Atmadharma magazine - Ank 052
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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: माह : २४७४ : आत्मधर्म : ५९ :
करीने निर्विघ्न खीलेली आत्मशक्तिवाळो थाय छे. शुद्धोपयोगना प्रसादथी ज आत्मा केवळज्ञान प्राप्त करे छे. –
एम पंदरमी गाथामां कह्युं छे.
() जी ज्ञ िन्द्र : शुद्धोपयोगना प्रभावथी जे ‘स्वयंभू’ थयो छे एवा आत्माने
ईन्द्रियो विना ज स्वयमेव ज्ञान अने सुख होय छे, ए वात आचार्यदेव सिद्ध करे छे. पहेलांं पोताना
आत्मस्वभावने ओळखीने, शुद्धोपयोगना सामर्थ्यथी, चार घातिकर्मोनो नाश थतां जे पोते ज ज्ञान अने
आनंदरूपे परिणमी गयो छे एवा जीवने पोताना ज्ञान अने आनंद माटे ईन्द्रियो वगेरे कोई पण पदार्थनी शुं जरूर
छे? जे पोते ज्ञान अने आनंदरूपे पोताना स्वभावथी ज थाय छे तेने तेमां कोई अन्य पदार्थोनी अपेक्षा नथी.
जेने ईन्द्रिय अने मन विद्यमान छे ते जीव पण तेमनाथी नथी जाणतो, पण पोते ज ज्ञानरूपे परिणमीने जाणे छे.
कषाय घटाडीने जे ज्ञान प्रगट्युं छे ते ज्ञानवडे ज जाणे छे. जेमने पांच ईन्द्रिय अने मन छे एवा बधा जीवोने
ज्ञान एक सरखुं थतुं नथी, पण तेमना ज्ञानमां फेर छे, केमके जीवने ईन्द्रिय तथा मनथी ज्ञान थतुं नथी परंतु
पोताना पर्यायमां पोते जे ज्ञानरूपे परिणमे छे तेनुं ज ज्ञान थाय छे. आ रीते जीवनुं ज्ञान परथी निरपेक्ष छे.
() जी िन्द्र : ज्ञाननी जेम सुख पण ईन्द्रियोथी थतुं नथी. सिद्ध भगवान
ईन्द्रियो विना ज स्वयमेव सुखरूपे परिणमे छे. जो ईन्द्रियोथी जीवने सुख थतुं होय तो जेने पांच ईन्द्रियो छे ते
बधाय जीवोने सुख एक सरखुं होवुं जोईए. पण तेम देखातुं नथी. ईन्द्रियो विद्यमान होवा छतां अज्ञानी जीवो
आकुळताथी दुःखी ज छे. सुखनुं लक्षण तो अनाकुळता छे. जेटला अंशे आकुळता टाळे छे तेटला अंशे सुख होय
छे. सिद्धभगवान पोताना स्वभावथी ज संपूर्ण सुखरूपे परिणमी रह्या छे; आत्मानो सुखस्वभाव ईन्द्रियोने
आधीन नथी.
(१२) असन्नभव्य अन अभव्य : – आवा अतीन्द्रयि ज्ञान अने सुखरूप आत्मा थई जाय ते ज
सुप्रभातमंगळ छे. अने एवा अतीन्द्रिय ज्ञान अने सुखस्वभावनी साची ओळखाण ते पण मंगळ छे. ६२ मी
गाथामां कह्युं छे के– ‘केवळी भगवानने ज पारमार्थिक (उत्कृष्ट) सुख होय छे’ एवुं वचन सांभळीने जेओ
हमणां ज स्वीकार करे छे तेओ शिवश्री (मोक्षलक्ष्मी) नां भाजन–आसन्नभव्यो छे, अने जेओ ते सांभळीने
स्वीकार करता नथी तेओ मोक्षसुखरूपी सुधापानथी दूरवर्ती अभव्यो छे. जेने ईन्द्रियविषयोनुं ज सुख भासे छे
अने ईन्द्रियरहित आत्मस्वभावनुं सुख भासतुं ज नथी–ते जीव आत्माना सुखस्वभावने ज मानतो नथी,
अने आत्माना स्वभावने ज नहि मानतो होवाथी तेने कदी मुक्ति थती नथी.
() स् त् िन्द्र : ‘स्वयंभू’ आत्माने शुद्धोपयोगना सामर्थ्यथी घातिकर्मो क्षय
पाम्यां छे–ए पहेलो बोल अहीं पूरो थयो. ‘स्वयंभू’ आत्मा केवो छे? ए संबंधी हवे बीजो बोल कहे छे.
‘क्षायोपशमिक ज्ञान–दर्शन साथे असंपृक्त (संपर्कविनानो) होवाथी जे अतीन्द्रिय थयो छे’ –एवो
‘स्वयंभू’ आत्मा छे. मति–श्रुत–अवधि अने मनःपर्यव–ए चार ज्ञान दशाने क्षायोपशमिक कहेवाय छे. ते चारे
ज्ञान अधूरा छे, अने तेमां ईन्द्रिय के मन निमित्तरूपे होय छे. परंतु ते क्षायोपशमिक ज्ञानो पण ईन्द्रिय वगेरेथी
जाणवानुं काम करता नथी, पण ज्ञानना प्रगटपणाथी ज जाणवानुं काम करे छे. तेवी ज रीते सुख पण
ईन्द्रियोथी थतुं नथी. अज्ञानी जीव ईन्द्रियोना विषयोनी ईच्छा करीने तेमां सुखनी कल्पना करे छे, ते सुखनी
कल्पना पण ईन्द्रियोथी थई नथी, पण अज्ञानी जीव पोते ते कल्पनारूपे परिणम्यो छे. अने ज्ञानी जीव पोताना
स्वभावथी ज सुखरूपे परिणमे छे. क्षायोपशमिक ज्ञानवाळा जीवने निमित्त तरीके ईन्द्रिय–मननुं अवलंबन छे,
एवी तेमना ज्ञाननी लायकात छे, परंतु केवळी भगवानने तो परिपूर्ण ज्ञानस्वभाव प्रगटी जतां
क्षायोपशमिकज्ञानरूप परिणमन ज रह्युं नथी. तेमने अधूरुं ज्ञान ज नहि होवाथी ईन्द्रिय–मननुं अवलंबन
निमित्त तरीके पण रह्युं नथी. क्षयोपशमज्ञान वखते ईन्द्रियादिने निमित्त कहेवातुं, पण पूर्ण ज्ञान थतां हवे तेने
निमित्त पण कहेवातुं नथी. शुद्धोपयोगना जोरे आत्मा पोते पूर्णज्ञानरूपे परिणमी गयो, त्यां अधूरा
(क्षायोपशमिक) ज्ञान साथेनो संबंध तूटी गयो, अने क्षायोपशमिकज्ञान वखते ईन्द्रियो–मन अने कर्मो साथे जे
निमित्तपणानो संबंध हतो ते पण तूटी गयो. केवळज्ञान ते स्वभावज्ञान छे, तेमां कर्मो के ईन्द्रिय–मन कोईनुं
निमित्त नथी.