तेने बूम पाडवानी टेव पडी गई तेथी बूम पाडे. एक वखत ते वाणंद ते माणसना जमणा पगने पड्यो, तो
त्यां पण तेणे राड पाडी.... त्यारे वाणंदे तेने कह्युं के अरे भाई! तारा डाबा पगनुं गूमडुं कांई जमणा पगे न
आवी जाय, तुं मफतनो राड पाडे छे, तने खोटी राड पाडवानी टेव पडी गई छे. पोताने पीडा थाय छे के नथी
थती ते जाणवानी दरकार करतो नथी, पण मात्र हाथ अडे त्यारे दुःख मानीने राड पाडवानी टेव पडी गई छे.
एकाग्र थाय तो रागद्वेष थाय नहि. आत्माना स्वभावमां रागद्वेष नथी, पर वस्तु राग–द्वेष करावती नथी
तेमज एक पर्यायना रागद्वेष लंबाईने बीजी पर्यायमां आवी जता नथी. पण अज्ञानीने रागरहित
आत्मस्वभावनी द्रष्टि नहि होवाथी ते एम मानी बेठो छे के पूर्व पर्यायना रागद्वेष चाल्या आवे छे. तेनी एवी
मान्यताने लीधे तेनो पुरुषार्थ रागद्वेषमां ज अटकी गयो छे अने तेने त्यां ज एकत्वबुद्धि थई गई छे ते
एकत्वबुद्धि छोडावीने स्वभावमां अभेदद्रष्टि कराववा माटे ज्ञानीओ तेने समजावे छे के, हे भाई तारा
स्वभावमां राग–द्वेष नथी, अने वर्तमान पर्यायमां राग–द्वेष थाय तेनो बीजा समये अभाव ज थई जाय छे, तुं
मफतनो भ्रमथी राग–द्वेषने तारुं स्वरूप मानी रह्यो छो. तुं विचार के ए रागादि परिणामो केटलां अनित्य छे?
कोई पण वृत्ति टकी रहेती नथी, माटे एवुं तारुं स्वरूप न होई शके. एम जो तुं तारा राग रहित चैतन्य
स्वभावनो विश्वास कर तो तारी पर्यायमांथी पण राग–द्वेष टळवा मांडशे. तारा स्वभावना लक्षे पर्यायमां पण
वीतरागतानी ज उत्पत्ति थशे. माटे तुं राग–द्वेष रहित शुद्ध ज्ञायक स्वभावनी ओळखाण अने श्रद्धा कर. –ए ज
दुःख टाळवानो उपाय छे. जीवे कदी पोता तरफ जोवानी दरकार ज करी नथी के, आ राग–द्वेष तो नवा थाय छे के
एकने एक ज सदाय चाल्यां आवे छे? अने एम राग–द्वेष स्वभावमां छे के नथी? राग–द्वेष पोताना ऊंधा
पुरुषार्थथी नवा नवा थाय छे अने स्वभावमां ते नथी–एम नक्की करीने जो स्वभाव तरफ ढळे तो रागथी
भिन्न स्वभाव केवो छे तेनो अनुभव थाय.
नथी. पण, पोताना चैतन्य उपयोगने पर तरफ वाळीने त्यां लीन थई रह्यो छे
श्रद्धा ज प्रथम करवानी छे अने ते ज पहेलो धर्म छे. अने त्यारपछी पण बहारमां कांई करवानुं आवतुं नथी
तेम ज व्रत–तपादिना शुभराग आवे ते पण धर्मीनुं कर्तव्य नथी परंतु जे शुद्ध स्वभावनी श्रद्धा करी छे ते ज
शुद्ध स्वभावमां उपयोगने लीन करवो ते ज सम्यक्चारित्र अने केवळज्ञाननो मार्ग छे. धर्मनी शरुआतथी
पूर्णता सुधी एक ज क्रिया छे के ‘शुद्धात्मस्वभावमां चैतन्य उपयोगने लीन करवो;’ ए सिवाय बीजी कोई क्रिया
धर्ममां आवती नथी. जेटली स्वभावमां लीनता तेटलो धर्म छे–लीनतानी कचाश तेटलो दोष छे.