Atmadharma magazine - Ank 051
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 10 of 17

background image
श्र ष्टप्रस्त्र प्र
– उतारेलो टूंकसार –
: पोष : २४७४ : आत्मधर्म : ४१ :
: : अष्ट प्रभत : :
वर स. २४७२ वशख वद ९
[] म्त् : आ दर्शन प्राभृतनी बारमी गाथाना भावार्थमां जयचंद्रजी पंडिते
जणाव्युं छे के–जे जीव दर्शनभ्रष्ट छे ते मिथ्याद्रष्टि छे अने जे दर्शनना धारक छे ते सम्यग्द्रष्टि छे. जे पोते
मिथ्याद्रष्टि छे अने सम्यग्द्रष्टिओ द्वारा नमस्कार चाहे छे अथवा तो पोते सम्यग्द्रष्टिओने नमस्कार करतो नथी
ते जीव तीव्र मिथ्याद्रष्टि छे अने परभव विषे ते लूलो–मूंगो थाय छे, –कहेवानो आशय ए छे के ते एकेन्द्रिय
थाय छे, तेने पग के भाषा होती नथी तेथी परमार्थे ते लूलो–मूंगो छे; एवी रीते ते मिथ्याद्रष्टि जीव एकेंद्रिय
स्थावर थईने निगोदमां वास करे छे अने त्यां अनंतकाळ रहे छे; ते जीवने दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी प्राप्ति दुर्लभ
थई पडे छे. मिथ्यात्वनुं फळ निगोद ज कह्युं छे. आ पंचमकाळमां मिथ्यामतना आचार्य थईने लोकोद्वारा विनय,
पूजादिक चाहे छे ते जीवने त्रस राशिनो वखत पूरो थयो छे अने हवे एकेन्द्रिय थईने निगोदमां वास करशे–
एम आचार्य भगवान जणाववा मागे छे. एथी विरुद्ध कहीए तो जे जीव सम्यग्दर्शननी आराधना करे छे ते
जीवने संसारनो वखत पूरो थवा आव्यो छे अने ते अल्पकाळमां अतीन्द्रिय सिद्धदशा पामशे. –१२–
[] िथ्त् : तेरमी गाथामां कहे छे के–लज्जा, भय ईत्यादि कारणेजो दर्शनभ्रष्ट जीवनो
कोई विनय करे तो तेमां मिथ्यात्वनी अनुमोदना आवे छे. ज्यारे दर्शनभ्रष्टने भलो जाणीने वंदन करे त्यारे
पोते तो तेनाथी पण हलको थयो, तो पछी तेने बोधि कई रीते होय? अर्थात् न ज होय–एम जाणवुं.
–१३– वीर सं. २४७२ वैशाख वद ११
(गथ १४)
[] द्रव्स् र् ि . : जे आत्माना शुद्ध परिपूर्ण रागरहित
त्रिकाळी स्वभावने ओळखे ते जीवने आत्मानी पवित्र पूर्णदशा केवी होय अने तेनी साधकदशा केवी होय तथा
तेनी अंतर–बाह्य स्थिति केवी होय तेनी ओळखाण पण थाय ज. त्रिकाळी द्रव्यनी ओळखाण थाय अने
वर्तमान पर्यायनो विवेक न थाय एम बने ज नहि. जेने पर्यायना स्वरूपमां ज भूल होय तेने द्रव्यस्वरूपनी
समजणमां पण भूल होय ज.
[] ज्ञ ि िथ्द्रिष्ट ? : आत्मानो त्रिकाळी स्वभाव तो
ज्ञानस्वरूप छे, तेमां राग छे ज नहि, अने तेनी परिपूर्ण केवळदशामां पण रागनो अभाव ज होय छे, तेथी ते
दशामां वर्तता जीवने अशन
[–कवलाहार] रोग, दवा ईत्यादि रागनां निमित्तो पण होतां नथी. पूर्ण
केवळज्ञानदशामां वर्तता जीवने पण जे ए आहारादि माने छे, ते पूर्ण दशाने पण राग सहित माने छे. तेथी
तेने पूर्ण पवित्र दशाना स्वरूपनी खबर नथी. जेने आत्मानी एक पूर्णदशानुं पण भान नथी. तेने आत्माना
त्रिकाळी पूरा स्वभावनुं भान होय ज नहि, तेथी ते मिथ्याद्रष्टि छे.
[] ि स्त्रि िथ्द्रिष्ट ? : वळी आत्मानी पूर्ण परमात्मदशानी
साधकरूप मुनिदशा छे. वीतरागतानी साधक होवाथी ते दशामां तीव्र राग होय ज नहि. अशरीरी सिद्धदशानी
साधक–रूप अवस्थामां शरीर उपर तीव्र राग होई शके ज नहि; अने तीव्र रागना अभावमां वस्त्र, पात्र
ईत्यादि तीव्र रागनां निमित्तो पण अवश्य टळी ज जाय छे. आ रीते जे जीवने मुनिदशा प्रगटी होय ते जीवने
वस्त्रादिनो राग के तेनो संयोग होय नहि. वस्त्रादिनो तीव्र राग होवा छतां तेने जेओ मुनिदशा माने छे तेओ
पवित्र साधक मुनिदशाना स्वरूपने जाणता नथी. साधकदशाना स्वरूपने जेओ नथी जाणता तेओ साध्यदशाना
स्वरूपने जाणता नथी अने त्रिकाळ आत्मस्वभावने पण तेओ जाणता नथी. आचार्य भगवान कहे छे के एवा
जीवोने धर्मात्मा तरीके जेओ माने अने तेमने वंदे तेओ तीव्र मिथ्याद्रष्टि छे.
[] रु त्त् . : जेणे देव–गुरुना स्वरूपने
विपरीत मान्युं तेनी तत्त्वश्रद्धा ज विपरीत छे. देवपणुं अने गुरुपणुं ते तो