: परमत्म प्रकश गथ ५३ ५र :
परम पूज्य श्री कानजी स्वामीनुं
– प्रवचन –
: ३८ : आत्मधर्म : पोष : २४७४ :
निश्चय श्रद्धाज्ञान केम प्रगटे?
आसो सुद २ : वीर सं. २४७३
दया पाळवाना परिणामवाळा घणा जीवो होय, छतां तेओ शास्त्रना साचा अर्थ समजी शकता नथी;
माटे दयारूप परिणाम ते शास्त्र समजवानुं कारण नथी. तेवी ज रीते मौन, सत्य बोलवुं अने ब्रह्मचर्य वगेरेना
परिणाम करे छतां शास्त्रना आशय समजी शकता नथी. एटले अहीं एम बताव्युं के आत्माना शुद्ध चैतन्य
स्वभावनो ज आश्रय सम्यग्ज्ञाननो उपाय छे; कोई मंद कषायरूप परिणाम ते सम्यग्ज्ञाननो उपाय नथी.
अत्यारे शुभपरिणाम करुं पछी सम्यग्ज्ञाननो उपाय थई जशे. ए मिथ्या मान्यता छे. अनंतवार
शुभपरिणाम करीने स्वर्गमां जनार जीव पण शास्त्रना तात्पर्यने समजी शक्या नहि. अने वर्तमानमां पण
एवा अनेक जीवो देखाय छे के शुभपरिणाम अने मंद कषाय तथा व्रत–पडिमा वर्षो सुधी होवा छतां शास्त्रना
साचा अर्थने जाणता नथी, एटले के तेमने ज्ञाननी व्यवहार शुद्धि पण नथी. हजी ज्ञाननी व्यवहार शुद्धि वगर
चारित्रनी व्यवहार शुद्धि करवा मथे छे, ते जीवो ज्ञानना पुरुषार्थने समज्या नथी.
तेमज दयादिना भावरूप मंदकषायथी ज्ञाननी व्यवहारशुद्धि पण थती नथी. अने ज्ञाननी व्यवहार–
शुद्धिथी आत्मज्ञान थतुं नथी. आत्माना आश्रये ज सम्यग्ज्ञान थाय छे, ए ज धर्म छे. ए धर्मनुं भान तो न
होय पण हजी व्यवहारज्ञान पण चोकखुं न होय–शास्त्रना साचा अर्थ पण न समजे ते जीवने सम्यग्ज्ञान थाय
नहि. दयादिरूप मंदकषायना परिणामथी व्यवहार ज्ञाननी पण शुद्धि थती नथी.
बहारनी क्रिया उपर परिणामनो आधार नथी. अनेक द्रव्यलिंगी मुनिओ साथे रहेता होय अने
बाह्यक्रिया तेमने सरखी थती होय छतां एक नवमी ग्रैवेयके जाय अने बीजा पहेला स्वर्गे जाय. केमके
परिणाममां कषायनी मंदता बाह्यक्रियाथी थती नथी.
हवे अंतरमां जे शुभपरिणाम करे तेनाथी व्यवहार–ज्ञाननी शुद्धि थती नथी, पण यथार्थ ज्ञानना
अभ्यासथी ज थाय छे.
ज्ञाननी व्यवहारशुद्धिथी पण आत्म स्वभावनुं सम्यग्ज्ञान थतुं नथी. पण पोताना परमात्म
स्वभावने रागरहितपणे अनुभवे त्यारे ज सम्यग्ज्ञान थाय छे; सम्यग्ज्ञानमां कोई पराश्रय नथी,
स्वभावनो ज आश्रय छे.
वस्तुस्वभाव ज स्वतंत्र छे, ने परिपूर्ण छे, तेने कोईना आश्रयनी जरूर नथी. स्वभावना ज आश्रये
सम्यक्दर्शन थाय छे. नवमी ग्रैवेयके जनार जीवने देव–गुरु–शास्त्रनी यथार्थ श्रद्धा–अगीआर अंगनुं ज्ञान–ने
पंचमहाव्रतनुं चोकखुं पालन–एवा परिणाम होवा छतां चैतन्य स्वभावनी श्रद्धा करवा माटे तेने ते परिणाम
काम आव्यां नहि. स्वभावना लक्ष पूर्वक मंदकषाय होय त्यां पण मंदकषायनी मुख्यता न रही, पण
शुद्धस्वभावना लक्षनी मुख्यता रही छे. स्वभावनी श्रद्धाने व्यवहार रत्नत्रयनी सहाय नथी.
कषायनी मंदतारूप आचरणवडे श्रद्धा–ज्ञाननो व्यवहार सुधरतो नथी. शास्त्रमां जड–चैतन्यनी
स्वाधीनता, उपादान–निमित्तनी स्वतंत्रता बतावी छे, ए समजे नहि तेने ज्ञाननो व्यवहार पण सुधर्यो नथी.
चैतन्यस्वभावनुं ज्ञान तो व्यवहार ज्ञानथी पण पार छे. आत्मज्ञान ते परमार्थ ज्ञान छे, अने शास्त्रना
आशयनुं यथार्थं ज्ञान ते ज्ञाननो व्यवहार छे. जेने ज्ञाननो व्यवहार पण खोटो छे तेने परमार्थ ज्ञान केवुं?
बाह्यक्रिया तो ज्ञाननुं कारण नथी, पण अंतरमां व्यवहार आचरणना मंदकषायरूप परिणाम होय ते
परिणाम पण शास्त्रना ज्ञाननुं कारण थतां नथी. अने स्वभावनुं ज्ञान तो ते शास्त्रज्ञानथी पण पार छे.
शास्त्र–ज्ञानना रागनुं अवलंबन तोडीने परमात्मस्वभावने अनुभवे छे ते वखते सम्यक्श्रद्धा थाय छे. जे
समये राग तोडीने परमात्मस्वभावने जाण्यो ते वखते ते जीवने परमात्मा ज उपादेय छे. आत्मा तो त्रिकाळ
परमात्मा ज छे, पण ज्यारे रागरहित थईने तेने जाणे त्यारे ते उपादेयरूप थाय छे. रागवडे ते जणातो नथी.
केटली भक्तिथी आत्मा समजाय? भक्तिथी आत्मा न समजाय. केटला उपवासथी आत्मा समजाय?
उपवासना