होय, अने तेमने व्रत–तप पण न होय, परंतु आत्मानुभवनी मूळभूत कळा तेओ बराबर जाणे छे, तेमने
जीवन पूरुं थवाना अवसरे आत्मानुभवनी शांति वधी जाय छे अने ए ज सत् विद्या वडे तेओ अल्पकाळे
संसार समुद्रनो पार पामी जाय छे. माटे साची विद्या ए ज छे.
शास्त्राभ्यासनो कांई निषेध नथी, परंतु कदाच कोई जीवने तेवा प्रकारनुं विशेष ज्ञान न होय तो पण, जो
आत्मानुं ज्ञान होय तो, तेनुं आत्मकल्याण अटकतुं नथी. अने आत्मस्वभावनी जो ओळखाण न करे तो तेवा
जीवने हजारो शास्त्रोनो अभ्यास पण व्यर्थ छे–आत्मकल्याणनुं कारण नथी. जीव जो मात्र शास्त्रना जाणपणामां
रोकाय परंतु शास्त्र तरफना विकल्पथी पार एवो चैतन्य आत्मस्वभाव छे ते तरफ वळे नहि, तो तेने धर्म थतो
नथी, सम्यग्ज्ञान थतुं नथी. अज्ञानी जीव अगियार अंग भणे छतां तेमाथी तेने किंचित् आत्मकल्याण नथी. माटे
ज्ञानीओ ए ज कहे छे के सौथी पहेलांं सम्यक् पुरुषार्थ वडे आत्मस्वरूपने जाणो, तेनी ज प्रतीति–रुचि–श्रद्धा ने
महिमा करो;–बधाय तीर्थंकरोना दिव्यध्वनिनो अने बधाय सत्शास्त्रोना कथननो सार ए ज छे.
शरीरनो आधार नथी, पण पोताना चैतन्यपणानो ज आधार छे. चैतन्यने रागनो आधार पण नथी. हे जीव,
तने तारुं चैतन्य ज एक शरण छे, शरीर के राग कोई तारुं शरण नथी, माटे शरीरथी अने रागथी जुदा एवा
तारा चैतन्य स्वरूपने ओळखीने तेनुं शरण करी ले.
कांई संबंध न हतो अने भविष्यमां पण तेनी साथे कांई संबंध थवानो नथी. चैतन्य अने जड त्रणे काळे जुदां ज
छे. चैतन्यने भूलीने परना आश्रयथी ज दुःखी थयो छुं माटे हवे स्वाधीन चैतन्यने ओळखीने हुं मारुं हित साधी
लउं. जगत आखानुं गमे ते थाव, तेनी साथे मारे संबंध नथी, हुं जगतनो साक्षी–भुत, जगतथी भिन्न, मारामां
अचळ एकरूप शाश्वतज्ञाता छुं. खरेखर जगतने अने मारे कांई संबंध नथी, हुं ज्ञाता मारो ज छुं.
कांई ज्ञानमांथी थोडोक भाग कपाई जतो नथी, केमके चेतना तो अखंड एक अरूपी छे अने शरीर तो संयोग,
जड, रूपी पदार्थ छे; बन्ने तद्न भिन्न छे. शरीरना लाख कटका थाय छतां चेतना तो अखंड ज छे. चेतना अने
शरीर कदी पण एक थया ज नथी.
पुरुषार्थनी नबळाईथी जे राग छे तेने कारणे दुःख छे. जो शरीर कपाय ते दुःखनुं कारण होय तो आत्माना
स्वतंत्र परिणाम ते वखते शुं रह्या? शरीर कपातुं होय छतां ते ज वखते वीतरागी संतोने दुःख थतुं नथी पण
रागद्वेष–क्रोधादिने