Atmadharma magazine - Ank 049
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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: १२ : आत्मधर्म : कारतक : २४७४ :
स्वभावमां रहे तो ते विकारी कार्यनो कर्ता पण थाय नहि, पण शुद्धपर्यायनो ज कर्ता थाय. शुद्धपर्याय ए ज
धर्मकार्य छे.
ज्ञानीओ भेदज्ञान करावे छे
जड अने चेतन पदार्थनुं परिणमन स्वतंत्र छे, जडपदार्थोने परिणमनमां चेतन गुणनी जरूर नथी, जड
पदार्थोमां चेतनगुण न होवा छतां तेनुं परिणमन तेना पोताथी ज थाय छे, केमके परिणमवुं ते दरेक वस्तुनो
स्वभाव छे. जड चेतननुं भेदज्ञान अने तेनुं फळ वीतरागता. बिलाडी उंदरने पकडे छे एम बोलाय छे, हवे त्यां
खरेखर भेदज्ञानथी जोईए तो बिलाडीनो आत्मा अने तेनुं शरीर जुदां छे; तेमां बिलाडीना आत्माए तो उंदरनुं
ज्ञान कर्युं छे अने साथे साथे तेने मारीने खावानो अत्यंत तीव्र गृद्धिभाव कर्यो छे, अने मोढाद्वारा उंदर पकडवानी
क्रिया जड परमाणुओना स्वतंत्र कारणे थई छे. आम सर्वत्र जड चेतननी स्वतंत्रता छे. जड–चेतननां आवा
भेदज्ञाननी समजणनुं फळ वीतरागता छे. साचुं समजे तो परथी अत्यंत उदास थई जाय, परंतु कोई एम बोले
के ‘खावुं–पीवुं वगेरे बधी शरीरनी क्रिया छे’ अने अंतरथी तो ते प्रत्ये जरापण उदासीनता थाय नहि, तीव्र
गृद्धिभाव ज पोष्या करे तो तेने यथार्थपणे स्व–परनुं भेदज्ञान ज थयुं नथी, ते मात्र स्वछंद पोषवा माटे वातो
करे छे. जो के जडनी क्रिया तो जडथी ज थाय छे, परंतु जो खरेखर तें तारा आत्माने परथी भिन्न जाण्यो होय तो
तने परद्रव्योने भोगववा तरफ रुचि भाव ज केम थाय छे? एक तरफ जडथी भिन्न–पणानी वातो करवी अने
पाछुं जडनी रुचिमां एकाकारपणे तल्लीन वर्त्या करवुं–ए तो चोकखो स्वच्छंद छे, पण भेद ज्ञान नथी.
प्रश्न:– आवुं झीणुं ज्ञान करावीने शुं करवुं छे?
उत्तर:– तारो आत्म स्वभाव केवो छे ते तने ओळखाववो छे. ज्ञानीओ स्वयं आत्माने परथी भिन्नपणे
अनुभवीने कहे छे के हे भाई, तुं आत्मा छो चैतन्य स्वरूप छो, जगतनुं स्वतंत्र छुटुं तत्त्व छो, अने जड
शरीरनां रजकणो पण जगतनां स्वतंत्र तत्त्वो छे, तेनी अवस्था तेनी स्वतंत्र ताकातथी थाय छे, तुं तनो कर्ता
नथी. तुं तारी पर्यायमां जे ज्ञान तथा क्रोधादि भावो करे छे ते तने शरीर करावतुं नथी; तुं जुदो अने परमाणु
जुदा तारी शक्ति जुदी अने परमाणुनी शक्ति जुदी. तारुं काम जुदुं अने परमाणुनुं काम जुदुं.
आम सर्व प्रकारे
जडथी भिन्नता छे माटे तुं तारा चैतन्य स्वभावने जो, अने परनी क्रिया तारे आधीन नथी माटे तेनुं
धणीपणुं छोडी दे
. ‘हुं आने लउं ने आने मूकुं’ एम तुं अज्ञानथी मानी रह्यो छो, पण हराम छे जो ताराथी
कोई परमां कांई घालमेल थती होय तो! तारुं कार्य तो मात्र ज्ञान करवानुं छे, विकार करवानुं काम पण खरेखर
तारुं नथी. माटे परना कर्तापणानी मान्यता छोड, परमां मारुं सुख छे एवी मान्यता छोड, विकार मारुं स्वरूप
छे एवी मान्यता पण छोड. अने परथी तथा विकारथी भिन्न मात्र चैतन्यस्वरूप एवा तारा आत्मानी
ओळखाण करीने तेनी श्रद्धा कर.
आत्मा पोते चैतन्य स्वरूप होवा छतां तेनी भूल केम थई?
प्रश्न:– आत्मा पोते तो चैतन्य स्वरूप, जडथी जुदो हेवा छतां ‘हुं शरीरनो कर्ता छुं अने विकारनो कर्ता
छुं’ एवी तेनी भूल केम थई?
उत्तर–आ आत्माने अनादिकाळथी ईन्द्रियजनित ज्ञान छे, ते ईन्द्रियजनित ज्ञानवडे अमूर्तिक
चैतन्यस्वरूप एवो पोते तो पोताने भासतो नथी पण मूर्तिक एवुं शरीर ज भासे छे अने तेथी–पोते पोताना
मूळ स्वरूपने नहि जाण्युं होवाथी कोई अन्यने आपरूप मानीने तेमां अहंबुद्धि अवश्य धारण करे छे. पोते
पोताने परथी जुदो चैतन्यस्वरूपी न भास्यो तेथी जड शरीरमां अने ते शरीरना लक्षे थता विकारी भावोमां ज
ते पोतानुं स्वरूप मानी रह्यो छे. ए रीते ईन्द्रियज्ञानना अवलंबनने लीधे पोताना साचा स्वरूपनुं अजाणपणुं
एज सर्व भूलनुं मूळ छे.
ए भूल केम टळे?
ए भूल टाळवा माटे आत्मानुं साचुं स्वरूप सम्यग्ज्ञान वडे जाणवुं जोईए. माटे श्री गुरुदेव कहे छे के–तुं
ईन्द्रियाश्रित ज्ञान छोडीने आत्माना आश्रये सम्यग्ज्ञानथी जो, तो आत्मानुं शुद्ध स्वरूप तने जणाय. जडथी
भिन्न आत्मानुं स्वरूप अने तेनी चैतन्य क्रिया सम्यग्ज्ञानथी जणाय, अने ए जणातां जडनी अने विकारी
क्रियानुं धणीपणुं छूटी जाय. अंतर स्वभाव तरफ वळीने धीरो थईने, अतीन्द्रिय ज्ञानथी अंदर जोतो नथी, अने
मात्र ईन्द्रिय–ज्ञानथी पर तरफ ज जोया करे