मिथ्याद्रष्टि छे अने सम्यग्द्रष्टिओ द्वारा नमस्कार चाहे छे अथवा तो पोते सम्यग्द्रष्टिओने नमस्कार करतो नथी
ते जीव तीव्र मिथ्याद्रष्टि छे अने परभव विषे ते लूलो–मूंगो थाय छे, –कहेवानो आशय ए छे के ते एकेन्द्रिय
थाय छे, तेने पग के भाषा होती नथी तेथी परमार्थे ते लूलो–मूंगो छे; एवी रीते ते मिथ्याद्रष्टि जीव एकेंद्रिय
स्थावर थईने निगोदमां वास करे छे अने त्यां अनंतकाळ रहे छे; ते जीवने दर्शन–ज्ञान–चारित्रनी प्राप्ति दुर्लभ
थई पडे छे. मिथ्यात्वनुं फळ निगोद ज कह्युं छे. आ पंचमकाळमां मिथ्यामतना आचार्य थईने लोकोद्वारा विनय,
पूजादिक चाहे छे ते जीवने त्रस राशिनो वखत पूरो थयो छे अने हवे एकेन्द्रिय थईने निगोदमां वास करशे–
एम आचार्य भगवान जणाववा मागे छे. एथी विरुद्ध कहीए तो जे जीव सम्यग्दर्शननी आराधना करे छे ते
जीवने संसारनो वखत पूरो थवा आव्यो छे अने ते अल्पकाळमां अतीन्द्रिय सिद्धदशा पामशे. –१२–
पोते तो तेनाथी पण हलको थयो, तो पछी तेने बोधि कई रीते होय? अर्थात् न ज होय–एम जाणवुं.
तेनी अंतर–बाह्य स्थिति केवी होय तेनी ओळखाण पण थाय ज. त्रिकाळी द्रव्यनी ओळखाण थाय अने
वर्तमान पर्यायनो विवेक न थाय एम बने ज नहि. जेने पर्यायना स्वरूपमां ज भूल होय तेने द्रव्यस्वरूपनी
समजणमां पण भूल होय ज.
दशामां वर्तता जीवने अशन
तेने पूर्ण पवित्र दशाना स्वरूपनी खबर नथी. जेने आत्मानी एक पूर्णदशानुं पण भान नथी. तेने आत्माना
त्रिकाळी पूरा स्वभावनुं भान होय ज नहि, तेथी ते मिथ्याद्रष्टि छे.
साधक–रूप अवस्थामां शरीर उपर तीव्र राग होई शके ज नहि; अने तीव्र रागना अभावमां वस्त्र, पात्र
ईत्यादि तीव्र रागनां निमित्तो पण अवश्य टळी ज जाय छे. आ रीते जे जीवने मुनिदशा प्रगटी होय ते जीवने
वस्त्रादिनो राग के तेनो संयोग होय नहि. वस्त्रादिनो तीव्र राग होवा छतां तेने जेओ मुनिदशा माने छे तेओ
पवित्र साधक मुनिदशाना स्वरूपने जाणता नथी. साधकदशाना स्वरूपने जेओ नथी जाणता तेओ साध्यदशाना
स्वरूपने जाणता नथी अने त्रिकाळ आत्मस्वभावने पण तेओ जाणता नथी. आचार्य भगवान कहे छे के एवा
जीवोने धर्मात्मा तरीके जेओ माने अने तेमने वंदे तेओ तीव्र मिथ्याद्रष्टि छे.