Atmadharma magazine - Ank 048
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 7 of 21

background image
ः २प८ः आत्मधर्मः ४८
पुनित सम्यक्दर्शन
“आत्मा छे, परथी जुदो छे, पुण्य–पापरहित ज्ञाता ज छे” आटलुं मात्र जाणवाथी सम्यग्द्रष्टिपणुं थई
शकतुं नथी, केमके एवुं तो अनंतसंसारी जीव होय ते पण जाणे छे. जाणपणुं ते तो ज्ञानना उघाडनुं कार्य छे, तेनी
पाथे परमार्थे सम्यग्दर्शननो संबंध नथी.
हुं आत्मा छुं अने परथी जुदो छुं–एटलुं मात्र मानवुं ते यथार्थ नथी, केमके आत्मामां मात्र अस्तित्वपणुं ज
नथी, अने मात्र ज्ञानपणुं ज नथी. परंतु आत्मामां तो ज्ञान, दर्शन, श्रद्धा, सुख, वीर्य वगेरे अनंतगुणो छे, ते
अनंत गुणो स्वरूप आत्माना स्वानुभववडे ज्यांसुधी आत्मसंतोष न थाय त्यांसुधी सम्यग्द्रष्टिपणुं नथी.
नवतत्त्वोनुं ज्ञान तेमज पुण्य–पापथी आत्मा जुदो छे एवुं ज्ञान ते बधानुं प्रयोजन तो स्वानुभव ज छे.
हजी स्वानुभवनी गंध पण न होय अने फकत विकल्पवडे ज्ञानमां जे जाण्युं तेटला जाणपणामां ज संतोष मानी ले
अने पोताने सम्यग्द्रष्टि पोते माने तो ते मान्यतामां आखा परम आत्मस्वभावनो अनादर छे. विकल्परूप
जाणपणाथी अधिक कशुं ज न होवा छतां जे जीव पोताने सम्यग्द्रष्टिपणुं मानी ल्ये ते जीवने परम कल्याणकारी
सम्यग्दर्शनना स्वरूपनी ज खबर नथी. सम्यग्दर्शन अभूतपूर्व चीज छे, ते विकल्पवडे प्राप्त थई जाय एवुं मफतियुं
नथी, परंतु परम पवित्र स्वभावनी साथे पूरुपूरो सबंध धरावनारुं सम्यग्दर्शन विकल्पोथी पेले पार
सहजस्वभावना स्वानुभवप्रत्यक्षपणावडे प्राप्त थाय छे...ज्यां सुधी सहजस्वभावनुं स्वानुभवपणुं स्वभावनी
साक्षीए न आवे त्यां सुधी–तेटलामां संतोष न मानी लेतां सम्यग्दर्शन प्राप्तिना परम उपायमां निरंतर जागृत
रहेवुं–ए निकटभव्यात्माओनुं कर्तव्य छे; परंतु ‘मने तो सम्यग्दर्शन थई गयुं छे.
हवे तो फक्त चारित्रमोह रह्यो छे’ एम मानी बेसीने पुरुषार्थहीनपणुं–शुष्कपणुं न सेववुं...जीव जो एम
करशे तो स्वभाव तेने साक्षी नहि आपे, अने सम्यग्द्रष्टिपणानी खोटी भ्रमणामां ज जीवनुं जीवन व्यर्थ चाल्युं
जशे....माटे ज्ञानीओ चेतावे छे के – “ज्ञान, चारित्र अने तप ए त्रणे गुणोने उज्वळ करनार एवी ए सम्यक्श्रद्धा
प्रधान आराधना छे. बाकीनी त्रण आराधना एक सम्यक्त्वना विद्यमानपणामांज आराधकभावे प्रवर्ते छे.
प्रकारे सम्यक्त्वनो कोई अकथ्य अने अपूर्व महिमा जाणी ते पवित्र कल्याणमूर्तिरूप सम्यग्दर्शनने
आ अनंत
अनंत दुःखरूप एवा अनादि संसारनी आत्यंतिक निवृत्ति अर्थे हे भव्यो! तमे भक्ति–पूर्वक अंगीकार करो, समये
समये आराधो
! (श्री आत्मानुशासन पृ. ९ मांथी) निःशंकसम्यग्दर्शन थया पहेला संतोष मानी लेवो अने ते
आराधनाने पडती मुकी देवी–एमां पोताना आत्मस्वभावनो अने कल्याणमूर्ति श्री सम्यग्दर्शननो महा अपराध
अने अभक्ति छे,–के जेनुं महा दुःखदायी फळ वर्णवी शकाय तेम नथी. जेम सिद्धनुं सुख वर्णवी शकाय तेम नथी,
तेम मिथ्यात्वनुं दुःख वर्णवी शकाय तेम नथी.
आत्मवस्तु एकली द्रव्यरूप नथी. परतुं द्रव्य–गुण–पर्याय ए त्रणस्वरूप छे. “आत्मा अखंड शुद्ध छे” एम
तो सांभळीने माने परंतु पर्यायने समजे नहि, अशुद्ध अने शुद्धपर्यायनो विवेक करे नहि–एने सम्यक्त्व होई न
शके...कदाचित् ज्ञानना उघाडवडे द्रव्य–गुण–पर्यायनुं स्वरूप (विकल्पज्ञानवडे) जाणे– तोपण तेटला मात्रथी जीवनुं
साचुं प्रयोजन सिद्ध थतुं नथी. केमके वस्तुस्वरूपमां एक ज्ञान गुण ज नथी परतुं श्रद्धा, सुख वगेरे अनंत गुणो छे
अने ज्यारे ते बधाय गुणो अंशे स्वभावरूप कार्य आपे त्यारे ज जीवनुं सम्यग्दर्शनरूपी प्रयोजन सिद्ध थाय
छे.
ज्ञानगुणे विकल्पवडे आत्माने जाणवानुं कार्य कर्युं परंतु त्यारे श्रद्धागुण तो मिथ्यात्वरूप कार्य करी रह्यो छे, आनंद
गुण तो आकूळतानुं वेदन आपी रह्यो छे–आ बधुं भूली जाय अने मात्र ज्ञानथी ज संतोष मानी ल्ये तो तेम
माननार जीव आखा आत्म द्रव्यने मात्र ज्ञानना एक विकल्पमां ज वेची दे छे.
सूचना
तमाम ग्राहकोनुं वार्षिक लवाजम आ अंके पूरुं थयुं छे. आसो वदी १३ सुधीमां आपना तरफथी नवा वर्षनुं वार्षिक
लवाजम नहीं आवे तो कारतक मासनो अंक वी. पी. थी मोकलवामां आवशे. – व्यवस्थापक