धारण करवो बाकी छे, तेनो नकार करतां आचार्यश्री कहे छे के) वस्तुस्वभाव अमारो पूरो छे ते जाशे कयां?
पुरो स्व–भाव कदी टळवानो नथी अने ए पूरा स्वभावना जे श्रद्धा–ज्ञान प्रगटयां छे ते पण कदी टळवानां
नथी. एटले हवे अप्रतिहतभावे पूर्णता ज प्रगटवानी छे. आ रीते आचार्यदेवोनां अंतरमां पूर्ण सुप्रभातनी
भावनानुं ज रटण थई रह्युं छे.
मान्यतारूप जे पर्याय छे ते आत्मानो बाल्यकाळ छे, ते काळ रात्रिना अंधकार जेवो छे. शुद्धचैतन्यनी श्रद्धा–
ज्ञानरूप पर्याय ते ज्ञानकाळ छे. टूंकामां कहीए तो स्वसमय ते धर्म छे ने परसमय ते अधर्म छे.
अज्ञानभावने लीधे तारा आत्मामां सदाय दुष्काळ ज छे. तुं तारा आत्माना स्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान कर तो
सुकाळ प्रगटे एटले के तारामां सम्यक् प्रकारनुं परिणमन थाय, अने दुष्काळ एटले भूंडुं परिणमन (–अशुद्धता)
टळे. ए ज तारा कल्याणनुं कारण छे. साची श्रद्धा–ज्ञानरूपी सुकाळ थतां अने स्वरूपनी एकाग्रतावडे
चैतन्यसूर्यनुं प्रतपन थतां चारित्ररूप पाक पाकयां. अने तेना खोराकथी आत्मा पुष्ट–थयो–आत्मामां स्वकाळनी
पूर्णता थई–केवळज्ञान थयुं. ए ज आत्मानुं साचुं जीवतर छे. परंतु अनाजथी आत्मा जीवतो नथी, ने
अनाजने आत्मा खातो पण नथी. आत्मा तो शुद्ध चैतन्यपणाथी सदा जीवंत छे, तेनो कदी नाश नथी. पहेलां
शरूआतमां आत्मानुं जीवन केवुं होय ते बताव्युं अने पछी, त्रिकाळ शक्तिस्वभाव सदा पूरो छे तेनो महिमा
वर्णव्यो तथा ते स्वभावमां अगुरुलघुपणुं वर्णव्युं. ए रीते आजे महान अपूर्व मांगळिक थयुं छे.
जाके घट एसी दशा, साधक ताको नाम, जैसे जो दीपक धरे सो उजियारो धाम.
परिणति दोडवा लागी. हवे स्वभावना ज आश्रये आगळ वधती वधती, कर्मनो, विकारनो अने व्यवहारनो
चूरो करती करती, क्रमे क्रमे ते पूर्ण थाय छे. जेना अंतरमां आवी दशा थई होय ते जीवने ज साधक जाणवो.
स्वभावना आश्रये ज साधकदशा शरू थई छे, तेना ज आश्रये आगळ वधे छे, ने तेना ज आश्रये पूर्णता थाय
छे. वच्चे जेटलो व्यवहारनो आश्रय आवी पडे छे ते साधक नथी पण बाधक छे. ज्यां दीवो होय त्यां उजास
होय, तेम ज्यां चैतन्यभगवान दीवारूपे होय त्यां केवळज्ञानरूपी प्रकाश प्रगटे छे–एटले के ज्यां
चैतन्यस्वभावनो आश्रय छे त्यां केवळज्ञान प्रगटे छे, पण पुण्य–पाप पोते अंधारास्वरूप छे, तेना आश्रयथी
तो मिथ्यात्वरूप अंधकारनी ज उत्पत्ति थाय छे, पण सम्यग्ज्ञान प्रकाश प्रगटतो नथी.
बे चक्षुओ फडाक खूली गयां, ए चक्षुओ खूल्लां थतां पोताना अचिंत्य महिमावंत भगवान आत्माना अवाच्य
स्वभावने बराबर जाण्यो. विकल्प के वाणीना अवलंबने आत्मस्वभाव जाणी शकातो नथी पण सम्यग्दर्शन