Atmadharma magazine - Ank 048
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 4 of 21

background image
आसोः२४७३ः २पपः
..
पण तेथी शुं?
आत्मा कल्याणनो उपाय शुं ते बतावाय छे. विकल्प मात्रनुं अवलंबन छोडीने शुद्धात्मस्वभावनो अनुभव
ज्यां सुधी जीव न करे त्यां सुधी तेनुं कल्याण थाय नहि. शुद्धात्मस्वरूपनो अनुभव कर्या वगर जीव जे कांई करे ते
बधुं व्यर्थ छे–तेनाथी आत्मकल्याण थतुं नथी.
कोई जीवो एम माने के आपणने पांच लाख रूपिया मळी जाय तो आपणे सुखी थईए. पण ज्ञानी कहे छे
के भाई, पांच लाख रूपिया मळ्‌या तेथी शुं? शुं रूपियामां आत्मानुं सुख छे? रूपिया तो जड छे, ते कांई आत्मामां
प्रवेशी जता नथी, ने तेमां कांई आत्मानुं सुख नथी. सुख तो आत्मस्वभावमां छे ते स्वभावने अनुभव्यो नथी तो
रूपिया मळ्‌या तेथी शुं? आत्माना स्वभावनुं भान नथी तेथी रूपियामां ज सुख मानीने रूपियाना लक्षे उलटो
आकुळतानुं ज वेदन करीने दुःखी थशे.
प्रश्न–आत्मानो अनुभव न थाय त्यां सुधी व्रत–तप करे तो कल्याण थाय ने?
उत्तर–आत्माना भान वगर व्रत–तपादिना शुभराग कर्या तेथी शुं? ए तो राग छे, तेनाथी आत्माने
बंधन छे. अने तेमां धर्म मानवाथी मिथ्यात्वनी पुष्टि थाय छे. आत्माना अनुभव वगर कोई रीते सुख नथी, धर्म
नथी, कल्याण नथी.
प्रश्न–बधी सगवडतावाळा मोटां बंगला करावीने तेमां रहे तो सुखी थाय ने?
उत्तर–मोटा बंगलामां रहे तेथी शुं? बंगलामांथी आत्मानुं सुख आवे छे? बंगलो तो जड पथरानो छे,
आत्मा कांई तेमां प्रवेशी जतो नथी. आत्मा तो पोतानी पर्यायमां विकारने भोगवे छे, पोताना स्वभावने भूलीने
बंगलामां सुख मान्युं ते ज महा पराधीनता ने दुःख छे; पछी ते जीवने बहारमां मोटा बंगलानो संयोग होय तो
तेथी आत्माने शुं? कोई जीव सम्यग्दर्शन वगर त्यागी थाय ने व्रत अंगीकार करे, पण तेथी शुं? सम्यग्दर्शन वगर
तेने धर्म नथी.
कोई जीवे शास्त्रना ज्ञानवडे आत्मानुं जाणपणुं कर्युं अर्थात् ‘हुं शुद्ध छुं, स्वरूपमां रागद्वेष नथी, आत्मा
परद्रव्यथी जुदो छे ने परनुं कांई करी शकतो नथी’–ए प्रमाणे शास्त्र वांचीने अने श्रवण करीने जाण्युं, तो पण
आचार्यभगवान कहे छे के तेथी शुं? ए तो परने लक्षे जाणपणुं थयुं, एवुं जाणपणुं तो अनंतसंसारी अज्ञानी जीव
पण करे छे; परंतु स्वसन्मुख पुरुषार्थवडे विकल्पनुं अवलंबन तोडीने पोते जाते स्वानुभव न करे त्यां सुधी जीवने
सम्यग्दर्शन थाय नहि अने कल्याण थाय नहि.
समयसारनी १४१ मी गाथामां कह्युं के–‘जीवमां कर्म बंधायेलुं छे त्तथा स्पर्शायेलुं छे एवुं व्यवहारनयनुं
कथन छे अने जीवमां कर्म अणबंधायेलुं, अणस्पर्शायेलुं छे एवुं शुद्धनयनुं कथन छे.’ ‘टीकाः ××× जीवमां कर्म
बद्धस्पृष्ट छे एवो निश्चयनयनो पक्ष छे.’ ××× जीवमां कर्म अबद्धस्पृष्ट छे एवो निश्चयनयनो पक्ष छे.’
हवे आचार्यदेव कहे छे के–
पण तेथी शुं? जे आत्मा ते बन्ने नयपक्षोने ओळंगी थया छे ते ज समयसार छे,–एम हवे १४२मी
गाथामां कहे छेः– (नोंधः आ गाथा तेनी टीका साथे श्री समयसारमांथी वांची लेवी.)
पर द्रव्योना संयोग–वियोगथी आत्माने लाभ थायए मान्यतानो तो पहेलां ज नकार कर्यो, अने पुण्यथी
धर्म थाय एवी स्थूळ मान्यतानो पण नकार कर्यो, ए रीते पर तरफना विचारने अने स्थूळ खोटी मान्यताने पण
छोडीने हवे जे स्वतरफ ढळवा मागे छे एवो जीव एक आत्मामां ‘निश्चयथी शुद्ध ने व्यवहारथी अशुद्ध’ एवा बे
पडखां पाडीने तेना विचारमां अटकयो छे पण विकल्पथी पार थईने साक्षात् अनुभव करतो नथी तेने ते विकल्प
छोडावीने अनुभव कराववा माटे आचार्यदेवे आ (१४२मी) गाथा जणावी छे. बीजा पदार्थोनो विचार छोडीने एक
आत्मामां बे पडखांना विचारमां रोकाणो, पण आचार्यदेव कहे छे के तेथी शुं? ज्यांसुधी ते विकल्पना अवलंबनमां
रोकाशे त्यांसुधी धर्म नथी, माटे जेवो स्वभाव छे तेवो ज अनुभव कर, अनुभव करनारी पर्याय पोते द्रव्यमां लीन–
एकाकार थई जाय छे अने ते वखने विकल्प तूटी जाय छे, आवी दशा ते ज ‘समयसार’ छे, ते ज सम्यग्दर्शन छे ने
तेज सम्यग्ज्ञान छे.
परवस्तुमां सुख छे के परनुं कार्य हुं करी शकुं ने मारुं कार्य परथी थाय–ए तो स्थूळ मिथ्या मान्यता छे, अने
आत्माने अमुक वस्तु खपे ने अमुक न खपे एवो विकल्प ते पण स्थूळ परिणाम छे–तेमां धर्म नथी; परंतु ‘हुं शुद्ध
आत्मा छुं ने राग मारुं स्वरूप नथी’ एवा राग मिश्रित विचार करवा ते पण धर्म नथी. ए. रागनुं अवलंबन पण
छोडीने आत्मस्वभावनो अनुभव करवो ते धर्म छे. एक वखत विकल्प तोडीने शुद्धस्व–