Atmadharma magazine - Ank 050
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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: मागसर : २४७४ : आत्मधर्म : २७ :
खराब बोलशो तो आखुं वर्ष एवुं जशे. ए रीते अज्ञानीओ विकारद्रष्टिने लंबावे छे. ज्ञानीओ तो एम कहे छे
के–आखा आत्मस्वभावमां विकार ज नथी एवी श्रद्धा अने ज्ञान करजो. पर्यायमां क्षणिक विकार थाय ते मारा
स्वभावमां नथी. –विकाररहित मारा आत्मस्वभावनी भावना वडे एक क्षणमां पर्यायनो विकार तूटी जशे. –
आम ज्ञानीपुरुषो स्वभावनी भावनावडे अशुद्धतानो नाश करे छे, अने आत्मामां मंगळ–सुप्रभात प्रगट करे छे.
(१३) चैतन्यना प्रतापनो विलास अने निधान
जेम आ भरतक्षेत्र छे तेम महाविदेह नामनुं क्षेत्र छे, त्यां वर्तमानमां श्री सीमंधर भगवान तीर्थंकरपदे
बिराजे छे, तेमने अनंतचतुष्टयरूप सुप्रभात प्रगट छे. जेवी रीते सूर्य ऊगे तेना प्रकाशमां अंधारुं रही शके नहि
तेवी रीते आत्मामां सुप्रभात थतां चैतन्यसूर्य प्रगटयो, तेनी ज्योतिनो एवो प्रभाव छे के तेना तेज–प्रभावमां
राग के दुःख आवी ज शकता नथी. चैतन्य–पूंजनो जे प्रताप तेना विकारथी भरपूर एवा निधान सहित
सुप्रभात उदय पामे छे. जड निधान (लक्ष्मी) मां आत्मानुं सुख नथी, पण आत्मानो चैतन्य निधानथी भरेलो
विकास थाय ते ज सुख छे.
राग थाय ते चैतन्यनो विलास नथी, पण केवळ ज्ञान थाय ते ज चैतन्यनो विलास छे. ‘चित्पिंड
चंडिम–विलास विकासहासः’ ए पदनो विस्तार चाले छे. सुप्रभातरूपे उदय थयेलो आत्मा केवो छे?
ज्ञानपूंजस्वभावनो जे प्रताप तेना फेलावथी भरपूर छे; चैतन्यभगवाननो संपूर्ण विलास तेने प्रगटयो छे.
ज्ञाननी एकरूप अचल परिणति ते ज चैतन्यनो प्रताप छे, रागमां अटकवुं ते चैतन्यनो प्रताप नथी. चैतन्यनी
स्थिर परिणतिनो प्रकाश खीली नीकळ्‌यो ते ज चैतन्यनुं अखंड निधान छे. जड पैसा वगेरेना निधानथी तो
आत्मा जुदो ज छे, ए जड निधाननो स्वामी आत्मा नथी, ने ते संयोगनो अल्पकाळमां वियोग थई जाय छे,
आ स्वानुभवथी प्रत्यक्ष एवा ज्ञानस्वभावी भगवान आत्मानी ओळखाण–प्रतीति अने एकग्रता थतां जे
पूर्णदशा ऊघडी ते ज चैतन्यनां निधान छे, ते निधाननो आत्मा स्वामी छे, ते निधान सदाय आत्मा साथे टकी
रहे छे तेथी ते अक्षय निधान छे.
(१४) सदा परिपूर्ण शक्तिस्वभावनो महिमा
आत्मानी संपूर्ण चैतन्यदशा प्रगटी ते आत्मा साथे सदाय टकी रहे छे, ज्यां सुधी आत्मा रहे त्यां सुधी
चैतन्यदशा थया ज करे एटले के ते अनंतकाळ अच्छिन्नपणे थया ज करे, ते दशानो कदी नाश न थाय, तेमां कदी
अपूर्णता न थाय, ने तेमां कदी विकार न थाय.
प्रश्न:–आत्मामांथी एम ने एम पूरी दशा प्रगटया ज करे, तो पूरी दशा प्रगटतां प्रगटतां कयारेक
आत्मानी शक्ति खाली न थई जाय?
उत्तर:–आत्मानो शक्तिस्वभाव एवो छे के अनंतकाळ सुधी पूरेपुरी दशा प्रगटया करे छतां तेमांथी
रंचमात्र घटाडो थतो नथी. ज्यारे अधूरी दशा प्रगटती हती त्यारे शक्तिरूप वधारे भाग रहेतो हतो अने ज्यारे
पूरी दशा प्रगटवा मांडी त्यारे शक्तिमांथी कांई ओछुं थई गयुं–एम नथी. पूर्ण दशा प्रगटी त्यां पण शक्ति पूरी
ज छे, ने अधूरी दशा वखते पण शक्ति पूरी छे. अधूरी दशा हो के पूरी दशा हो–पण शक्ति तो पूरी ज रहे छे.
एटले आमांथी तो ए सिद्ध थयुं के त्रिकाळ–शक्तिस्वभाव निरपेक्ष छे, पर्यायनी तेने अपेक्षा नथी.
केवळज्ञानादि स्वचतुष्टयरूप पूरी दशा प्रगटी एटले के शक्तिनी पूरी अवस्था प्रगटी तेथी शुं शक्ति खूटी
गई हशे? –ना, चैतन्यशक्ति तो परिपूर्ण ज छे. सिद्धदशा वखते ने निगोददशा वखते चैतन्यशक्ति सरखी ज
छे, वर्तमानमां अवस्थामां फेर छे. चैतन्यशक्तिनी श्रद्धा अने आश्रयना जोरे सिद्धदशा प्रगट थाय छे, पण कांई
चैतन्यशक्ति पोते प्रगट थती नथी. चैतन्यस्वभावने जाणीने तेनो आश्रय करतां बधाय द्रव्य–गुण–पर्यायने
एक साथे स्पष्टपणे जाणवानी पर्यायनी ताकात प्रगटी अर्थात् परमार्थ स्वभावना आश्रये व्यवहारने छेदीने
पूर्ण–दशा प्रगटी, त्यारे स्वभाव सामर्थ्यमांथी कांई पण घटी गयुं नथी, तेम वध्युं पण नथी. जे शक्तिस्वभाव
छे ते कदी खूटे नहि ने कदी वधे नहि, अनादि अनंत एकरूप अवस्थित रहे छे. पर्यायमां घणी मलिनता होय
तेथी कांई श्रक्तिमांथी घटी जतुं नथी, अने पर्यायमां घणी पवित्रता होय तेथी कांई शक्तिमां वधी जतुं नथी.
तेम ज ज्यारे पर्यायमां थोडुं सामर्थ्य प्रगट होय त्यारे शक्तिरूप घणुं रहे–एम नथी, अने पर्यायमां ज्यारे घणुं
सामर्थ्य प्रगटे त्यारे शक्तिमांथी ओछुं थई जाय–एम नथी. जे निर्मळदशा प्रगटी तेनुं माहात्म्य सम्यग्दर्शनमां
(–सम्यक्श्रद्धामां) नथी, पण त्रिकाळी एकरूप निरपेक्ष स्वभावनुं ज–परम परिणामिक भावनुं ज–तेमां