छे, ते ज्ञाननो ज अपराध छे. जो ज्ञान पोते रागमां न अटकतां स्वस्वभावमां लीन थाय तो तेनी शक्तिनो पूर्ण
विकास थाय छे. ज्ञाननो विकास कोई रागादि भावथी थतो नथी पण ज्ञान स्वभावना ज अवलंबनथी थाय छे.
द्वेष–अज्ञानभावोने बूरा कहीने तेनो निषेध करे छे. अर्थात् तेने छोडवानुं प्ररूपण करे छे. परंतु ए कोई
व्यक्तिने भली–बूरी कहेतो नथी, गुणने भला कहे छे अने अवगुणने बूरा कहे छे. गुणने भला तथा अवगुणने
आवी छे. जैनदर्शननुं मूळ भेद–विज्ञान छे; ते माटे प्रथम गुणने गुण तरीके अने अवगुणने अवगुण तरीके
जाणवा जोईए. ज्यां गुणने अने अवगुणने बराबर न ओळखे त्यां सुधी भेदज्ञान थाय नहि, तथा गुण प्रगटे
नहि ने अवगुण टळे नहि. सम्यक्प्रकारे पूर्णताना लक्षे शरूआत करीने क्रमेक्रमे राग–द्वेष टाळीने वीतरागता
प्रगट करवी ए ज जैनधर्मनुं प्रयोजन छे. अज्ञान के राग द्वेषनो अंश पण थाय ते जैनधर्मनुं प्रयोजन नथी.
जेटलो रागादिभाव सम्यक्प्रकारे टळ्यो तेटलो लाभ अने जेटलो रह्यो तेनो निषेध एवी साधकदशा छे.
जाणवुं योग्य छे; रागद्वेषनी वृद्धि करवा माटे ते नथी.
सुधी श्रद्धामां वीतरागता न प्रगटे अने रागना एक कणियाने पण सारो माने तो त्यां सुधी जीवने जैनधर्मनो
अंश पण प्रगटे नहि. जैनदर्शन, पहेलांं तो श्रद्धामां वीतरागभाव करावे छे अने पछी चारित्रमां वीतरागभाव
करावे छे; पहेलेथी छेल्ले सुधी जे राग थाय तेने ते छोडावे छे. आ रीते वीतरागभाव एज जैनदर्शननुं प्रयोजन
छे अथवा तो वीतरागभाव पोतेज जैनधर्म छे–राग ते जैनधर्म नथी.
हतो. पछी बीजी अवस्थामां तेनुं परिणमन फरी गयुं अने ते आयुष्यरूपे न परिणमतां अन्यरूपे परिणमी गया,
रहेवानी योग्यता पूरी थई ने ते अन्य क्षेत्रे चाल्यो गयो. –ए रीते कर्म, शरीर अने आत्मा ए त्रणेनी अवस्थानुं
स्वतंत्र परिणमन समये समये थई रह्युं छे. परंतु ए त्रणेमांथी कोई (–कर्म, शरीर के आत्मानो व्यंजनपर्याय)
जीवने दुःखनुं कारण नथी; दुःखनुं कारण तो पोतानो अज्ञान भाव ज छे. जेने कर्म अने शरीरथी भिन्न पोताना
चैतन्य स्वभावनुं भान छे ते तो तेना ज्ञाता ज रहे छे, ते शरीरादिना वियोगथी आत्मानुं मरण के दुःख मानता
नथी पण संयोगथी भिन्नपणे पोताना त्रिकाळी चैतन्य स्वभावने सदाय अनुभवे छे. पण जेने कर्म अने शरीरथी
जुदा पोताना चैतन्यस्वभावनो अनुभव नथी तेवा अज्ञानी जीव शरीरादिना वियोगथी आत्मानुं मरण अने दुःख
मानीने आकुळता अने राग–द्वेष वडे दुःखी थाय छे. ए रीते ते जीवो अज्ञानभाव वडे पोताना चैतन्यभावनो घात
करे छे ते ज मरण छे–हिंसा छे. माटे शुद्ध चैतन्य–स्वभावने जे जाणे तेने ज मरणनो भय टळे छे.