: ४० : आत्मधर्म : पोष : २४७४ :
जेम कुदेव–कुगुरु–कुशास्त्रनी श्रद्धा अने सुदेवादिनी श्रद्धा–ए बंने मिथ्यात्व छे, छतां कुदेवादिनी श्रद्धामां
तीव्र मिथ्यात्व छे, ने सुदेवादिनी श्रद्धामां मंद छे एवी रीते अहीं पण समजवुं. बे जीवो शुभभाव करे छे,
तेमांथी एक जीव पोतानी पर्यायने स्वतंत्र मानतो नथी अने बीजो जीव शास्त्रादिना ज्ञानथी पर्यायनी
स्वतंत्रता माने छे, तेमां पहेला जीवने व्यवहार ज्ञान पण चोकखुं नथी, बीजा जीवने व्यवहार ज्ञान छे. आ
अपेक्षाए बंनेना पुरुषार्थमां फेर समजवो. परमार्थथी तो बंने सरखा छे.
पहेलांं पर्यायने स्वतंत्र समज्या वगर त्रिकाळी स्वभावमां ढळशे कोण? व्यवहार श्रद्धा मोक्षमार्ग नथी,
पण पर्यायनी स्वतंत्रतानुं ज्ञान पोताना शुद्ध चैतन्य स्वभाव तरफ वळवा माटे प्रयोजनभूत छे. वर्तमान
पर्यायनी स्वतंत्रता नथी मानतो ते सर्व विभाव रहित चैतन्यने केम मानशे? रागनी स्वतंत्रता नथी मानतो
ते रागरहित स्वभाव मानशे नहि.
अहीं तो ए बताव्युं के मात्र कषायनी मंदतामां घणा जीवो लागी जाय छे, पण तेमने व्यवहार श्रद्धाय
होती नथी, तेमने मिथ्यात्वनो रस यथार्थमंद थतो नथी, जे जीव पर्यायनी स्वतंत्रता माने छे ते जीवने कषायनी
मंदता तो सहज होय ज छे पण ते मोक्षमार्ग नथी. ज्यारे पोताना स्वभावने स्वथी परिपूर्ण अने सर्व
विभावोथी शून्य माने अने पर्यायनुं लक्ष गौण करी, धु्रव चैतन्य स्वभावनो आश्रय ले त्यारे स्वभावनी
श्रद्धाथी ज सम्यग्दर्शन थाय छे.
अत्यारे जोवामां आवता त्यागीओ के व्रतधारीओनी व्यवहार श्रद्धा पण साची नथी; पोताना परिणाम
स्वतंत्र छे एम जे जाणता नथी, तेमने तो दर्शन शुद्धिनो व्यवहार पण साचो नथी–मिथ्यात्वनी मंदता पण
खरेखर नथी. वस्तुनुं स्वरूप ज एवुं छे, ते कोईनी अपेक्षा राखतुं नथी. त्यागादिना शुभपरिणामवडे
वस्तुस्वरूप साधी शकाय तेवुं नथी.
त्रिकाळी स्वभाव स्वतंत्र छे, तेनो अंश पण स्वतंत्र छे; मारा त्रिकाळी स्वभावमां रागादि परिणाम
नथी एम स्वभावद्रष्टि करीने पर्याय बुद्धि छोडे त्यारे ज सम्यग्दर्शन थाय छे, अने त्यारे ज मोक्षमार्ग छे.
द्रव्यलिंगी जीव पर्यायने तो स्वतंत्र माने छे पण पर्यायबुद्धि छोडतो नथी, त्रिकाळी स्वभावनो आश्रय करतो
नथी तेथी तेने मिथ्यात्व रहे छे. ते जीव शास्त्रना लखाणथी बधुं माने छे, पण स्वमां आवतो नथी. पर लक्षे
पर्यायनी स्वतंत्रता माने छे, पण खरेखर स्वभावमां रागादि पण नथी एवी श्रद्धा वगर अंशनी स्वतंत्रता
पण परमार्थे मानी कहेवाय नहि.
‘कर्मो विकार करावे अथवा तो निमित्तने आधीन थईने विकार करवो पडे’ ईत्यादि प्रकारे जेणे पर्यायने
ज पराधीन मानी छे ते जीवे तो उपादान–निमित्तने एकमेक मान्या छे. अने निमित्तने लीधे पोतानी पर्याय न
माने पण स्वतंत्र छे एम माने–परंतु–पर्यायमां जे विकार थाय तेने स्वरूप मानीने अटके तो पण मिथ्यात्व छे.
चैतन्य स्वभावमां तेनो अभाव छे–एम श्रद्धा करे त्यारे मिथ्यात्वनो अभाव थाय छे.
परद्रव्योनी क्रियाथी पोताना परिणाम थाय छे एम माने तेने मंद कषाय होवा छतां मिथ्यात्वनो रस
खरेखर मंद पडतो नथी, अने शास्त्रज्ञान पण साचुं होतुं नथी.
पर द्रव्यने लीधे मारी पर्याय थती नथी, मारी पर्याय स्वतंत्र माराथी थाय छे–एम पर्यायनी स्वतंत्रता
माने त्यारे मिथ्यात्वनो रस मंद पडे छे, अने शास्त्रज्ञान साचुं थाय छे, तेने व्यवहार–श्रद्धा–ज्ञान कहेवाय छे;
त्यां कषायनी मंदता होय ज छे. परंतु हजी पर्यायद्रष्टि छे तेथी सम्यग्दर्शन थतुं नथी.
त्रिकाळी चैतन्यस्वभाव छे ते अंश जेटलो (पर्याय जेटलो) नथी, स्वभावथी पूरो अने विभावथी
रहित छे एवी श्रद्धा ते ज सम्यग्दर्शन छे, ते अपूर्व पुरुषार्थ छे, अने ते ज मोक्षमार्ग छे. मंदकषायनो पुरुषार्थ ते
कांई अपूर्व नथी, ते तो जीवे अनंतवार करेल छे, तेथी ते तो शीखव्या वगर पण जीव करे छे, ए कांई नवुं
शीखवाडवुं पडे तेम नथी. परंतु जीवे सम्यग्दर्शन–अने सम्यग्ज्ञाननो प्रयत्न कदी कर्यो नथी, तेथी ते ज अपूर्व
छे, अने ए ज कल्याणनुं कारण छे.
श्रद्धा अने ज्ञाननो व्यवहार तो जीवोए अनंतवार सुधार्यो छे, छतां निश्चय–श्रद्धा–ज्ञानना अभावने
लीधे तेनुं हित थयुं नथी. मोटा भागना लोको धर्मना नामे बाह्य क्रियाकांडमां ज अटकी पड्या छे अने तेमने
व्यवहार श्रद्धा–ज्ञान पण साचां होतां नथी तेथी अहीं यथार्थ समजाव्युं छे के–व्रत–पडिमा के दया–दानादिनां
शुभपरिणाम ते कांई व्यवहार श्रद्धा–ज्ञाननो उपाय नथी. व्यवहार श्रद्धा–ज्ञान केम थाय अने सम्यग्दर्शन–
सम्यग्ज्ञान केम प्रगटे ते अहीं समजाव्युं छे. • •