकार छे, तेमांथी चार तो पुण्यबंधनां कारणरूप छे अने पांचमी क्षमाने ‘उत्तमक्षमा’ कहेवाय
छे, ते धर्म छे.
(१) ‘जो हुं क्रोध करीश तो मने नुकशान थशे, जो अत्यारे हुं सहन नहि करुं तो मने भविष्यमां मोटुं
नुकशान करशे’–एवा भावथी क्षमा करे ते रागरूप क्षमा छे. जेम निर्बळ मनुष्य सबळनो विरोध न करे तेम, ‘हुं
क्षमा करुं तो मने कोई हेरान न करे’ एवा भावथी क्षमा राखवी ते बंधनुं ज कारण छे. केमके तेमां क्रोधादि करवानी
भावना तो टळी नथी. मारुं स्वरूप ज कोई प्रसंगे क्रोध करवानुं नथी, ‘हुं तो ज्ञान ज करनार छुं’ एवा भान वगर
कदी पण क्षमाधर्म होय नहि; पण शुभरागरूप क्षमा होय, ते बंधनुं कारण छे, पण धर्म नथी.
(र) ‘हुं क्षमा करुं तो बीजा तरफथी मने लाभ थाय,–एवा भावथी शेठ वगेरेनो ठपको सहन करे, अने
क्रोध न करे, ते पण खरी क्षमा नथी.
(३) हुं क्षमा नहि करुं तो कर्म बंधाशे अने नरकादि दुर्गतिमां जवुं पडशे, माटे हुं क्षमा करुं तो कर्मबंधन
अटके–एवा भावथी क्षमा करे ते साची क्षमा नथी, ते क्षमा तो बंधनुं कारण छे.
(४) क्रोधादि न करवा एवी वीतरागनी आज्ञा छे अने शास्त्रोमां पण तेम कह्युं छे. माटे मारे क्षमा करवी
जोईए. जेथी मने पाप न बंधाय. आवा भावे क्षमा राखवी ते पण पराधीनक्षमा छे, राग छे, तेनाथी धर्म नथी.
८. उत्तमक्षमा धर्म
उपरनी चारे क्षमा बंधनुं कारण छे, ते चारेमां क्यांय स्वआत्मानुं तो लक्ष आव्युं नहि, पण पर लक्षे ज
रागघटाडीने क्षमा राखी, ते सहजक्षमा नथी. उत्तमक्षमा तो सहज वीतरागतारूप छे. आत्माना स्वरूपने भूलीने
पुण्य पापनी रुचि करवी ते महान क्रोध छे, अने आत्माना त्रिकाळी स्वरूपनी रुचिवडे ते शुभाशुभनी रुचि छोडी
देवाथी वीतरागीक्षमाभाव प्रगटे छे. मुनिदशामां शरीरने सिंह–वाघ खाई जता होय छतां ते तरफनी कोई लागणी
ज न ऊठे–अशुभलागणी तो न ऊठे अने शुभ लागणी पण न ऊठे–एवी जे आत्मानी उत्कट आनंदमय
वीतरागीदशा ते ज उत्तमक्षमा छे, ते ज धर्म छे. तेमां दुःख नथी पण आनंद छे. आजे ते उत्तमक्षमाधर्मनो दिवस छे.
तेथी श्री पद्मनंदीमुनिए उत्तमक्षमानुं जे वर्णन कर्युं छे ते आजे वंचाय छे.
९. साधकनी सहचारी उत्तमक्षमा
आ गाथामां अज्ञानी जीवोने ‘जड जन’ कह्या छे. जेमने चैतन्यस्वरूप आत्मानी खबर नथी अने
रागादिने ज आत्मा माने छे तेने परमार्थे ‘जड’ कहेवाय छे. एवा अज्ञानीओना कठोर वचनो स्वभावना आश्रये
रहीने ज्ञानीओ सहन करे छे, ते उत्तमक्षमा छे. साधुओ गमे तेवा प्रतिकूळ प्रसंगे पोताना धीर अने वीर स्वभावथी
च्यूत थता नथी. आत्मस्वभावनी अरुचि जेनुं लक्षण छे एवो क्रोध छोडीने जेमणे साधकदशा प्रगट करी छे अने
पछी स्थिरताना विशेष पुरुषार्थवडे धीर थईने ज्ञानस्वरूपमां समाई गया छे, एवा संतोने, बाह्यमां कोण प्रतिकूळ
छे के कोण अनुकूळ छे तेनी दरकार होती नथी, पण पोताना पुरुषार्थ स्वभावमां ज समेटीने जेओ समभावरूप
परिणमे छे तेमने उत्तमक्षमा छे. मोक्षमार्गे विचरता साधुओने ते उत्तमक्षमा सौथी पहेलां सहाय करनार छे.
आत्माने मोक्षमार्गमां जतां कोई पर पदार्थ सहायक नथी, पण उत्तमक्षमारूप पोतानो निर्मळपर्याय ते ज
पोताने सहायक छे–एम कहीने आचार्यदेवे मंगळिक कर्युं.
१०. ज्ञानीनी क्षमा मोक्षनुं कारण अज्ञानीनी क्षमा संसारनुं कारण
जेमणे पोताना चैतन्यस्वरूपना भान वडे पुण्य–पाप बन्नेने सम गण्या छे अने ज्ञायकदशा प्रगट थई छे
एवा मुनिनुं चित्त धीर अने वीर होय छे, परिणतिमां अनंत धीरज प्रगटी छे तेथी मन क्षोभ पामतुं नथी अने
पुरुषार्थमां वीरता छे एटले ते स्वभावमां ठरवानुं कार्य करे छे. ‘बहारमां कोई गाळ दे तोपण कोने? अने स्तुति
करे तो पण कोनी? बंधन करे तो कोने? ने सेवा करे तो कोनी? आ शरीर तो हुं नथी अने मारा आत्माने कोई
बंधनादिवडे नुकशान करी शकतां नथी.’ आवुं भान तो सम्यग्द्रष्टिने होय छे, परंतु त्यार पछी विशेष पुरुषार्थवडे
चारित्रदशा प्रगटतां विकल्प पण न ऊठे अने सहज क्षमा प्रगटे ते उत्तमक्षमाधर्म छे. परंतु कोई जीव मने लाकडी
मारे ने शुं सहन करुं