: मागसर : २४७४ : आत्मधर्म : २९ :
आत्मा सिद्ध थईने उपर जवानो छे. माटे हे भाई, तुं परावलंबनरूपी रोणां छोडीने तारा ज्ञानरूपी अरिसाने
स्थिर करीने जो तो तने तेमां ज सिद्ध देखाशे. सिद्धदशानां विरहने भूली जा. तारां सिद्धपद तारामां ज छे, एने
जो–देख, तेनी प्रतीति कर. एम करवाथी तारा आत्मामां सिद्धदशा प्रगटी जशे.–ए ज महासुप्रभात छे.
(१९) अप्रतहत सप्रभत
–एवा सुप्रभातनो उदय थतां जे शुद्धपरिणति प्रगटी ते स्वयं ज्ञान अने आनंदथी भरपूर छे अने ते
कायम साक्षात् उद्योतरूप रहे छे. आ सातिशाय प्रभात छे, विशिष्ट प्रकारनो प्रातःकाळ छे. त्रिकाळ महिमावंत
स्वभावना आश्रये जे सम्यग्दर्शनरूपी सुप्रभात थयुं तेनो पण फरीने अस्त थवानी वात नथी तो पछी
केवळज्ञान–रूपी सुप्रभातमां तो पाछुं फरवानी वात कयांथी होय?
जेम रात्रिना अंधकारने भेदीने सूर्य ऊगे तेम सम्यग्द्रष्टि धर्मात्माए स्वभावनो पूरो आश्रय कर्यो अने
कर्मनो आश्रय सर्वथा टाळ्यो त्यां केवळज्ञानरूपी सुप्रभात प्रगटयां, ए प्रभात परिपूर्ण ज्ञान, आनंद, दर्शन
अने आत्मबळ सहित छे.
(२०) साधक जीवो चैतन्यसमुद्रने वलोवीने अमृत काढे छे.
जेम लौकिकमां कहेवाय छे के कोईए समुद्र वलोव्यो अने तेमांथी पहेलां झेर नीकळ्युं पछी अमृत नीकळ्युं.
ते बंनेने कोईक पी गयुं. एम अहीं सम्यग्द्रष्टि धर्मात्मा जीवो भेदज्ञानना बळवडे चैतन्यसमुद्रने वलोवे छे,
चैतन्य–स्वरूपना अनुभवरूपी अमृतनुं पान करी करीने साधक जीवो डोले छे, अने अज्ञान तथा राग–द्वेषरूपी
झेरने सर्वथा छोडे छे, ते झेरना एक अंशने पण ग्रहण करता नथी. आ चैतन्यसमुद्र एवो छे के भेदज्ञानवडे
तेने वलोववाथी एकलुं ज अमृत ज नीकळे छे.
(२१) सुप्रभातमां आत्मानो आनंद केवो छे?
मिथ्यात्व–अज्ञानरूप निद्रा अने राग–द्वेष–क्रोधादिरूप अंधकारने नष्ट करीने सम्यग्ज्ञान अने वीतरागतामय
शुद्ध परमानंद अवस्थाने धारण करतो शुद्धतत्त्वरूपे आत्मा पोते उदय पामे छे, ते सुप्रभात छे. ते आत्मा केवो छे?
‘आनन्द सुस्थित सदाऽस्खलितैकरूपो’ अर्थात् अतीन्द्रिय स्वाभाविक सुखरूप जे पोताना परिणाम तेमां
सदाय अस्तलित एकरूपे स्थित छे. आत्मा पोते ज परिपूर्ण आनंदस्वरूपे थई गयो छे, तेने कदी हवे आनंदनो
विरह नथी. जेम आत्मानो कदी नाश नथी तेम तेना स्वाभाविक अतीन्द्रिय आनंदनो पण कदी नाश नथी.
पूर्णदशानो अतीन्द्रिय आनंद जो बहारथी आव्यो होय तो तेनो वियोग थई जाय, पण पोतानो स्वभाव ज
आनंदरूप थई गयो छे एटले के आत्मा अने आनंद बंने एक ज थई गया छे–तेथी तेनो कदी वियोग नथी. ते
आनंद अस्खलित छे, तेमां कदी स्खलना नथी–भंग नथी. वळी ते एकरूप छे. परलक्षे जे आकुळतामां आनंद
मान्यो हतो ते तो अनेक प्रकारनो हतो, तथा साधक दशानो आनंद पण वध–घटरूप अनेक प्रकारनो हतो, पण
पूर्णदशानो आकुळतारहित स्वाभाविक पूरो आनंद प्रगटयो ते सदा एक ज प्रकारनो छे, एकरूप छे.
(२) आत्माना चतुष्टयरूप सुप्रभात
आवी जे सुप्रभातरूप निर्मळदशा प्रगटी तेमां ज आखो आत्मा स्थित छे. परिपूर्ण दशा प्रगटतां आत्मा
कृतकृत्य थई गयो छे, जे कहो ते सर्वस्व ए पर्यायमां आवी गयुं छे. ए परिपूर्ण पर्यायथी भिन्न कोई आत्म–
स्वभाव रह्यो नथी. आ कळशमां श्री अमृतचंद्राचार्यदेवे आत्माना चतुष्टयने ज सुप्रभातरूपे वर्णव्या छे.
चित्पिंड ईत्यादि विशेषणथी अनंतदर्शननुं प्रगट थवुं बताव्युं. छे. शुद्धप्रकाश ईत्यादि विशेषणथी अनंत
ज्ञाननुं प्रगट थवुं बताव्युं छे. आनंदसुस्थित ईत्यादि विशेषणथी अनंत सुखनुं प्रगट थवुं बताव्युं छे, अने
अचलार्चि विशेषणथी अनंतवीर्यनुं प्रगट थवुं बताव्युं छे; एवो अर्थ पंडित जयचंदजीए भर्यो छे. आवा
चतुष्टयस्वरूप सुप्रभातने कोण प्राप्त करे छे? शुद्ध आत्मस्वभावने जाणवारूप ज्ञान, अने तेमां ज रागरहित
एकाग्रतारूप क्रिया, एवा ज्ञान–क्रियानो सुमेळ जे आत्मामां वर्ते छे ते आत्मा ज ते सुप्रभातरूपे उदय थाय छे
अने ते आत्मा सदाय आनंदमां ज स्थित रहे छे.
(२३) आचार्यदेवना आत्मामांथी ऊठतो पडकार
अहीं आचार्यदेव एम बतावे छे के–तुं तारा शुद्धात्मस्वभावनो महिमा लावीने तेने जाण अने तेमां
स्थिर था तो तारो आत्मा ज आनंदमां एवो सुस्थित थई जशे के फरीथी कदी तने आकुळता के दुःख नहि थाय.
तारो स्वभाव ज तारे उपासवायोग्य छे. ज्ञान अने आनंद प्रगटवानुं ठेकाणुं तारो आत्मा ज छे. तेने ओळख
अने तेमां एकाग्र था, तो सदाकाळ पूरा ने पूरा आनंदमां ज तारो आत्मा स्थिर रहेशे.