समजावे छे. टीका नीचे मुजब छे–
ज्ञानावरण अने दर्शनावरणनो प्रलय थयो होवाथी अधिक जेनुं केवळज्ञान अने केवळदर्शन नामनुं तेज छे–एवो
आ (स्वयंभू) आत्मा, समस्त मोहनीयना अभावने लीधे अत्यंत निर्विकार शुद्ध चैतन्यस्वभाववाळा आत्माने
अनुभवतो थको स्वयमेव (पोते ज) स्वपरप्रकाशतालक्षण ज्ञान अने अनाकुळतालक्षण सुख थईने परिणमे छे.
आ रीते आत्मानो, ज्ञान अने आनंद स्वभाव ज छे. अने स्वभाव तो परथी अनपेक्ष (–उदासीन, स्वतंत्र)
होवाथी ईन्द्रियो विना पण आत्माने ज्ञान अने आनंद होय छे.”
केवळज्ञान अने केवळदर्शनरूपी बे चक्षु बीडायेलां हतां ते चक्षुओ उघडी गयां. बधा आत्मामां केवळज्ञान,
केवळदर्शन, अनंत आनंद अने अनंत वीर्य ए स्वचतुष्टय शक्तिरूपे तो त्रिकाळ छे; पहेलांं तेनी श्रद्धा अने
एकाग्रता नहि होवाथी ते फूलनी कळीनी जेम संकोचायेला हता, ज्यारे ते शक्तिस्वभावनी श्रद्धा अने एकाग्रता
करी त्यारे ते संपूर्णपणे खीली गया, शक्तिमां हता ते परिणमनमां प्रगट थया. आवुं मंगळ वर्ष बेठुं ते बेठुं,
हवे फरीथी ते प्राप्त करवानुं रह्युं नहि. आत्मा कृतकृत्य थई गयो.
मंगळरूप छे. अने एवा आत्मस्वभावनी श्रद्धा ते पण शरूआतनुं महा मंगळ छे. शुद्धोपयोगना सामर्थ्यथी ज
आत्मा केवळज्ञान अने अतीन्द्रिय आनंदरूपे पोते स्वयमेव थई जाय छे. आमां कोईनी मदद नथी, राग के
विकल्पनुं आलंबन नथी, काळ नडतो नथी, गुरुकृपानी अपेक्षा नथी, कर्मनी अपेक्षा नथी, मनुष्यदेह के
महाविदेहक्षेत्रनी मदद नथी. बधायथी निरपेक्ष स्वयं पोते ज ज्ञान अने सुखरूप थाय छे. आत्मस्वरूपनी
प्रतीतिना जोरे शुद्धोपयोग थाय छे अने ए शुद्धोपयोगना सामर्थ्यथी आ दशा खीले छे. एकला चैतन्यना
घोलनरूप ज्ञानदशा एटले के आत्मामां ज रमणतारूपदशा, तेनाथी ज केवळज्ञान प्रगटे छे. कोई निमित्तथी
नहि–संयोगथी नहि, कर्मो खस्यां तेने लीधे नहि, पहेलांंनी मलिनदशा टळी तेने कारणे नहि, अने पहेलांंनी
अधूरी शुद्धदशाना कारणे पण नहि, मात्र शुद्धोपयोगना वर्तमान सामर्थ्यथी ज पोताना शुद्धचैतन्यस्वभावने
अनुभवतो थको आत्मा पोते ज ज्ञान अने सुखरूप परिणमे छे.
अने श्रद्धा करे त्यारथी शुद्धोपयोग शरू थाय छे. अने पछी तेमां ज संपूर्ण एकाग्रतारूप शुद्धोपयोग पूरो थतां
केवळज्ञान अने अतीन्द्रियसुख आत्मामां प्रगटे छे, ते ज मंगळ छे.
शुद्धपर्यायना सामर्थ्यथी केवळज्ञान प्रगटतुं नथी. शुद्धोपयोगनुं ज सामर्थ्य छे, ने तेनो आत्मा कर्ता छे, पण
जडकर्मना नाशनो कर्ता आत्मा नथी. शुद्धोपयोगे स्वद्रव्यनुं आलंबन लीधुं एटले के वर्तमान पर्याय स्वद्रव्यमां
ज लीन थयो, त्यां ते पर्याय पोते अतीन्द्रियज्ञान अने सुखरूपे परणमी गयो. पहेलांं आत्मस्वरूपनुं
सम्यक्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान हतुं त्यारे पण शुद्धोपयोगनी शरूआत थई गई हती. पण ते उपयोग संपूर्णपणे
स्वद्रव्यना अवलंबनमां टकतो न हतो पण कंईक परमां अटकतो हतो. हवे एकला स्वद्रव्यना अवलंबनवडे
उपयोगने परमांथी