Atmadharma magazine - Ank 049
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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: ६ : आत्मधर्म : कारतक : २४७४ :
पूरो ज हतो. शुद्ध निश्चयनयथी हुं सदाय सर्वत्र परिपूर्ण छुं अने सर्वे जीवो पण एवा ज छे–आम भावना
करवी. ज्यां बधा ज जीवो परिपूर्ण छे–रागादि भावो कोई पण जीवनुं स्वरूप नथी–तो पछी कया जीव उपर हुं
राग करुं? ने कया जीव उपर हुं द्वेष करुं? एटले ए भावनामां वीतरागतानो ज अभिप्राय आव्यो.
प्रश्न:– पर्यायमां दोष तो छे, तो ए पर्याय क्यां गयो?
उत्तर:– भाई, पर्यायमां दोष छे तेनी तो ज्ञानीने खबर छे, परंतु दोषनी भावना करवाथी ते दोष टळे?
के दोषरहित पूरा स्वभावनी भावनाथी दोष टळे? पर्यायमां दोष होवा छतां स्वभाव परिपूर्ण छे ने दोषरहित
छे, ए स्वभावनी ज भावना कर. स्वभावनी भावना वडे पर्यायना दोषने छोडावे छे. शुद्ध निश्चयनयथी पूरो
स्वभाव छे तेनी भावना कर्तव्य छे, ने व्यवहारनी भावना छोडवा जेवी छे. व्यवहार श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रनी
भावनाने पण उडाडी दे. अवस्थामां व्यवहार छे–पण तेनी अहीं भावना ज नथी, स्वभावनी ज भावनाथी
अवस्थाना विकल्पने उडाडे छे. ज्यां अवस्था पोते ज स्वभावनी भावनामां लीन थई त्यां दोष क्यां रह्यो?
त्रणे काळे अने त्रणे लोकमां हुं शुद्ध ज्ञान–आनंद स्वरूप ज छुं अने बधाय जीवनो असली स्वभाव
पूरेपूरो अने विकारथी शून्य छे, विकारने अमे जीव कहेता ज नथी. आवी रीते आत्मस्वरूपनी भावना भाववी.
मनथी वचनथी ने कायाथी ए ज भावना भाववी विकल्प ऊठे तो परिपूर्ण स्वभावनो ज महिमा करवो,
वचन वडे पण परिपूर्ण स्वभावनी ज भावना करवी ने शरीरनी चेष्टामां पण ए ज भावना करवी. परिपूर्ण
स्वभाव सिवाय कोई पुण्य–पापनी, व्यवहारनी के परद्रव्यनी भावना मनथी करवी नहि, वाणीथी कहेवी नहि, ने
शरीरनी चेष्टाथी पण तेनी भावना बताववी नहि. पर जीव तरफनो विकल्प ऊठे तो ते जीव पण परिपूर्ण
स्वभाववाळो छे–एम भावना करवी निगोद के सर्वार्थ–सिद्धि, एकेन्द्रिय के पंचेन्द्रिय, दीन के मोटो राजा, निर्धन के
सधन, मूर्ख के पंडित, बाळक के वृद्ध, नारकी के देव, तिर्यंच के मनुष्य–ए बधाय आत्माओनो स्वभाव सहज
ज्ञानानंदमय परिपूर्ण ज छे, पर्यायनो विकार ते तेमनो स्वभाव नथी. मन–वचन–कायाथी पोताना तेम ज परना
आत्माने आवी ज रीते भाववो. पोते आवी भावना करवी, ने बीजा पासे पण आवी ज भावना कराववी अने
अनुमोदन पण आवी ज भावनानुं करवुं. कोई व्यवहारनी भावना करवी नहि, कराववी नहि ने अनुमोदवी
नहि. मनथी सारी मानवी नहि, वचनथी तेनां वखाण करवा नहि ने कायानी चेष्टाथी तेने सारी बताववी नहि.
सर्व प्रकारे पोताना परिपूर्ण स्वभावनी ज भावना करवी. आवी भावना ज निरंतर कर्तव्य छे.
(९) समयसार शास्त्र जाणीने आवी भावना ज भव्यजनोनुं कर्तव्य छे. जिनेन्द्रदेवे कहेला बधा शास्त्रो
जाणीने आ ज करवानुं छे. प्रश्न:– आवी भावना करे पछी तो व्रत–तप आवे के नहि? उत्तर:– परिपूर्ण आत्म–
स्वभावनी भावना ए ज धर्मीनुं कर्तव्य छे. व्रत–तपना शुभरागनी भावना कर्तव्य नथी. एकला स्वभावनी
भावनाथी ज सम्यग्दर्शन अने मुक्ति थाय छे. जीवनमां आ ज कर्तव्य छे. स्वभावनी भावना सिवाय बीजी
कोई भावना धर्मात्मानुं कर्तव्य नथी.
बार अंग अने चौद पूर्व जाणीने आ ज कर्तव्य छे. आत्मस्वभावनी भावना ए ज सर्वनो सार छे. ए
सिवाय व्रत–तप–त्याग–शास्त्रनुं भणतर ए बधुं निष्फळ छे. पहेलेथी छेल्ले सुधी आ ज कर्तव्य छे. बधाय
तीर्थंकरो, गणधरो, संतो, श्रावको अने सम्यग्द्रष्टि धर्मात्माओ आ ज कर्तव्य करीने मुक्ति पाम्या छे. आ ज
भावना भाववाथी सम्यग्दर्शन प्रगटे छे. माटे निरंतर आ भावना ज बधां य जीवोनुं कर्तव्य छे.
(१०) श्री महावीर भगवाननो निर्वाण कल्याणक महोत्सव नजीक आवे छे. आजे पचीस दिवस पहेलांं
ते महा मांगळिक उत्सवनो मांडवो नाख्यो. महावीरप्रभुए पण आवी भावनाथी ज सिद्धदशा साधी हती.
आवी ज भावनाथी परमात्मस्वभाव जणाय छे, ने ए जाण्या पछी पण आ भावना ज कर्तव्य छे, बीजुं जे
कांई वच्चे आवी पडे ते कर्तव्य नथी. जेने आवा स्वभावनो विवेक थाय तेने ज बधाय व्यवहारनो विवेक थई
जाय, पण आवा भान वगर व्यवहारनी पण साची खबर पडे नहि. आवी स्वभाव भावनामां ज दया,
सामायिक, वगेरे सर्व धर्मनी क्रियाओ समाई जाय छे; आना वगर सामायिक पौषध–दया वगेरे जे कांई करे ते
बधुं चक्करडां छे–तेमां धर्म नथी–कल्याण नथी–माटे–
दरेक जीवोए सदाय सर्व प्रकारे उपर मुजब पोताना आत्मस्वभावनी भावना भाववी ए ज कर्तव्य छे
अने ए ज महान मंगळ छे.