Atmadharma magazine - Ank 051
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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: पोष : २४७४ : आत्मधर्म : ४५ :
होवाथी ते निष्कारण छे, अने तेथी ते पारिणामिक छे. अने व्यवहारथी कर्मना उदयने तेनुं कारण मानीने तेने
औदयिकभाव कहेवामां आवे छे.
(३) पर्यायने उपादान कहेवा संबंधी
प्रश्न:– द्रव्य ज उपादान कारण होई शके, पर्याय नहि ए मान्यता बराबर छे?
उत्तर:– पर्याय उपादान कारण न होय पण द्रव्य ज उपादान कारण होई शके–ए मान्यता बराबर नथी.
द्रव्यार्थिकनयथी उपादान कारण द्रव्य छे ए वात बराबर छे, केमके दरेक पर्याय द्रव्य अने गुणनुं ज परिणमन
छे. ते एटलुं बतावे छे के आ पर्याय आ द्रव्यनो छे. द्रष्टांत:– माटीमां घडो थवानी सदा लायकात छे एम
बताववुं ते द्रव्यार्थिकनये छे, एटले के माटीनो घडो माटीमांथी ज थई शके, बीजा द्रव्यमांथी न थई शके. पण
पर्यायार्थिकनये एटले के ज्यारे पर्यायनी योग्यता बताववी होय त्यारे दरेक समयनी पर्यायनी योग्यता ते
उपादान कारण छे अने ते पर्याय पोते कार्य छे. सूक्ष्मताथी विचार करवामां आवे तो कारण–कार्य एक ज समये
होय छे. (जुओ तत्त्वार्थसार मोक्ष अधिकार गाथा ३५ तथा तेनो अर्थ पृ. ४०७) आनो अर्थ एवो छे के दरेक
समये दरेक द्रव्यमां एक ज पर्याय थवानी लायकात होय छे, पण तेनी पहेलांंना समयनी के पछीनी पर्यायमां ते
लायकात होती नथी. आ कथन पर्यायार्थिकनये समजवुं.
आ संबंधमां श्री प्रवचनसार अ. २ गा. ७ नी श्रीअमृतचंद्राचार्यकृत टीका घणी उपयोगी छे, ते अहीं
वांचवी. तेमां छेल्ली चार लीटी (पृ. १३५–६) अभ्यास करवा योग्य छे. तेमां लख्युं छे के– ‘तथैव हि
परिगृहीतनित्यवृत्तिनिवर्तमाने द्रव्ये समस्तेष्वपि स्वावसरेषूच्चकासत्सु परिणामेषूत्तरोत्तरेष्ववसरेषूत्त–
रोत्तरपरिणामानुदयनात्पूर्व पूर्व–परिणामानामनुदयनात् सर्वत्रापि परस्परानुस्यूतिस्त्रकस्य प्रवाहस्याव–
स्थानात्त्रैलक्षण्यं प्रसिद्धिमवतरति।।
’ तेनो गुजराती अर्थ आ प्रमाणे छे (गुजराती प्रव. पा. १६६) :–
‘जेणे नित्यवृत्ति ग्रहण करेली छे एवा रचाता (परिणमता) द्रव्यने विषे, पोतपोताना अवसरोमां प्रकाशता
(प्रगटता) समस्त परिणामोमां, पछी पछीना अवसरोए पछी पछीना परिणामो प्रगट थता होवाथी अने
पहेलांं पहेलांंना परिणामो नहि प्रगट थता होवाथी तथा बधेय परस्पर अनुस्यूति रचनारो प्रवाह अवस्थित
(–टकतो) होवाथी त्रिलक्षणपणुं प्रसिद्धि पामे छे.’
वळी श्रीप्रवचनसार अ. १ गा. ८ नी संस्कृत टीकामां १० मा पाने श्रीजयसेनाचार्ये कह्युं छे के–‘तच्च
पुनरूपादानकारणं शुद्धाशुद्धभेदेन द्विधा। रागादिविकल्परहित स्वसंवेदनज्ञान–मागमभाषया शुक्लध्यानं वा
केवलज्ञानोत्पत्तौ शुद्धोपादानकारणं भवति। अशुद्धात्मा तु रागादिना अशुध्धनिश्चयेनाशुद्धोपादानकारणं
भवतीति सूत्रार्थः।।
’ तेनो अर्थ आ प्रमाणे छे– ‘वळी ते उपादान कारण पण शुद्ध अने अशुद्ध एवा बे
प्रकारना छे. रागादि विकल्प रहित स्वसंवेदनज्ञान अथवा आगम भाषामां शुक्लध्यान ते केवळज्ञान उत्पत्तिनुं
शुद्ध उपादान कारण छे. अने रागादिरूपे परिणमतो अशुद्ध आत्मा अशुद्ध निश्चयथी अशुद्ध उपादान कारण छे. आ
प्रमाणे सूत्रार्थ छे. ’ अहीं शुद्ध–पर्यायने तथा अशुद्धपर्यायने बंनेने उपादान कारण कह्यां छे.
वळी श्री समयसार गा. १०२ नी टीकामां श्रीजयसेना–चार्य कहे छे के (पृ. १६७–८) – ‘हे भगवन्
रागादिनामशुद्धोपादानरूपेण कर्तृत्वं भणितं तदुपादानं शुद्धाशुद्धभेदेन कथं द्विधा भवतीति। तत्कथ्यते–
औपाधिकमुपादानम–शुद्धम् तप्तायःपिंडवत्, निरूपाधिरूपमुपादानं शुद्धं पीतत्वादिगुणानां सुवर्णवत्
अनंतज्ञानादिगुणानां सिद्धजीववत् उष्णत्वादि गुणानामग्निवत्। इदं व्याख्यानमुपादानकारण–व्याख्यानकाले
शुद्धाशुद्धोपादानरूपेण सर्वत्र स्मरणीयमिति भावार्थः।
’ तेनो गुजराती भावार्थ आ प्रमाणे छे– ‘अहीं शिष्य
पूछे छे के हे भगवान! जीवने रागादिनो कर्ता अशुद्ध उपादानरूपे कह्यो तो उपादान शुद्ध अने अशुद्ध एवा भेदथी
बे प्रकारनुं कई रीते छे? श्रीगुरु तेनुं समाधान करे छे के–तपेला लोढाना गोळानी जेम जे औपाधिकउपादान छे ते
अशुद्ध उपादान छे. अने जेम सोनामां पीळाश वगेरे गुणो छे, जेम सिद्ध जीवमां अनंतज्ञान वगेरे गुणो छे तथा
जेम अग्निमां उष्णता वगेरे गुणो छे तेम जे निरूपाधिभावरूप उपादान छे ते शुद्धउपादान छे. उपादान कारणनी
व्याख्या वखते शुद्ध अने अशुद्ध उपादानरूपे आ व्याख्यान बधी जगाए याद करवुं. आ भावार्थ छे.’
अहीं आचार्यदेवे शुद्ध अने अशुद्धपर्यायने उपादान–कारण कह्युं छे, अने सर्व जग्याए एम समजवानी
भलामण पण करी छे.
वळी ए ज प्रमाणे शुद्धउपादान अने अशुद्धउपादान–कारणनी व्याख्या समयसार गा. ८०–८१–८२ नी
टीकामां पण तेओश्रीए करी छे, त्यांथी समजी लेवुं.