Atmadharma magazine - Ank 048
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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आसोः२४७३ः २प७ः
जेटला रूपिया छे ते स्वयं ज छे; तेम आत्मस्वभावनो अनुभव शास्त्रना आधारे नथी तेम ज तेना विकल्प वडे पण
थतो नथी, अनुभव तो स्वभावना ज आश्रये छे. खरेखर स्वभाव अने स्वभावनी अनुभूति अभेद थवाथी एक
ज छे, जुदां नथी. अने जेम कोई पासे रूपियानी मूडी होय नहि पण मात्र नामुं लख्या करे ने विचार कर्या करे तेथी
कांई तेनी पासे मूडी थई जाय नहि, तेम आत्मस्वभावना आश्रय वगर, मात्र शास्त्र वांचवाथी के आत्मा संबंधी
विकल्प करवाथी सम्यग्दर्शन प्रगटे नहि.
‘शास्त्रोमां आत्मानो स्वभाव सिद्ध जेवो शुद्ध कह्यो छे’ एम शास्त्रोथी माने तेने यथार्थ निर्णय नथी,
शास्त्रोमां कह्युं छे माटे आत्मा शुद्ध छे–एम नहि, आत्मानो स्वभाव शुद्ध छे तेने शास्त्रोनी अपेक्षा नथी, माटे
स्वभावना ज आश्रये स्वभावनो अनुभव करवो ते ज सम्यग्दर्शन छे.
आत्मस्वभावने अनुभव्या वगर कर्मग्रंथो भणे तेथी शुं?–अने अध्यात्मग्रंथो वांची जाय तो तेथी पण शुं?
ए कोई कार्यथी आत्मानो धर्म थतो नथी. आत्मा कर्ता छे, ते केवुं कर्म करे (अर्थात् केवुं कार्य करे) तो तेने धर्म थाय
ते आ कर्ताकर्म अधिकारमां बताव्युं छे. आत्मा जड कर्म बांधे अने कर्मो आत्माने नडे–ए वात तो अहीं छे ज नहि.
परंतु ‘हुं शुद्ध छुं’ एवो जे मननो विकल्प ते पण धर्मात्मानुं कार्य नथी. पण स्वभावनो अनुभव स्वभावना ज
आश्रयथी थाय छे, माटे शुद्धस्वभावनो आश्रय ते ज धर्मात्मानुं कार्य छे.
‘आत्मा शुद्ध छे, राग मारुं स्वरूप नथी’ एवा विचारनुं अवलंबन पण सम्यग्दर्शनमां नथी. तो पछी देव–
गुरु–शास्त्रनी भक्ति वगेरेथी सम्यग्दर्शनमां थाय ए वात क्यां रही? अने पुण्य करतां करतां आत्मानी ओळखाण
थई जाय, के सारा निमित्तना अवलंबनथी आत्माने धर्ममां मदद मळे–एवी स्थूळ मिथ्यामान्यता तो सम्यग्दर्शनथी
घणी घणी दूर छे. दया, दान, भक्ति, व्रत, उपवास, साचा देव–गुरु–शास्त्रनी श्रद्धा, जात्रा, शास्त्रनुं जाणपणुं–ए
बधा खरेखर रागना रस्ता छे, ते कोईना आश्रये आत्मस्वभावनो निर्णय थतो नथी, केम के आत्मस्वभावनो
निर्णय तो अरागी छे, श्रद्धा–ज्ञानरूप छे; वीतरागी चारित्रदशा प्रगटया पहेलां वीतरागीश्रद्धा ने वीतरागीज्ञान वडे
स्वभावनो अनुभव करवो ते ज सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान छे. अने एवो अनुभव करनार जीव ज समयसार छे.
एवो अनुभव प्रगट न कर्यो अने उपर जणावेल दया, दान, भक्ति, व्रत, जात्रा वगेरे बधुं कर्युं तो तेथी शुं?–एवुं
तो अभव्य जीव पण करे छे.
प्रश्नः– ‘सम्यग्दर्शन वगर व्रत, तप, दान, भक्ति वगेरे कर्या तेथी शुं?’ एम ‘तेथी शुं–तेथी शुं?’ कहीने ते
बधाने उडाडो छो, अर्थात् ते दयादिमां धर्म मनावता नथी; तो अमे पूछीए छीए के–एक आत्मानी ओळखाण
करीने सम्यग्दर्शन प्रगट कर्युं तेथी शुं? मात्र सम्यग्दर्शन प्रगट कर्युं तेमां बधुं आवी गयुं?
उत्तरः– भाई, सम्यग्दर्शन थयुं तेमां ज आखो आत्मा आवी जाय छे, सम्यग्दर्शन थतां परिपूर्ण
आत्मस्वभावनो अनुभव थाय छे; अनंतकाळे नहि थयेली एवी अपूर्व आत्मशांतिनुं वेदन वर्तमानमां थाय छे.
जेवो आनंद सिद्ध भगवाननो छे तेवी ज जातना आनंद नो अंश पोताने वर्तमानमां अनुभवाय छे. सम्यग्दर्शन
थतां अल्पकाळमां ते जीव सिद्ध थवाना ज. वर्तमानमां ज पोताना परिपूर्ण स्वभावने पामीने सम्यग्द्रष्टि कृतकृत्य
थई जाय छे, अने पर्यायमां क्षणे क्षणे वीतरागी आनंदनी वृद्धि थती जाय छे. स्वप्ने पण तेओ पर पदार्थने पोतानुं
मानता नथी, ने परमां के विकारमां सुखबुद्धि होती नथी. आवुं अपार माहात्म्य सम्यग्दर्शननुं छे. ए सम्यग्दर्शन ज
आत्माना धर्मनुं मूळ छे. माटे ज्ञानीओ कहे छे के ए सम्यग्दर्शन वगर जीवे बधुं कर्युं तेथी शुं? सम्यग्दर्शन वगर
बधुं थोथां छे, रणमां पोक समान छे, एकडा वगरना मिंडा समान छे. ए सम्यग्दर्शन कोई पण परना आश्रये के
विकल्पना अवलंबने थतुं नथी, पण पोताना शुद्धात्मस्वभावना ज आश्रये थाय छे. स्वभावनो आश्रय करतां ज
विकल्पनो आश्रय छूटी जाय छे. पण विकल्पना लक्षे विकल्पनो आश्रय टाळवा मागे तो टळी शके नहि.
धर्मी जीवनो धर्म स्वभावना आश्रये टकेलो छे, तेना सम्यग्दर्शनादि धर्मने कोई परनो आश्रय नथी. आम
होवाथी धर्मी जीवने पैसा–मकान वगेरेनो संयोग न होय तेथी शुं? अने घणा शास्त्रोनुं ज्ञान न होय तो तेथी शुं?
धर्मी जीवने ते न होय तेथी कांई तेना धर्मने वांधो आवतो नथी, केमके धर्मीनो धर्म कोई परना आश्रये, रागना
आश्रये के शास्त्रना जाणपणाना आश्रये टकेलो नथी पण पोताना त्रिकाळी स्वभावना ज आधारे धर्मीनो धर्म
प्रगटयो छे, तेना ज आधारे टक्यो छे, ने तेना ज आधारे वृद्धिगत थईने पूर्णता थाय छे.