केवळज्ञान न हतुं, अने केवळज्ञानरूपे परिणम्यो त्यारे क्षायोपशमिकज्ञान साथे संबंध न रह्यो. अधूरा ज्ञानदर्शन
वखते ईन्द्रिय वगेरे निमित्त हतां पण ज्यारे ते ज्ञान अने दर्शन स्वभावमां ज संपूर्ण एकाग्र थई गया त्यारे
अधूरा ज्ञान–दर्शन छूटी गया, ने ईन्द्रिय वगेरे निमित्त तरफनुं वलण पण सर्वथा छूटी गयुं, तेथी केवळज्ञान
अने केवळदर्शन अतीन्द्रिय छे, तेनो प्रकाश असाधारण छे.
ज्ञाननुं आचरण छे. अने पछी ते ज स्वभावमां उपयोगनी एकाग्रता करवी ते चारित्रनुं आचरण छे. आ
आचरणथी ज धर्म थाय छे; बीजा कोई धर्मनां आचरण नथी.
आववानुं नथी. आचार्य भगवान अस्ति–नास्ति बंने पडखांनुं कथन साथे ज करे छे. पहेलांं एम कह्युं के–
भगवान आत्मा पोताना शुद्धोपयोगमां लीन थयो त्यां कर्मोनो संबंध तूटयो. त्यां शुद्धोपयोगनी अस्ति अने
कर्मनी नास्ति बतावी. बीजा बोलमां कह्युं के अतीन्द्रियज्ञान–दर्शनरूपे परिणम्यो त्यां क्षायोपशमिकज्ञान–दर्शननो
संबंध तूटयो; एमां परिपूर्ण ज्ञान–दर्शननी अस्ति अने अधूरा ज्ञान–दर्शननी नास्ति बतावी. कथनमां क्रम पडे
छे पण एक ज समयना भावमां आ बधुं थई जाय छे.
ज्ञानमां भरोंसो थाय छे. जेना ज्ञानमां एवो भरोंसो थयो तेनुं ज्ञान विकारथी छूटीने स्वभावमां परिणमवा
लाग्युं एटले के ते जीव पोते केवळज्ञान अने मुक्ति तरफ परिणमवा मांडयो. आ ज धर्म छे. मारो स्वभाव
परथी जुदो छे, ने ईन्द्रिय वगर ज मारां ज्ञान अने सुख थाय छे–आम नक्की कर्युं त्यां स्वभाव तरफ वळवानुं
ज आचरण रह्युं, ने विकारथी पाछो फर्यो. आवी प्रतीतना भावो सहितनुं आ कथन छे. खरेखर पोताना जे
ज्ञानमां केवळीभगवाननी अने अतीन्द्रिय स्वभावनी ओळखाण अने प्रतीति थई ते ज्ञाननो महिमा छे.
समजाय तेने, ‘ईन्द्रियो–विकार के अपूर्णज्ञान मारुं स्वरूप नथी पण पूर्ण–निर्विकार ज्ञानस्वभाव ज हुं छुं’ एवी
सम्यक् प्रतीति थाय ज. ए रीते सम्यक्प्रतीति सहित अनुभव थतां आत्मा तरफनी जागृतिनो शुद्धोपयोग थाय
ज. ‘माराथी आ न थाय’ एम मानवुं नहि, बधा आत्माथी आ थई शके छे, ने आ ज करवा जेवुं छे, माटे
बराबर प्रयत्न करीने आ समजवुं.
तो पूर्णता नथी; ऊणा अने पूरा वच्चे केटलो विरह छे? तेनो जवाब–अरे भाई, विरह केवा! ऊणुं पोते ज्यां
पूरा स्वभावमां लीन थई गयुं त्यां ऊणा अने पूरा वच्चे आंतरो ज नथी. पहेला ज्यारे ऊणुं ज्ञान
पर्यायद्रष्टिमां ज अटकतुं त्यारे ऊणा अने पूरा वच्चे अंतर हतुं, पण हवे अपूर्णतानो ज निषेध करतुं–
पर्यायद्रष्टि छोडतुं ते पूरा स्वभावमां ज एकाग्र थई गयुं त्यां ऊणुं अने पूरुं अभेद थई गया, विरह तूटी गयो.
पर्यायद्रष्टिथी पूर्णता भासती न हती, पण स्वभावमां एकाग्र थईने द्रव्यद्रष्टिथी जोयुं त्यां पूर्णस्वभाव ज भासे
छे, अपूर्णता भासती नथी. अधूरीदशा ने पूरीदशा एवो भेद तो पर्याय अपेक्षाए छे, पण द्रव्यस्वभावनी
अपेक्षाए जुओ तो दरेक समये पूर्णता ज छे. आवा स्वभाव तरफना वलणमां केवळज्ञान साथेना विरह छे ज
क्यां? द्रव्यस्वभाव केवळज्ञानथी भरेलो छे. जो द्रव्यस्वभावना विरह होय तो केवळज्ञानना विरह होय.