Atmadharma magazine - Ank 049
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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: कारतक : २४७४ : आत्मधर्म : ५ :
अने ते ज्ञानवडे जे जणाय ते पण हुं नथी. वळी मन–वचन–कायानो वेपार मारामां नथी. शरीरनी क्रियाओ,
वाणीनी प्रवृत्ति के मनना विकल्पो–ए बधाथी हुं खाली छुं. मनना लक्षे जे विकल्पो थाय ते हुं नहि; हुं निर्विकल्प
छुं, मारो वेपार चैतन्य छे.
हुं भावकर्म–द्रव्यकर्म ने नोकर्मथी रहित छुं. कोई पण विकारी भाव थाय ते मारा स्वभावमां नथी; नोकर्म
एटले शरीरादि हुं नथी. अने आठ प्रकारना द्रव्यकर्म पण हुं नथी.
अहीं ‘हुं आवो छुं अने आवो नथी’ एम मात्र विकल्पनी वात नथी, पण द्रव्यद्रष्टिना जोरे पर्यायद्रष्टि
छोडावे छे. पर्यायद्रष्टि छोडीने परिपूर्ण स्वभावनो अनुभव करवो ते ज बधानो सार छे, ते ज कर्तव्य छे. अहीं
अस्ति–नास्तिवडे स्वभावनी भावनानुं वर्णन कर्युं छे.
मारा आत्मामां ख्याति–पूजा–लाभनी आकांक्षा नथी. ख्याति एटले प्रसिद्धि; मारुं स्वरूप ज मारामां
प्रसिद्ध छे, बाह्य प्रसिद्धिनी कांक्षाथी हुं शून्य छुं. बहारमां प्रसिद्धिनी आकांक्षारूप परिणाम थाय ते हुं नथी,
मारामां ते परिणामनी नास्ति छे. पूजा के लाभनी आकांक्षा पण मारामां नथी. पर्यायमां अमुक विभाव
परिणाम थता होय, छतां तेनो स्वभावनी भावनामां निषेध छे. पर्यायमां विकार थाय तेनी भावना न होय,
भावना तो परिपूर्ण शुद्ध स्वभावनी ज होय.
देखेला, सांभळेला के अनुभवेला एवा जे भोग तेनी ईच्छारूपी निदानशल्यथी हुं खाली छुं. ‘देखेला’
कहेतां दर्शन आव्युं, ‘सांभळेला’ कहेतां श्रुतज्ञान आव्युं अने ‘अनुभवेल’ कहेतां चारित्र आव्युं. श्रद्धा–ज्ञान
अने चारित्र वडे स्वरूपना सहज सुखनो भोगवटो करवो ते मारुं कर्तव्य छे, हुं परपदार्थोना भोगनी
आकांक्षाथी रहित छुं. वळी मारामां माया के कपटरूपी शल्य नथी. स्वरूपने प्राप्त करवामां शल्यरूप मिथ्यात्व,
माया ने निदान तेओ मारामां नथी.
उपर कह्या ते विभावो अने बीजा पण सर्वे विभावोथी हुं खाली छुं ने स्वभावथी पूरो छुं. त्रिकाळ हुं आवो
ज छुं, वर्तमानमां–अत्यारे पण हुं आवो ज छुं. मारामां रागादि नथी. बधा आत्माओ पण आवा ज छे–एम
भावना करवी ते कर्तव्य छे. आ ज सर्वज्ञना शासननो सार छे, दिव्यध्वनिनुं तात्पर्य छे, बार अंगनो निचोड छे.
हुं स्वभावथी भरपूर ने सर्व विभावथी खाली छुं, हुं स्वभावनी भावना सिवाय बीजी सर्व भावनाथी
रहित छुं, मारा आत्मामां कोई पण फळनी वांछा नथी. सहज स्वरूपथी हुं ज्ञान–आनंदमय छुं, सर्व विभावथी
रहित–विकारथी रहित, उपाधिथी रहित, दया, दान, जप, तप, व्रत वगेरेथी रहित, हिंसादिथी रहित, निमित्तोनी
अपेक्षाथी रहित अने व्यवहार–रत्नत्रयथी रहित छुं. भरित–अवस्था एटले मारा स्वभावथी भरेलो–परिपूर्ण छुं
अने विभावथी शून्य छुं. आवी ज स्वभाव–भावना बधा सम्यग्द्रष्टिओ भावे छे, आवी ज भावना भाववाथी
सम्यग्द्रष्टि थवाय छे. आवा स्वभावनी भावना सिवाय बीजी कोई भावनाथी सम्यग्दर्शन थाय नहि.
(७) आ भावनामां बे भाग आव्या. पहेलां भागमां परिपूर्ण स्वभावनी अस्ति बतावी, ने बीजा
भागमां सर्व विभावनी नास्ति बतावी. ए रीते अस्ति–नास्ति वडे पूरो स्वभाव बताव्यो–ए ज अनेकांत छे.
आमां पूरो आत्मस्वभाव बतावतां गौणपणे निर्मळ पर्यायनुं अने विकारी पर्यायोनुं पण वर्णन आवी गयुं. शुं
आदरवा जेवुं छे ने शुं छोडवा जेवुं छे ते पण आवी गयुं. कोनी भावना कर्तव्य छे ते पण आवी गयुं. सर्वसत्–
शास्त्रोनो प्रयोजनभूत सार आमां आवी जाय छे.
(८) ‘उपर जेवा परिपूर्ण आत्मानी भावना करवानुं कह्युं तेवो परिपूर्ण तो सिद्धदशामां होय, अत्यारे
तो रागी ने अपूर्ण ज छे’ –एम कोई माने तो तेना समाधान माटे विशेष खुलासो करे छे; अने उपर कहेली
भावना ज निरंतर कर्तव्य छे एम हवे कहे छे:–
जगत्त्रये कालत्रयेऽपि मनोवचनकायैः कृतकारितानुमतैश्च शुद्धनिश्चयनयेन तथा सर्वेऽपि जीवाः
इति निरंतर भावना कर्तव्येति एटले के त्रण लोकमां, त्रणे काळे शुद्धनिश्चयनये हुं आवो (–स्वभावथी भरेलो
अने विभावथी खाली) छुं तथा बधा जीवो एवा छे–एम मन–वचन–कायाथी तथा कृत–कारित–अनुमोदनाथी
निरंतर भावना कर्तव्य छे.
सिद्ध थाउं त्यारे ज नहि पण त्रणे लोकमां अने त्रणे काळमां हुं स्वभावथी परिपूर्ण ज छुं; पूर्वे निगोद
दशा वखते पण हुं पुरो ज हतो. पहेलांं मारी आंख बंध हती (अज्ञान हतुं) तेथी मने मारी पूर्णतानुं भान न
हतुं, पण ज्यां आंख उघडी (सम्यग्ज्ञान थयुं) त्यां पूर्णतानुं भान थयुं, अज्ञानदशा वखते पण हुं तो