Atmadharma magazine - Ank 048
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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ः २प६ः आत्मधर्मः ४८
भावनो अनुभव कर्या पछी जे विकल्प ऊठे ते विकल्पोमां सम्यग्द्रष्टि जीवने एकत्वबुद्धि होती नथी, तेथी ते विकल्पो
मात्र अस्थिरतारूप दोष छे परंतु ते सम्यग्दर्शन के सम्यग्ज्ञानने मिथ्या करता नथी; केमके विकल्प वखते पण
सम्यग्द्रष्टिने तेनो निषेध वर्ते छे.
केटलाक अज्ञानीओ एम शंका करे छे के जो जीवने सम्यग्दर्शन थयुं होय, ने आत्मानुं भान थयुं होय, तो
खावा–पीवा वगेरेनो राग केम थाय? पण ज्ञानी कहे छे के सम्यग्द्रष्टिने राग थाय तेथी शुं?–ए राग वखते तेनो
निषेध करनार सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान वर्ते छे के नहि? जे राग थाय छे ते श्रद्धा–ज्ञान मिथ्या करतो नथी. ज्ञानीने
चारित्रनी कचाशथी राग थाय छे, त्यां अज्ञानी ते रागने ज जुए छे. परंतु रागनो निषेध करनार श्रद्धा–ज्ञानने ते
ओळखतो नथी.
मिथ्याद्रष्टि जीव स्वभावनो अनुभव करवा माटे एम विचारे छे के ‘स्वभावथी हुं अबंध निर्दोष तत्त्व छुं
ने पर्यायद्रष्टिथी बंधायेलो छुं’–ए रीते मनना अवलंबने शास्त्रना लक्षे रागरूप वृत्तिनुं उत्थान करे छे, परंतु
स्वभावना अवलंबने ते रागरूप वृत्ति तोडीने अनुभव करतो नथी, त्यां सुधी तेने सम्यग्दर्शन नथी.
कोई जीव जैनदर्शनना घणा शास्त्रो भणीने–वांचीने मोटा पंडित थया, के कोई जीव घणा वखतथी त्यागी
थया अने एमां धर्म मानी लीधो, पण ज्ञानीओ कहे छे के तेथी शुं?–एमां क्यां धर्म छे? परना अवलंबनमां
अटकीने धर्म मानवो ए तो मिथ्याद्रष्टिनां काम छे. रागमात्रनुं अवलंबन छोडीने स्वभावना आश्रये निर्णय अने
अनुभव करवो ते ज सम्यग्द्रष्टिनो धर्म छे. अने त्यार पछी ज चारित्रदशा होय छे. रागनुं अवलंबन तोडीने
आत्मस्वभावनो निर्णय अने अनुभव न करे अने दान, दया, शील, तप वगेरे बधुंय करे तो तेथी शुं? ए तो बधो
राग छे, तेमां धर्म नथी.
आत्मा ज्ञानस्वरूप छे, रागस्वरूप नथी. ज्ञानस्वरूपमां वृत्तिनुं उत्थान ज नथी. ‘हुं त्रिकाळ अबंध छुं’
एवो विकल्प पण ज्ञानस्वरूपमां नथी. जो के निश्चयथी आत्मा त्रिकाळ अबंध स्वरूप ज छे–ए वात तो एम ज छे,
परंतु जे अबंधस्वभाव छे ते ‘हुं अबंध छुं’ एवा विकल्पनी अपेक्षा राखतो नथी, एटले ‘अबंध छुं’ एवा
विकल्पनुं अवलंबन अबंधस्वभावनी श्रद्धाने नथी. विकल्प ते तो राग छे, विकार छे, ते आत्मा नथी; ते विकल्पना
अवलंबने आत्मानो अनुभव थतो नथी.
‘हुं अबंधस्वरूप छुं’ एवा विचारनुं अवलंबन ते निश्चयनयनो पक्ष (राग) छे अने ‘हुं बंधायेलो छुं’
एवा विचारनुं अवलंबन ते व्यवहारनो पक्ष (राग) छे. आ नयपक्षबुद्धि ते मिथ्यात्व छे. आ विकल्परूप
निश्चयनयनो पक्ष जीवे पूर्वे अनंतवार कर्यो छे, परंतु स्वभावना आश्रयरूप निश्चयनय जीवने कदी प्रगटयो नथी.
समयसारनी ११मी गाथाना भावार्थमां कह्युं छे के ‘शुद्धनयनो पक्ष कदी आव्यो नथी’ त्यां ‘शुद्धनयनो पक्ष’ कह्यो
छे ते मिथ्यात्वरूप के रागरूप नथी, केमके त्रिकाळ शुद्धस्वभावनो आश्रय करवो तेने ज त्यां ‘शुद्धनयनो पक्ष’ कह्यो
छे अने ते ज सम्यग्दर्शन छे. त्यां जेने शुद्धनयनो पक्ष कह्यो छे तेने अहीं ‘नयातिक्रांत’ कहेल छे, अने ते मुक्तिनुं
कारण छे; तथा अगीआरमी गाथामां “प्राणीओने भेदरूप व्यवहारनो पक्ष तो अनादिथी ज छे” एम कह्युं छे; त्यां
जेने भेदरूप व्यवहारनो पक्ष कह्यो छे तेमां, आ गाथामां कहेला बन्ने पक्षनो समावेश थई जाय छे. निश्चयनयना
विकल्पनो पक्ष करवो ते पण भेदरूप व्यवहारनो ज पक्ष छे, माटे ते पण मिथ्यात्व छे. जेवो शुद्धस्वभाव छे तेवा
स्वभावनो आश्रय करवो ते सम्यग्दर्शन छे, पण ‘शुद्धस्वभाव छुं’ एवा विकल्पनी साथे एकत्वबुद्धि करवी ते
मिथ्यात्व छे. आत्मा रागस्वरूप छे एम मानवुं ते तो व्यवहारनो पक्ष छे–स्थूळ मिथ्यात्व छे; अने ‘आत्मा
शुद्धस्वरूप छे’ एवा विकल्पमां अटकवुं ते विकल्पात्मकनिश्चयनयनो पक्ष छे–रागनो पक्ष छे. श्री आचार्यदेव कहे छे के
‘हुं शुद्ध छुं’ एवा विकल्पना अवलंबने आत्मानो विचार कर्यो तेथी शुं? आत्मानो स्वभाव तो वचन अने
विकल्पातीत छे. आत्मा शुद्ध ने परिपूर्ण स्वभावी छे ते स्वभाव पोताथी ज छे, पण शास्त्रना आधारे के विकल्पना
आधारे ते स्वभाव नथी; अने तेथी ते स्वभावनो अनुभव (निर्णय) करवा माटे कोई शास्त्रना लखाणना के
विकल्पना आश्रयनी जरूर नथी, पण स्वभावना ज आश्रयनी जरूर छे. स्वभावनो अनुभव करवा जतां ‘हुं शुद्ध
छुं’ इत्यादि विकल्प आवी जाय छे परंतु ते विकल्पमां अटके त्यां सुधी अनुभव थतो नथी, जो ते विकल्प तोडीने
नयातिक्रांत थईने स्वभावनो आश्रय करे तो सम्यक्निर्णय अने अनुभव थाय, ते ज धर्म छे.
जेम तिजोरीमां पडेला लाख रूपिया हिसाब–नामानी अपेक्षाथी के गणतरीना विचारने लीधे टकेला नथी,
पण