नथी. चारित्र करतां सम्यग्दर्शनमां अल्प पुरुषार्थ छे, माटे तुं ए सम्यग्दर्शन तो अवश्य करजे. सम्यग्दर्शननो
एवो स्वभाव छे के जे जीव तेने धारण करे ते जीव क्रमे क्रमे शुद्धता वधारीने अल्पकाळे मुक्तदशा प्रगट करे छे,
जीवने ते लांबो काळ संसारमां रहेवा देतुं नथी. आत्मकल्याणनुं मूळ कारण सम्यग्दर्शन छे. सम्यग्दर्शन–ज्ञान
चारित्रनी एकता ते पूर्ण मोक्षमार्ग छे. हे भाई, जो ताराथी सम्यग्दर्शनपूर्वक राग छोडीने चारित्रदशा प्रगट
थई शके तो तो ते उत्तम छे, अने ए ज करवा योग्य छे; पण जो ताराथी चारित्रदशा प्रगट न थई शके तो
मने धर्म नथी. आम रागरहित स्वभावनी श्रद्धापूर्वक जो रागरहित चारित्रदशा थई शके तो तो ते प्रगट करीने
स्वरूपमां ठरी जजे; पण जो तेम न थई शके अने राग रही जाय तो ते रागने मोक्षनो हेतु न मानीश, रागथी
पण करतो नथी तेने आचार्यभगवान कहे छे के हे जीव! तुं पर्यायद्रष्टि रागने तारुं स्वरूप मानी रह्यो छे. पण
पर्यायमां राग होवा छतां तुं पर्यायद्रष्टि छोडीने स्वभाव द्रष्टिथी जो तो तारा रागरहित स्वरूपनो तने अनुभव
थाय. जे वखते क्षणिक पर्यायमां राग छे ते वखते ज रागरहित त्रिकाळीस्वभाव छे, माटे पर्यायद्रष्टि छोडीने
वगर राग कदी टळवानो नथी.
एटले के पर्याय सुधरे तो द्रव्यने मानुं’ एवी जेनी मान्यता छे ते जीव पर्यायद्रष्टि छे–पर्यायमूढ छे, तेने
स्वभावद्रष्टि नथी; अने ते ते मोक्षमार्गना क्रमने जाणतो नथी केमके ते सम्यक्श्रद्धा पहेलां सम्यक्चारित्र ईच्छे
पर्यायमां निर्मळता प्रगटे छे. मारो स्वभाव रागरहित छे एवा वीतरागी अभिप्रायपूर्वक (–स्वभावना लक्षे
अर्थात् द्रव्यद्रष्टिथी) जे परिणमन थयुं तेमां क्षणे क्षणे राग तूटतो जाय छे अने रागनो अल्पकाळे नाश थाय
छे; ए सम्यग्दर्शननो महिमा छे. पण जो पर्यायद्रष्टि ज राखीने पोताने रागवाळो मानी ल्ये तो राग टळे कई
रीते? ‘हुं रागी छुं’ एवा रागीपणाना अभिप्रायपूर्वक (–विकारना लक्षे अर्थात् पर्यायद्रष्टिथी) जे परिणमन
थाय तेमां तो रागनी ज उत्पत्ति थया करे, पण राग टळे नहि. तेथी पर्यायमां राग होवा छतां ते ज वखते
पर्यायद्रष्टि छोडीने स्वभावद्रष्टिथी राग–रहित चैतन्यस्वभावनी श्रद्धा करवानुं आचार्य भगवान जणावे छे;
अने ए ज मोक्षमार्गनो क्रम छे.
तारा स्वभावने अन्यथा मानीश नहि.
नाश करनार एवो पोतानो स्वभाव छे, तेनी श्रद्धा करवी ए निर्मळ बुद्धिमान जीवोनुं कर्तव्य छे. तारा
भवरहित