Atmadharma magazine - Ank 051
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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: ४४ : आत्मधर्म : पोष : २४७४ :
: : केटलाक खुलासा : :
[संपादकीय]
(१) त्याग ते धर्म छे के नहि ए संबंधी
प्रश्न:– त्याग ते जैनधर्म छे के नथी?
उत्तर:– सम्यग्दर्शन पूर्वकनो जेटले अंशे वीतराग–भाव प्रगटे तेटले अंशे कषायोनो त्याग थाय छे तेने
धर्म कहेवाय छे. सम्यग्दर्शनादि अस्तिरूप धर्म छे अने त्यां मिथ्यात्व अने कषायनो त्याग ते नास्तिरूप धर्म छे
पण सम्यग्दर्शन विनाना त्यागथी धर्म नथी; जो मंद–कषाय होय तो पुण्य थाय.
मिथ्याद्रष्टिने सम्यक्श्रुतज्ञान होतुं ज नथी तेथी तेने नय होय ज नहि. श्री पंचास्तिकायनी गा. १६८
उपरनी जयसेनाचार्यकृत टीकामां कह्युं छे के–मिथ्याद्रष्टिनो शुभराग समस्त अनर्थनुं परंपरा कारण छे. माटे
मिथ्याद्रष्टिनो शुभराग धर्म के धर्मनुं परंपरा कारण थई शकतो नथी.
मिथ्याद्रष्टि के सम्यग्द्रष्टि कोईने शुभभाव ते धर्म नथी, पण सम्यग्द्रष्टिने अभिप्रायमां ते रागनो नकार
वर्ते छे तेथी उपचारथी तेने व्यवहार धर्म कह्यो छे. आ संबंधमां नय–विभाग लक्षमां राखी ‘आत्मधर्ममां’
नीचे मुजब कह्युं छे–
‘निश्चयधर्म तो आत्माना निर्विकार स्वभावने ओळखीने स्थिर थई जवुं ते छे परंतु ज्यारे संपूर्ण
स्थिरता न थई शके त्यारे कुदेवादि तरफना अशुभ पाप भावथी बचवा भक्ति आदिनो शुभराग आवे छे, अने
ज्ञानीने अभिप्रायमां ते रागनो नकार वर्ते छे तेथी तेने उपचारथी व्यवहारधर्म कह्यो छे. परंतु जेणे ते रागमां ज
धर्म मानी लीधो छे अने रागने ज आदरणीय मान्यो छे तेने धर्म तो नथी परंतु पोताना वीतरागस्वभावना
अनादररूप मिथ्यात्वनुं अनंतु पाप क्षणे क्षणे ऊंधी मान्यताने लीधे थाय छे. रागने पोतानो धर्म मानवो ते
पोताना वीतरागस्वरूपनो अनादर छे, ते महान पाप छे. परनी क्रिया हुं करी शकुं के पुण्यथी मारा स्वभावने
लाभ थाय एम जे माने छे ते मिथ्याद्रष्टि छे; ते क्रियाकांड करीने के त्याग करीने मरी जाय तो पण साधु नथी,
त्यागी नथी, श्रावक नथी, जैन नथी’
[जुओ गुजराती आत्मधर्म अंक: २४: पृष्ट: १९५]
वळी ते ज लेखमां ‘साची श्रद्धा वगरना त्यागथी धर्मीपणुं नथी’ एवा मथाळा नीचे जणाव्युं छे के–
‘आत्मानी श्रद्धा वगर कोई बाह्य त्यागी थाय अने एक परमाणु मात्रनो फेरफार पण माराथी थाय एम जो
माने तो, जैननो साधु कहेवातो होय तोपण, ते मिथ्याद्रष्टि छे–अज्ञानी छे–जैन नथी. शरीरने हुं चलावी शकुं
एम मान्युं तेणे जीव अने शरीरने एक मान्या, ते जैनमतनी बहार छे.’
(जुओ गुजराती आत्मधर्म अंक २४ पृष्ट १९५)
ज्यां सम्यग्दर्शन–ज्ञान होय त्यां अनंतानुबंधी आदि कषायोनो साचो त्याग अने वैराग्य
गुणस्थानानुसार होय ज छे, अने ए त्याग ते धर्म छे. पण सम्यग्दर्शन वगरनो त्याग कोई नये धर्म नथी.
केमके सम्यग्दर्शन वगर साचो त्याग होतो ज नथी आ कारणे मिथ्याद्रष्टिने नय–विभाग होई शके नहि. आ
कथननो अर्थ एवो नथी के शुभभाव छोडीने अशुभभाव करवा. पण जे शुभभाव थाय छे ते धर्म नथी पण जे
वीतरागभाव छे ते धर्म छे–एवी मान्यता करवी–ते आ कथननुं प्रयोजन छे–एटले के अहीं पहेलांं मान्यता
फेरववानी वात छे.
सम्यग्दर्शन–ज्ञान विना सागार के अणगार एके धर्म होतो नथी. सम्यग्दर्शन तो चोथा गुणस्थानथी
होय छे अने सागार धर्म पांचमा गुणस्थाने तथा अणगार धर्म छठ्ठा गुणस्थानथी होय छे.
(२) क्रोधादि पण पारिणामिकभावे होवा संबंधी
प्रश्न:– क्रोधादि भावोने पारिणामिकभाव कहेवा माटे कोई शास्त्राधार छे?
उत्तर:– क्रोधादि भावो कई अपेक्षाए पारिणामिक छे अने कई अपेक्षाए औदयिक छे ते गुजराती
आत्मधर्म अंक ३६ पृष्ट २२० मां स्पष्ट जणाव्युं छे.
क्रोधादि विकारीभावो पारिणामिक भावे छे–एम श्री जयधवला पृ. ३१९ मां तथा श्रीधवला भाग–५–पृ.
१९७ मां कह्युं छे. अने कर्मना उदयनी अपेक्षानुं ज्ञान कराववा माटे ते क्रोधादिकने औदयिकभावे कहेवामां
आव्या छे. आ अपेक्षाए श्रीतत्त्वार्थसूत्रमां तेने औदयिकभाव कह्या छे. आ प्रमाणे जुदी जुदी अपेक्षाए जीवना
विकारी भावने पारिणामिक तथा औदयिक बंने प्रकारे कहेवाय छे–एम समजवुं. विकारीभावो जीवनी पोतानी
योग्यताथी थाय छे, निश्चयथी कोई पर तेनुं कारण नहि