Atmadharma magazine - Ank 049
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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: कारतक : २४७४ : आत्मधर्म : ११ :
–लीधे ज्ञाननी प्रवृत्ति पराधीन थई रही छे. ज्ञान पोते रागादिमां अटक्युं छे तेथी ज्ञाननी शक्ति हीन थई गई
छे, ते ज्ञाननो ज अपराध छे. जो ज्ञान पोते रागमां न अटकतां स्वस्वभावमां लीन थाय तो तेनी शक्तिनो पूर्ण
विकास थाय छे. ज्ञाननो विकास कोई रागादि भावथी थतो नथी पण ज्ञान स्वभावना ज अवलंबनथी थाय छे.
जैनदर्शनो सार – भेदज्ञान ने वीतरागता
जैनधर्म वस्तुना यथार्थ स्वरूपनुं निरूपण करे छे. सत्ने सत् तरीके स्थापे छे अने असत्ने असत् तरीके
स्थापे छे. परंतु बधाने समान कहेतो नथी. वीतरागतारूप भावने भलो कहीने तेनुं स्थापन करे छे अने राग–
द्वेष–अज्ञानभावोने बूरा कहीने तेनो निषेध करे छे. अर्थात् तेने छोडवानुं प्ररूपण करे छे. परंतु ए कोई
व्यक्तिने भली–बूरी कहेतो नथी, गुणने भला कहे छे अने अवगुणने बूरा कहे छे. गुणने भला तथा अवगुणने
बूरा जाणवा तेतो यथार्थ ज्ञान छे, तेमां कांई राग–द्वेष नथी. जैनोमां गुणनी अपेक्षाए पूजा स्वीकारवामां
आवी छे. जैनदर्शननुं मूळ भेद–विज्ञान छे; ते माटे प्रथम गुणने गुण तरीके अने अवगुणने अवगुण तरीके
जाणवा जोईए. ज्यां गुणने अने अवगुणने बराबर न ओळखे त्यां सुधी भेदज्ञान थाय नहि, तथा गुण प्रगटे
नहि ने अवगुण टळे नहि. सम्यक्प्रकारे पूर्णताना लक्षे शरूआत करीने क्रमेक्रमे राग–द्वेष टाळीने वीतरागता
प्रगट करवी ए ज जैनधर्मनुं प्रयोजन छे. अज्ञान के राग द्वेषनो अंश पण थाय ते जैनधर्मनुं प्रयोजन नथी.
जेटलो रागादिभाव सम्यक्प्रकारे टळ्‌यो तेटलो लाभ अने जेटलो रह्यो तेनो निषेध एवी साधकदशा छे.
जैनमतमां अन्य मिथ्या मतोनुं खंडन करवामां आवे छे त्यां वादविवादनुं प्रयोजन नथी परंतु सत्
निर्णयनुं ज प्रयोजन छे. पोताना ज्ञानने प्रामाणिक अने स्पष्ट बनाववा माटे तेमज सत्नी द्रढता माटे ते
जाणवुं योग्य छे; रागद्वेषनी वृद्धि करवा माटे ते नथी.
जैनधर्म तो वीतराग भाव स्वरूप छे. पहेलांं सम्यग्दर्शनरूपी जैनधर्म प्रगटतां श्रद्धामां वीतरागभाव
प्रगटे छे अने पछी सम्यक्चारित्ररूप जैनधर्म प्रगटतां राग टळीने साक्षात् वीतरागभाव प्रगटे छे. परंतु ज्यां
सुधी श्रद्धामां वीतरागता न प्रगटे अने रागना एक कणियाने पण सारो माने तो त्यां सुधी जीवने जैनधर्मनो
अंश पण प्रगटे नहि. जैनदर्शन, पहेलांं तो श्रद्धामां वीतरागभाव करावे छे अने पछी चारित्रमां वीतरागभाव
करावे छे; पहेलेथी छेल्ले सुधी जे राग थाय तेने ते छोडावे छे. आ रीते वीतरागभाव एज जैनदर्शननुं प्रयोजन
छे अथवा तो वीतरागभाव पोतेज जैनधर्म छे–राग ते जैनधर्म नथी.
मृत्युनो भय कोने टळे
मरणनो भय क्यारे टळे? आयुष्यनो अभाव तेने लोको मरण कहे छे. आयुष्य कर्म ते पुद्गल
परमाणुओनी अवस्था छे. पुद्गलनी अवस्था एक ज समय पुरती छे; तेनी अवस्थानो उत्पाद पहेलांं आयुष्यरूपे
हतो. पछी बीजी अवस्थामां तेनुं परिणमन फरी गयुं अने ते आयुष्यरूपे न परिणमतां अन्यरूपे परिणमी गया,
अने ते ज वखते शरीरना परमाणुओनुं परिणमन पण फरी गयुं, तथा आत्माना व्यंजन पर्यायनी ते क्षेत्रे
रहेवानी योग्यता पूरी थई ने ते अन्य क्षेत्रे चाल्यो गयो. –ए रीते कर्म, शरीर अने आत्मा ए त्रणेनी अवस्थानुं
स्वतंत्र परिणमन समये समये थई रह्युं छे. परंतु ए त्रणेमांथी कोई (–कर्म, शरीर के आत्मानो व्यंजनपर्याय)
जीवने दुःखनुं कारण नथी; दुःखनुं कारण तो पोतानो अज्ञान भाव ज छे. जेने कर्म अने शरीरथी भिन्न पोताना
चैतन्य स्वभावनुं भान छे ते तो तेना ज्ञाता ज रहे छे, ते शरीरादिना वियोगथी आत्मानुं मरण के दुःख मानता
नथी पण संयोगथी भिन्नपणे पोताना त्रिकाळी चैतन्य स्वभावने सदाय अनुभवे छे. पण जेने कर्म अने शरीरथी
जुदा पोताना चैतन्यस्वभावनो अनुभव नथी तेवा अज्ञानी जीव शरीरादिना वियोगथी आत्मानुं मरण अने दुःख
मानीने आकुळता अने राग–द्वेष वडे दुःखी थाय छे. ए रीते ते जीवो अज्ञानभाव वडे पोताना चैतन्यभावनो घात
करे छे ते ज मरण छे–हिंसा छे. माटे शुद्ध चैतन्य–स्वभावने जे जाणे तेने ज मरणनो भय टळे छे.
जीव धर्मकार्य क्यारे करे?
भाई, तुं आत्मा छो, तारुं लक्षण चैतन्य छे, तुं अमूर्त छो, अने आ शरीर जड छे, ते मूर्त छे, ताराथी
जुदुं छे. आत्मा पोतानी अवस्थामां कार्य करी शके पण शरीरादि परपदार्थोनी अवस्थामां आत्मा कार्य करी शके
नहि. आम समजीने जीव जो पोताना