Atmadharma magazine - Ank 050
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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: मागसर : २४७४ : आत्मधर्म : २१ :
हे भव्य, आटलुं तो जरूर करजे! : [दर्शनप्राभृत उपरना प्रवचनोमांथी] :
आचार्यदेव सम्यग्दर्शन उपर खास भार मूकीने कहे छे के हे भाई, ताराथी विशेष न थाय तो पण
ओछामां ओछुं तुं सम्यग्दर्शन तो अवश्य राखजे. जो एनाथी तुं भ्रष्ट थईश तो कोई रीते तारुं कल्याण थवानुं
नथी. चारित्र करतां सम्यग्दर्शनमां अल्प पुरुषार्थ छे, माटे तुं ए सम्यग्दर्शन तो अवश्य करजे. सम्यग्दर्शननो
एवो स्वभाव छे के जे जीव तेने धारण करे ते जीव क्रमे क्रमे शुद्धता वधारीने अल्पकाळे मुक्तदशा प्रगट करे छे,
जीवने ते लांबो काळ संसारमां रहेवा देतुं नथी. आत्मकल्याणनुं मूळ कारण सम्यग्दर्शन छे. सम्यग्दर्शन–ज्ञान
चारित्रनी एकता ते पूर्ण मोक्षमार्ग छे. हे भाई, जो ताराथी सम्यग्दर्शनपूर्वक राग छोडीने चारित्रदशा प्रगट
थई शके तो तो ते उत्तम छे, अने ए ज करवा योग्य छे; पण जो ताराथी चारित्रदशा प्रगट न थई शके तो
छेवटमां छेवट आत्मस्वभावनी यथार्थ श्रद्धा तो जरूर करजे. ए श्रद्धा मात्रथी पण अवश्य तारुं कल्याण थशे.
सम्यग्दर्शनमात्रथी पण तारुं आराधकपणुं चालु रहेशे. वीतरागदेवे कहेला व्यवहारनी लागणी ऊठे तेने
पण बंधन मानजे. पर्यायमां राग थाय छतां एक प्रतीत राखजे के राग मारो स्वभाव नथी अने ए राग वडे
मने धर्म नथी. आम रागरहित स्वभावनी श्रद्धापूर्वक जो रागरहित चारित्रदशा थई शके तो तो ते प्रगट करीने
स्वरूपमां ठरी जजे; पण जो तेम न थई शके अने राग रही जाय तो ते रागने मोक्षनो हेतु न मानीश, रागथी
भिन्न तारा चैतन्यस्वभावनी श्रद्धा राखजे.
कोई एम माने के पर्यायमां राग होय त्यां सुधी रागरहित स्वभावनी श्रद्धा केम थई शके? पहेलां राग
टळी जाय पछी रागरहित स्वभावनी श्रद्धा थाय. ए रीते जे जीव रागने ज पोतानुं स्वरूप मानीने सम्यक्श्रद्धा
पण करतो नथी तेने आचार्यभगवान कहे छे के हे जीव! तुं पर्यायद्रष्टि रागने तारुं स्वरूप मानी रह्यो छे. पण
पर्यायमां राग होवा छतां तुं पर्यायद्रष्टि छोडीने स्वभाव द्रष्टिथी जो तो तारा रागरहित स्वरूपनो तने अनुभव
थाय. जे वखते क्षणिक पर्यायमां राग छे ते वखते ज रागरहित त्रिकाळीस्वभाव छे, माटे पर्यायद्रष्टि छोडीने
तारा रागरहित स्वभावनी तुं प्रतीति राखजे. ए प्रतीतिना जोरे राग अल्पकाळे टळी जशे, पण ए प्रतीति
वगर राग कदी टळवानो नथी.
‘पहेलां राग टळी जाय तो हुं रागरहित स्वभावनी श्रद्धा करुं’–एम नहि, पण आचार्यदेव कहे छे के
पहेलां तुं रागरहितस्वभावनी श्रद्धा कर तो ते स्वभावनी एकाग्रतावडे राग टळे. ‘राग टळे तो श्रद्धा करुं
एटले के पर्याय सुधरे तो द्रव्यने मानुं’ एवी जेनी मान्यता छे ते जीव पर्यायद्रष्टि छे–पर्यायमूढ छे, तेने
स्वभावद्रष्टि नथी; अने ते ते मोक्षमार्गना क्रमने जाणतो नथी केमके ते सम्यक्श्रद्धा पहेलां सम्यक्चारित्र ईच्छे
छे. ‘रागरहित स्वभावनी प्रतीति करुं तो राग टळे’ एवा अभिप्रायमां द्रव्यद्रष्टि छे अने द्रव्यद्रष्टिना जोरे
पर्यायमां निर्मळता प्रगटे छे. मारो स्वभाव रागरहित छे एवा वीतरागी अभिप्रायपूर्वक (–स्वभावना लक्षे
अर्थात् द्रव्यद्रष्टिथी) जे परिणमन थयुं तेमां क्षणे क्षणे राग तूटतो जाय छे अने रागनो अल्पकाळे नाश थाय
छे; ए सम्यग्दर्शननो महिमा छे. पण जो पर्यायद्रष्टि ज राखीने पोताने रागवाळो मानी ल्ये तो राग टळे कई
रीते? ‘हुं रागी छुं’ एवा रागीपणाना अभिप्रायपूर्वक (–विकारना लक्षे अर्थात् पर्यायद्रष्टिथी) जे परिणमन
थाय तेमां तो रागनी ज उत्पत्ति थया करे, पण राग टळे नहि. तेथी पर्यायमां राग होवा छतां ते ज वखते
पर्यायद्रष्टि छोडीने स्वभावद्रष्टिथी राग–रहित चैतन्यस्वभावनी श्रद्धा करवानुं आचार्य भगवान जणावे छे;
अने ए ज मोक्षमार्गनो क्रम छे.
आत्मार्थिनुं पहेलुं कर्तव्य ए छे के, पर्यायमां राग न छूटी शके तोपण ‘मारुं स्वरूप रागरहित ज छे’
एवी श्रद्धा तो अवश्य करे. आचार्यदेव कहे छे के ताराथी चारित्र न थई शके तो श्रद्धामां गोटा वाळीश नहि.
तारा स्वभावने अन्यथा मानीश नहि.
हे जीव! तुं तारा स्वभावने तो स्वीकार, जेवो स्वभाव छे तेवो मान तो खरो. जेणे पूरा स्वभावने
स्वीकारीने सम्यग्दर्शनने जाळवी राख्युं छे ते जीव अल्पकाळे स्वभावना जोरे ज स्थिरता प्रगट करीने मुक्त थशे.
खास पंचमकाळना जीवो प्रत्ये आचार्यभगवान कहे छे के, आ दग्धपंचमकाळमां तुं शक्तिरहित हो
तोपण केवळ शुद्धात्मस्वरूपनुं श्रद्धान तो अवश्य करजे. आ पंचमकाळमां साक्षात् मुक्ति नथी पण भवभयनो
नाश करनार एवो पोतानो स्वभाव छे, तेनी श्रद्धा करवी ए निर्मळ बुद्धिमान जीवोनुं कर्तव्य छे. तारा
भवरहित