Atmadharma magazine - Ank 048
(Year 4 - Vir Nirvana Samvat 2473, A.D. 1947)
(Devanagari transliteration).

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आसोः२४७३ः २प९ः
फक्त द्रव्यथी संतोष न मानी लेवो–केमके महिमावंतपणुं द्रव्य–गुणथी नथी परंतु निर्मळ पर्यायथी ज
महिमावंतपणुं छे. द्रव्यगुण तो सिद्धने अने निगोदने बन्नेने छे, जो द्रव्य–गुणथी ज महिमावंतपणुं होय तो
निगोदपणुं पण महिमावंत केम न ठरे! परंतु ना, ना, महिमावंतपणुं तो पर्यायथी छे. पर्यायनी शुद्धता ज
भोगववामां काम आवे छे, कांइ द्रव्य–गुणनी शुद्धता भोगववामां काम आवती नथी (–केमके ते तो अप्रगटरूप छे–
शक्तिरूप छे). माटे पोतानी वर्तमान पर्यायमां संतोषाई न जतां–पर्यायनी शुद्धता प्रगटवा माटे पवित्र सम्यग्द्रष्टि
प्राप्त करवानो अभ्यास करवो...
“अहो! हजी पर्यायमां तो तद्न पामरता छे, मिथ्यात्वने तो अनंतकाळनी एंठ समान जाणीने आ ज क्षणे
ओंकी नाखवानी जरूर छे, ज्यां सुधी ए जुनी एंठ पडी हशे त्यां सुधी नवुं मिष्ट भोजन पची नहि शके” आम
पोतानी पर्यायनी पामरता ज्यांसुधी जीवने न भासे त्यांसुधी तेनी दशा सम्यक्त्वसन्मुख पण नथी....
अरेरे! परिणामोमां अनेक प्रकारना झंझावात थता होय, परिणतिनुं सहजपणे आनंदमयपणुं होवाने बदले
एकली कृत्रिमता अने भय–शंकामां झोक थता होय, एक एक क्षणे क्षणनी परिणति विकारना भार नीचे दटायेली ज
होय, कदापी शांति–आत्मसंतोष–नो लवलेश पण अंतरमां वर्ततो न होय छतां पोताने सम्यग्दर्शन मानी लेवुं ए ते
केटली हदनो दंभ! केटली अज्ञानता अने स्व आत्मानी केवी छेतरपींडी?
सहजपणे परिणमता केवळज्ञाननुं मूळ कारण सम्यक्त्व ज छे..तो पछी ते सम्यक्त्वसहित जीवनुं परिणमन
केटलुं सहज हशे! निरंतर एनी आत्मजागृति केवी वर्तती हशे! ! !
जे अल्पकाळे केवळज्ञान जेवी परम सहज दशानी प्राप्ति करावे एवुं आ कल्याणमूर्ति सम्यग्दर्शन–तेने
कल्पना वडे कल्पी लेवुं एमां तो अनंत केवळीप्रभुओनो अने सम्यग्द्रष्टिओनो केटलो बधो अनादर छे? ए तो
पोताना आत्मानी परमपवित्रदशाओनो ज अनादर छे ने?
सम्यक्त्व दशानी प्रतीतिमां आखो आत्मा आवी जाय छे, ते सम्यक्त्व दशा थतां पोताने आत्मसाक्षीए
संतोष आवे छे, निरंतर आत्मजागृति वर्ते छे, क्यांय पण तेनी आत्मपरिणति फसाती नथी, एना भावोमां कदी
पण आत्मा सिवाय अन्यत्र क्यांय आत्मअर्पणता आवी जती नथी...आवी दशानुं भान पण न होय त्यां
सम्यग्दर्शन होय ज नहि.
घणा जीवो तो कुधर्ममां ज अटक्या छे, परंतु अहा, परमसत्य स्वरूप सांभळवा छतां–विकल्पज्ञानथी
जाणवा छतां–अने आ सत्य छे एवी प्रतीत लावीने पण–पोतानुं अंतरपरिणमन ते रूप कर्या वगर सम्यक्त्वनी
पवित्र आराधनाने अधूरी मूकीने तेमां ज संतोष मानी लेनारा जीवो पण छे, तेओ पण तत्त्वनो अर्पूव लाभ पामी
शकता नथी....
आ माटे, हवे आत्मानी दरकार खातर पोतानी वर्तमान वर्तती यथार्थदशा केवी छे ते नक्की करवुं अने भ्रम
टाळी रत्नत्रयीनी आराधनामां निरंतर प्रवर्तवुं–ए परम पावनकारी छे....*
उपादान–निमित्तनी स्वतंत्रता
पूज्य श्री कानजी स्वामी साथे रात्रि चर्चामांथी (वीर संवत २४७३ः श्रावण वदी १)
(प३) समर्थ कारणनी व्याख्या
प्रश्न–समर्थ कारण कोने कहे छे?
उत्तर–ज्यारे उपादानमां कार्य थाय त्यारे उपादान अने निमित्त बन्ने साथे होय छे तेथी ते बन्नेने एक
साथे समर्थकारण कहेवाय छे, अने त्यां प्रतिपक्षी कारणोनो अभाव होय ज छे. आथी एम न समजवुं के उपादानना
कार्यमां निमित्त कांई करे छे. ज्यारे उपादाननी लायकात होय त्यारे निमित्त होय ज छे.
प्रश्न–समर्थ कारण ते द्रव्य, गुण के पर्याय?
उत्तर–वर्तमान पर्याय ज समर्थ कारण छे. पूर्व पर्याय ने वर्तमान पर्यायनुं उपादानकारण कहेवुं ते व्यवहार छे.
निश्चयथी तो वर्तमान पर्याय पोते ज कारणकार्य छे. अने एथी पण आगळ वधीने कहीए तो एक पदार्थमां कारण ने
कार्य एवा बे भेद पाडवा ते पण व्यवहार छे. खरेखर तो दरेक समयनी पर्याय अहेतुक छे.
(प४) उपादान कारणनी व्याख्या
प्रश्न–माटीने घडानुं उपादानकारण कहेवाय छे ते बराबर छे?
उत्तर–खरेखर घडानुं उपादानकारण माटी नथी, पण जे समये घडो थाय छे ते समयनी अवस्था ज पोते
उपादानकारण छे. आम होवा छतां माटीने घडानुं उपादानकारण कहेवानो हेतु ए बताववानो छे के घडो