Atmadharma magazine - Ank 050
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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: ३० : आत्मधर्म : मागसर : २४७४ :
जुओ, आ सुप्रभात–मंगळ! आ तो आचार्योनां अंतरना पडकार ऊठया छे–आत्मामांथी पोकार ऊठया
छे के अमे सिद्ध पद लेवा ऊठया छीए, अप्रतिहतपणे अमारी सिद्धदशा लेवाना छीए. (एक देह स्वर्गमां
धारण करवो बाकी छे, तेनो नकार करतां आचार्यश्री कहे छे के) वस्तुस्वभाव अमारो पूरो छे ते जाशे कयां?
पुरो स्व–भाव कदी टळवानो नथी अने ए पूरा स्वभावना जे श्रद्धा–ज्ञान प्रगटयां छे ते पण कदी टळवानां
नथी. एटले हवे अप्रतिहतभावे पूर्णता ज प्रगटवानी छे. आ रीते आचार्यदेवोनां अंतरमां पूर्ण सुप्रभातनी
भावनानुं ज रटण थई रह्युं छे.
(२४) आत्मानो स्वकाळ अने महान अपूर्व मांगळिक
‘प्रभात’ ए काळने सूचवे छे. लौकिकमां दिवस, रात, कलाक, मिनिट वगेरे भेदो काळना छे, परंतु ए
काळनी साथे आत्माना धर्मनो संबंध नथी. आत्मानी परिणति ते आत्मानो काळ छे, तेमां बाल्यकाळ
(अज्ञानकाळ), ज्ञानकाळ, चारित्रकाळ, कैवल्यकाळ अने सिद्धकाळ एवा भेदो छे. अज्ञानभाव अने ऊंधी
मान्यतारूप जे पर्याय छे ते आत्मानो बाल्यकाळ छे, ते काळ रात्रिना अंधकार जेवो छे. शुद्धचैतन्यनी श्रद्धा–
ज्ञानरूप पर्याय ते ज्ञानकाळ छे. टूंकामां कहीए तो स्वसमय ते धर्म छे ने परसमय ते अधर्म छे.
लोको माने छे के दुष्काळ टळ्‌यो ने सुकाळ थयो, पाक बहु सारो पाकयो तेथी हवे सुखी थशुं. परंतु
भाईरे! तारा आत्माने तें खोराकनो ओशियाळो मान्यो अने बहारमां तारुं सुख मान्युं तेथी तारा
अज्ञानभावने लीधे तारा आत्मामां सदाय दुष्काळ ज छे. तुं तारा आत्माना स्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान कर तो
सुकाळ प्रगटे एटले के तारामां सम्यक् प्रकारनुं परिणमन थाय, अने दुष्काळ एटले भूंडुं परिणमन (–अशुद्धता)
टळे. ए ज तारा कल्याणनुं कारण छे. साची श्रद्धा–ज्ञानरूपी सुकाळ थतां अने स्वरूपनी एकाग्रतावडे
चैतन्यसूर्यनुं प्रतपन थतां चारित्ररूप पाक पाकयां. अने तेना खोराकथी आत्मा पुष्ट–थयो–आत्मामां स्वकाळनी
पूर्णता थई–केवळज्ञान थयुं. ए ज आत्मानुं साचुं जीवतर छे. परंतु अनाजथी आत्मा जीवतो नथी, ने
अनाजने आत्मा खातो पण नथी. आत्मा तो शुद्ध चैतन्यपणाथी सदा जीवंत छे, तेनो कदी नाश नथी. पहेलां
शरूआतमां आत्मानुं जीवन केवुं होय ते बताव्युं अने पछी, त्रिकाळ शक्तिस्वभाव सदा पूरो छे तेनो महिमा
वर्णव्यो तथा ते स्वभावमां अगुरुलघुपणुं वर्णव्युं. ए रीते आजे महान अपूर्व मांगळिक थयुं छे.
(२५) साधक दशा केवी छे?
पोताना आत्मस्वभावना आश्रये जे साधकदशा प्रगटी ते मंगळरूप छे. एवी साधकदशानुं वर्णन करतां
नाटक–समयसारमां कह्युं छे के–
जगी शुद्ध सम्यक्कला, बगी मोक्षमग जोय; वहे कर्म चूरण करे, क्रम क्रम पूरण होय.
जाके घट एसी दशा, साधक ताको नाम, जैसे जो दीपक धरे सो उजियारो धाम.
वारंवार आत्मस्वभावनी भावनाथी एटले के भेदज्ञानना अभ्यासथी, शद्धात्मस्वभावना आश्रये
चैतन्यनी निर्मळदशा प्रगटी एटले श्रद्धा अने ज्ञानरूपी शुद्ध कळा प्रगटी, अने ते वेगथी मोक्षमार्गमां चालवा
लागी; अनादिथी परिणति संसार तरफ चालती तेने बदले हवे साधकजीवने स्वभावना आश्रये मोक्ष तरफ
परिणति दोडवा लागी. हवे स्वभावना ज आश्रये आगळ वधती वधती, कर्मनो, विकारनो अने व्यवहारनो
चूरो करती करती, क्रमे क्रमे ते पूर्ण थाय छे. जेना अंतरमां आवी दशा थई होय ते जीवने ज साधक जाणवो.
स्वभावना आश्रये ज साधकदशा शरू थई छे, तेना ज आश्रये आगळ वधे छे, ने तेना ज आश्रये पूर्णता थाय
छे. वच्चे जेटलो व्यवहारनो आश्रय आवी पडे छे ते साधक नथी पण बाधक छे. ज्यां दीवो होय त्यां उजास
होय, तेम ज्यां चैतन्यभगवान दीवारूपे होय त्यां केवळज्ञानरूपी प्रकाश प्रगटे छे–एटले के ज्यां
चैतन्यस्वभावनो आश्रय छे त्यां केवळज्ञान प्रगटे छे, पण पुण्य–पाप पोते अंधारास्वरूप छे, तेना आश्रयथी
तो मिथ्यात्वरूप अंधकारनी ज उत्पत्ति थाय छे, पण सम्यग्ज्ञान प्रकाश प्रगटतो नथी.
साधक धर्मात्मा जीवने चैतन्यभावना आश्रये सम्यग्दर्शन सूर्य ऊग्यो ने मोहरात्रि टळी गई. परमां
ममत्वने लीधे ऊंधी श्रद्धा ने ऊंधा ज्ञानरूप जे बे पडळ हतां ते पडळ फाटी गयां, ने सम्यग्दर्शन–सम्यग्ज्ञानरूप
बे चक्षुओ फडाक खूली गयां, ए चक्षुओ खूल्लां थतां पोताना अचिंत्य महिमावंत भगवान आत्माना अवाच्य
स्वभावने बराबर जाण्यो. विकल्प के वाणीना अवलंबने आत्मस्वभाव जाणी शकातो नथी पण सम्यग्दर्शन
अने सम्यग्ज्ञानथी ज ते जणाय छे. एवा निजस्वभावने बराबर