Atmadharma magazine - Ank 049
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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आ अंकना मुखपृष्ठ उपर छापेला लखाण उपर पूज्य
सद्गुरुदेवश्रीए ‘आत्मधर्म’ ना पांचमा वर्षनी शरूआतमां
मांगळिक तरीके आपवा माटे करेलुं व्याख्यान: आसो सुद ५ रवि.
आत्म – भावना
(१) सर्वज्ञना बधा शास्त्रोनुं तात्पर्य वीतरागभाव छे, अर्थात् स्व पदार्थना आश्रयरूप स्वभावभाव
अने पर पदार्थोनी उपेक्षा ए ज बधानो सार छे.
आ समयसार शास्त्र खरेखर आत्मानो स्वभाव बताववानुं साधन छे. आ शास्त्र जाणीने भव्य जीवोए
शुं कर्तव्य करवुं? ते जयसेनाचार्यदेवे बताव्युं छे, अने परमात्म–प्रकाशमां पण ए ज प्रमाणे कह्युं छे. बधा
शास्त्रोनो सार शुं अथवा भव्य जीवोनुं कर्तव्य शुं? शुं पूजा–भक्ति के पर जीवनी दया वगेरे क्रियाओ कर्तव्य छे?
तेनो खुलासो करतां आचार्यदेव जणावे छे के भव्य जीवोए नीचे मुजब निरंतर भावना राखवी ए कर्तव्य छे.
(२) सहजशुद्धज्ञानानंदैकस्वभावोऽहं एटले के हुं सहज शुद्ध ज्ञान ने आनंद जेनो एक स्वभाव छे एवो
छुं. आम पोताना आत्मानी भावना भाववी. हुं सहज स्वाभाविक वस्तु छुं. हुं स्वाभाविक विकाररहित आत्मा छुं.
शुद्ध ज्ञान अने आनंद ज मारो स्वभाव छे, अने ते सहज छे; मारा ज्ञान आनंद माटे परनी अपेक्षा नथी. शुद्ध
ज्ञान आनंद स्वभाव छे तेनी ज भावना करवा जेवी छे. पर्यायमां अशुद्धता, अधुरुं ज्ञान के आकुळता छे तेनी
भावना करवा जेवी नथी. अशुद्ध पर्यायनी भावना छोडीने सहज शुद्धज्ञान स्वभावनी ज भावना करवी. ज्ञान
स्वभाव आनंद सहित छे. एवो जे ज्ञान अने आनंदरूप एक स्वभाव ते ज हुं छुं, मारामां आकुळता के दुःख नथी.
अहीं (मूळ लखाणमां) पहेलांं स्वभाव बताव्यो छे अने पछी विभावथी रहितपणुं बताव्युं छे. सहज
परिपूर्ण स्वभाव छे–ते पहेलांं बताव्यो छे.
मारो स्वभाव एक ज छे, मारो सहज ज्ञान आनंद स्वभाव सदा एकरूप छे. वधारे रागने मंद राग
अथवा ओछुं ज्ञान ने वधारे ज्ञान–एवा जे पर्यायना अनेक प्रकार छे ते मारुं स्वरूप नथी. हुं एक ज सहज
स्वभाववाळो छुं. आवी भावनाथी पोताना आत्माने भाववो, अने बधा आत्मानो स्वभाव पण आवो ज
छे–एम भावना करवी. हुं सहज ज्ञान आनंद स्वरूप छुं अने जगतना बधा आत्माओ पण एवा ज छे. राग–
द्वेष के अपूर्णता कोई आत्मानुं स्वरूप नथी. आ प्रमाणे सहज ज्ञानानंद एक स्वरूपे पोताना आत्माने भाववो
ए ज सदा कर्तव्य छे अने ते ज मुक्तिनी क्रिया छे.
(३) निर्विकल्पोऽहं एटले के हुं निर्विकल्प छुं–आम पोताना आत्मानी भावना भाववी. हुं संकल्प–
विकल्पथी रहित–निर्विकल्प छुं; दया–भक्तिना के हिंसादिना कोई विकल्प मारा स्वरूपमां नथी. दयादिनी लागणी थाय
ते हुं–एवो संकल्प मारामां नथी, अने ज्ञेयोना भेदने लीधे मारा ज्ञानमां पण भेद पडी जाय छे–एवी मान्यतारूप
विकल्प पण मारामां नथी. हुं संकल्प–विकल्परहित निर्विकल्प स्वभाव छुं; अने जगतना बधा ज आत्मा आवा ज
छे. हुं मारा सहजस्वभावमां ढळीने मारा आत्माने तो निर्विकल्प अनुभवुं छुं, अने ज्यारे पर लक्ष थाय त्यारे
जगतना बधा आत्मानो पण निर्विकल्पस्वभाव छे एम हुं जाणुं छुं. तेना वर्तमान पर्यायमां दोष होय ते तेनुं स्वरूप
नथी. जीवनुं स्वरूप तो सर्व संकल्प–विकल्परहित छे. आवा आत्मस्वभावनी भावना सदा करवा योग्य छे.
(४) उदासीनोऽहं एटले के हुं उदासीन छुं–आम पोताना आत्मानी भावना भाववी. हुं बधाय पर द्रव्योथी
उदासीन छुं. मारो स्वभाव कर्मोथी उदासीन छे, देव–गुरु–शास्त्रथी उदासीन छे अने रागादि विकारथी पण उदासीन
छे. मारा सहज ज्ञानानंद स्वभावने कोईनी अपेक्षा नथी, कोई निमित्तनी पण अपेक्षा नथी; हुं तद्न निरपेक्ष छुं.
(५) सहज शुद्ध ज्ञान–आनंद स्वरूप, निर्विकल्प अने उदासीन एवो जे पोतानो स्वभाव छे तेनुं वेदन–
ज्ञान ने प्राप्ति कई रीते थाय–तेनी भावना हवे कहे छे–
खास विनंति
श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट तरफथी गुजराती ‘आत्मधर्म’ मासिकना प्रचारनी तथा एक पुस्तिकाना
प्रचारनी योजना करवामां आवी छे, ते माटे ५००० सरनामानी जरूर छे; तेथी आत्मधर्मना सर्व वाचकोने अने
श्री जैन अतिथि सेवा समितिना सर्वे मेम्बरोने विनंति छे के–जेटलां मळी शके तेटलां तत्त्वप्रेमी मुमुक्षुओनां,
धार्मिक संस्थाओनां, त्यागीओनां उपदेशकोनां, विद्वानोनां, तेमज डोकटरो, वकीलो अधिकारीओ, शिक्षको, तथा
वांचनालयोना पूरा नामो तथा सरनामाओ वहेलासर आत्मधर्म कार्यालय मोटा आंकडिया तरफ मोकली आपे.
रामजी माणेकचंद दोशी प्रमुख श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट