: ४ : आत्मधर्म : कारतक : २४७४ :
निजनिरंजनशुद्धात्मसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपनिश्चय–रत्नत्रयात्मकनिर्विकल्पसमाधिसं जात–
वीतरागसहजानंदरूपसु–स्वानुभूतिमात्रलक्षणेन स्वसंवेदनज्ञानेन स्वसंवेद्यो गम्यः प्राप्यो भरितावस्थोऽहं
एटले के हुं निजनिरंजन शुद्ध आत्माना सम्यक्श्रद्धान–ज्ञान–अनुष्ठानरूप निश्चयरत्नत्रयात्मक जे निर्विकल्प
समाधि तेनाथी उत्पन्न वीतरागसहजानंदरूप सुखनी अनुभूति मात्र जेनुं लक्षण (–स्वरूप) छे एवा
स्वसंवेदनज्ञान वडे स्वसंवेद्य गम्य प्राप्य–एवो भरितावस्थ छुं. –आम पोताना आत्मानी भावना भाववी.
मारो परिपूर्ण स्वभाव छे ते मारा ज स्वसंवेदन ज्ञानथी अनुभवाय छे, जणाय छे ने प्राप्त थाय छे, तेमां अन्य
कोईनी जरूर नथी. मारी जेम जगतमां अनंत आत्माओ छे तेमनो स्वभाव पण परिपूर्ण छे, अने तेमने पण
स्वसंवेदनज्ञानथी ज तेनी प्राप्ति थाय छे, बीजो कोई उपाय नथी.
पहेलांं कह्युं के ‘निज’ एटले के मारो आत्मा; जगतमां अनंत आत्माओ छे ते नहि पण मारो ज
आत्मा; ते केवो छे? निरंजन छे. राग–द्वेष–मोहरूपी भाव–कर्म, द्रव्यकर्म तेम ज नोकर्मथी रहित मारो स्वभाव
छे. एवा मारा शुद्ध आत्मस्वभावनी सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान–स्थिरता ते ज निश्चयरत्नत्रय छे. एवा
निश्चयरत्नत्रयस्वरूप निर्विकल्प समाधि वडे जे स्वसंवेदन ज्ञान थाय छे तेनाथी ज आत्मा वेदाय छे–जणाय छे–
ने प्राप्त थाय छे; बीजी कोई रीते शुद्धात्मा वेदातो नथी–जणातो नथी ने प्राप्त थतो नथी. पोताना निरंजन
स्वरूपनी साची श्रद्धा ज्ञान अने तेमां ज लीनतारूप–तन्मयतारूप चारित्र एवा निश्चयरत्नत्रय ज
आत्मस्वभावनी प्राप्तिनो उपाय छे, व्यवहाररत्नत्रय पण उपाय नथी. व्यवहार रहित–विकल्प रहित–मनना
अवलंबन रहित–गुण भेद रहित एवा निज स्वभावनी शांतिथी उत्पन्न थयेलो जे सहज आनंदनो अनुभव ते
ज आत्मानुं स्वसंवेदन छे. अने एवा आत्मस्वभावना स्वसंवेदन वडे ज वेदाउ छुं–जणाउं छुं ते प्राप्त थाउं छुं.
हुं मारी ज निर्मळ अवस्थाथी वेदाउं छुं–जणाउं छुं ने प्राप्त थाउं छुं, कोई अन्यथी हुं जणातो–वेदातो के
प्राप्त थतो नथी, तेथी हुं भरित–अवस्थ छुं, मारा स्वभावथी हुं परिपूर्ण छुं.
जगतना बधा जीवो पण भरितावस्थ–परिपूर्ण छे; तेओ पण पोताना आत्मानी निश्चयरत्नत्रयात्मक
अनु–भूतिथी ज संवेद्य छे, जणावायोग्य छे ने प्राप्त थवा योग्य छे. हुं सहज शुद्ध ज्ञानानंद छुं, हुं परथी प्राप्त
थवा योग्य नथी, ने माराथी पर पदार्थो प्राप्त थवा योग्य नथी. हुं मारा स्वभावना स्वसंवेदन ज्ञान वडे ज
गम्य छुं, पण मनना विकल्पोथी, देव, गुरु, शास्त्रनी श्रद्धाथी, अगीआर अंगना ज्ञानथी के पंच महाव्रतथी
जणाउं तेवो हुं नथी. आवी भावना ज कर्तव्य छे. निश्चयरत्नत्रयस्वरूप स्वसंवेदन ज्ञान सिवाय बधा व्यवहार
अने क्रियाकांडना आमां मींडा वळे छे, आ ज साची क्रिया छे.
मारा आत्माना ज स्वसंवेदन ज्ञानथी जणावायोग्य, वेदावायोग्य अने प्राप्त थवा योग्य एवो हुं भरित–
अवस्थ छुं–अवस्थाओथी भरपूर छुं अने परिपूर्ण स्वरूपे छुं. आवुं परिपूर्ण स्वरूप छे ते ज भावना करवा
योग्य छे, अपूर्णता के विकारनी भावना करवा जेवी नथी.
(६) आ रीते, पहेलांं ‘स्वभावथी भरेलो–परिपूर्ण छुं’ एम अस्तिथी कह्युं, हवे ‘मारो स्वभाव सर्व
विभावोथी खाली–शून्य छे’ एम नास्तिथी कथन करे छे. स्वभावथी भरपूर अने विकारथी शून्य एम अस्ति–
नास्ति द्वारा आत्मस्वभावनी भावनानुं वर्णन छे.
रागद्वेषमोह–क्रोधमानमायालोभ–पंचेन्द्रियविषयव्यापार–मनोवचनकायव्यापार–भावकर्मद्रव्यकर्मनो–
कर्मख्यातिपूजालाभ–द्रष्टश्रुतानुभूतभोगाकांक्षारूपनिदानमायामिथ्याशल्यत्रयादिसर्व–विभावपरिणामरहित
शून्योऽहं एटले के हुं रागद्वेष मोह, क्रोधमानमायालोभ, पांच ईन्द्रियोनो विषयव्यापार–मनवचनकायानो
व्यापार, भावकर्म–द्रव्यकर्मनोकर्म, ख्यातिपूजालाभनी तेम ज द्रष्टश्रुत अनुभूत भोगोनी आकांक्षारूप
निदानमाया मिथ्यारूप त्रण शल्य–ईत्यादि सर्व विभाव परिणामरहित शून्य छुं. –आम पोताना आत्मानी
भावना भाववी.
राग–द्वेष अने मोह एटले के स्वरूपमां असावधानी ते मारुं स्वरूप नथी. मारुं स्वरूप राग–द्वेष–मोहथी
खाली छे. व्यवहार श्रद्धा–ज्ञान–चारित्ररूप परिणाम पण मारुं स्वरूप नथी. व्यवहाररत्नत्रयनी वृत्ति ऊठे ते
आत्मानो वेपार नथी. क्रोध, मान, माया, लोभथी पण हुं खाली छुं; क्रोधादि आकुळभाव मारामां नथी.
हुं पांच ईन्द्रियोना विषय व्यापारथी रहित छुं. जेटला पांच ईन्द्रियोना विषय छे ते हुं नथी. पांच
ईन्द्रियो वडे जे ज्ञान थाय ते पण मारुं स्वरूप नथी,