Atmadharma magazine - Ank 049
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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: ८ : आत्मधर्म : कारतक : २४७४ :
भरेला पोताना आत्मप्रदेशमां क्षणे क्षणे ऊंधी मान्यतारूपी भयंकर बोम्ब पोते फेंकी रह्यो छे अने
आत्मानी अनंती शक्तिनो घात करी रह्यो छे तेने तो जोवानी दरकार करतो नथी अने ए बोम्बमाराथी
बचवानो प्रयत्न करतो नथी. हे जीव! बहारमां बोम्ब पडे तेनुं नुकशान तारा आत्माने कांई नथी, पण तारा
आत्मामां ऊंधी मान्यतारूपी बोम्बथी तारी ज्ञानशक्ति हणाय छे तेनुं ज तने नुकशान छे, एनाथी बचवा तुं
साची श्रद्धानो प्रयत्न कर. तारी अंदर चैतन्य गुफानो आश्रय कर तो तेमां कोई बोम्ब लागी शके नहि.
जगतमां जड उपर बोम्बमारा थाय तेनाथी तो बचवानो प्रयत्न (भाव) करे छे, परंतु पोताना आत्मानी
साची ओळखाणना अभावे गुण स्वरूप उपर बोम्ब पडी रह्या छे अने क्षणे क्षणे गुणनी शक्ति घटती जाय छे
तेनी तो संभाळ कर. बहारना बोम्बथी बचवानो तारो प्रयास तो निष्फळ छे, बहारना बोम्बथी बची जवानुं
थई जाय तोपण तेनाथी तारा आत्माने किंचित् लाभ नथी. अंतरमां ऊंधी मान्यतारूपी बोम्बथी बचवुं ते ज
साचुं आत्मकल्याण छे.
जगतना घणां जीवोने आत्मकल्याणनी दरकार ज नथी. मात्र देहद्रष्टि ज होवाथी बहारना बोम्बथी
अने प्रतिकूळताथी बचवा प्रयत्न करे छे अने ते माटे वलखां मारे छे परंतु अंतरमां सम्यग्दर्शनना अभावे
मिथ्यात्वनो बोम्बमारो थई रह्यो छे अने तेने लीधे अनंत काळथी अनंतभवथी अपार दुःख भोगवी रह्या छे
अने ए मिथ्यात्वने लीधे भविष्यमां पण अनंत दुःख भोगववुं पडशे–एनाथी बचवा माटे तो वीरल जीवो ज
सत्समागमे प्रयत्न करे छे. “हुं आत्मा कोण अने मारुं शुं थशे, मारुं सुख केम प्रगटे, अनंत अनंतकाळथी दुःखी
थईने रझळी रह्यो छुं तेनाथी उगरवानो उपाय शुं हशे’ एवी धगश जागीने ज्यां सुधी पोतानी दरकार न थाय
त्यां सुधी परलक्षे जीवने ज्ञाननो जेटलो उघाड होय ते अप्रयोजनभूत पदार्थने ज जाणवामां अटकी रहे छे परंतु
प्रयोजनभूत आत्मस्वभावने जाणवानो प्रयत्न–अभ्यास करतो नथी अने तेथी तेनुं अज्ञान अने दुःख रह्या ज
करे छे; माटे सौथी पहेलांं अप्रयोजन–भूत परद्रव्योने जाणवानी रुचि छोडी दईने, पोताना परम आत्मतत्त्वने
जाणवानी रुचि करवी जोईए; ए ज कल्याणनो मार्ग छे.
सम्यक् चारित्र
आत्मानो स्वभाव ज्ञाता–द्रष्टा छे. ज्ञाताद्रष्टापणामां राग–द्वेष न होय, एटले ज्ञाता–द्रष्टा स्वभाव अने
राग–द्वेष जुदा छे एम भेदज्ञान करीने कोई परद्रव्यमां ईष्ट अनिष्ट बुद्धि न करवी पण राग–द्वेष रहित ज्ञाता–
द्रष्टा रहेवुं तेनुं नाम सम्यक्चारित्र छे. अथवा तो ज्ञाता–द्रष्टा स्वभावने रागथी जुदो जाणीने तेमां सम्यक्प्रकारे
प्रवृत्ति अने रागथी निवृत्ति ते सम्यक्चारित्र छे. आ आत्मानो ज वीतरागभाव छे अने ते सुखरूप छे. मारो
स्वभाव सुखरूप छे, कोई पण संयोगी पदार्थ के संयोगी भावमां मारुं सुख नथी, असंयोगी स्वतःसिद्ध ज्ञाता
द्रष्टा वस्तु हुं आत्मा छुं अने मारामां ज मारुं सुख छे एम जे स्वरूपने नथी जाणतो ते जीवने स्वभावमां
प्रवृत्ति होय नहि, पण परभावमां ज तेनी प्रवृत्ति होय. स्वभावमां प्रवृत्ति ते सम्यक्चारित्र छे, अने परभावमां
प्रवृत्ति ते मिथ्याचारित्र छे. जीवने राग–द्वारा समाधान अने शांति थती नथी पण स्वरूप एकाग्रता करतां ज
वीतरागभाव अने बधा समाधान–शांति सहज थाय छे, सर्व समाधान स्वरूप मोक्ष छे.
जेओ आत्मानी समजण करता नथी ने बहानां बतावे छे तेओ
वेदिया – मूर्ख छे. समजण माटे सदाय मंगळीक काळ ज छे
आत्मतत्त्वनी समजण वर्तमानमां ज करवी योग्य छे, एवा पवित्र कार्यमां क्षण मात्रनी मुदत मारवी ते
योग्य नथी. जेने आत्मानी दरकार नथी एवा मूर्ख अज्ञानी जीवो एम माने छे के हमणां अमुक बहारनां कामो
करी लेवा, अथवा तो हमणां पुण्य करी लेवा, पछी भविष्यमां साची समजण करशुं. –तेओ आत्मानी
समजणनो वर्तमानमां ज अनादर करी रह्या छे. अरे भाई, अनंत अनंत काळथी संसार समुद्रमां डुबकां खाई
रह्यो छो अने अत्यारे सत्समागमे आत्मस्वभाव समजीने संसार समुद्रमांथी उगरवाना अवसर आव्या, ते
वखते समजवानी आड मारवी ते मूर्खता छे. आत्मस्वभाव शुद्धपरिपूर्ण छे एम ज्ञानीओ बतावे छे ते तो
समजतो नथी अने ‘शास्त्रमां शुं कह्युं छे ते जोई लउं’ एम