Atmadharma magazine - Ank 052
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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: ६० : आत्मधर्म : माह : २४७४ :
आत्मा एक साथे बे अवस्थारूपे परिणमी शके नहि, तेथी ज्यारे क्षायोपशमिकज्ञानरूपे परिणमतो हतो त्यारे
केवळज्ञान न हतुं, अने केवळज्ञानरूपे परिणम्यो त्यारे क्षायोपशमिकज्ञान साथे संबंध न रह्यो. अधूरा ज्ञानदर्शन
वखते ईन्द्रिय वगेरे निमित्त हतां पण ज्यारे ते ज्ञान अने दर्शन स्वभावमां ज संपूर्ण एकाग्र थई गया त्यारे
अधूरा ज्ञान–दर्शन छूटी गया, ने ईन्द्रिय वगेरे निमित्त तरफनुं वलण पण सर्वथा छूटी गयुं, तेथी केवळज्ञान
अने केवळदर्शन अतीन्द्रिय छे, तेनो प्रकाश असाधारण छे.
() र् : अहा! जुओ–आ स्वभाव साथे संबंध जोडवानी अने पर साथेनो संबंध तोडवानी
रीत, एटले के धर्मनी रीत. जेवो पोतानो स्वभाव छे तेवो जाणीने श्रद्धा–ज्ञानमां स्वीकारवो ते ज दर्शन अने
ज्ञाननुं आचरण छे. अने पछी ते ज स्वभावमां उपयोगनी एकाग्रता करवी ते चारित्रनुं आचरण छे. आ
आचरणथी ज धर्म थाय छे; बीजा कोई धर्मनां आचरण नथी.
() र् िस् िस् : आ ३७ अक्षरमां केवळज्ञाननो कक्को रहेलो छे. आ गाथामां,
ज्ञान अने आनंदरूप जे आत्मस्वभाव बताव्यो छे तेमांथी ज केवळज्ञान प्रगट थवानुं छे, बीजे क्यांयथी
आववानुं नथी. आचार्य भगवान अस्ति–नास्ति बंने पडखांनुं कथन साथे ज करे छे. पहेलांं एम कह्युं के–
भगवान आत्मा पोताना शुद्धोपयोगमां लीन थयो त्यां कर्मोनो संबंध तूटयो. त्यां शुद्धोपयोगनी अस्ति अने
कर्मनी नास्ति बतावी. बीजा बोलमां कह्युं के अतीन्द्रियज्ञान–दर्शनरूपे परिणम्यो त्यां क्षायोपशमिकज्ञान–दर्शननो
संबंध तूटयो; एमां परिपूर्ण ज्ञान–दर्शननी अस्ति अने अधूरा ज्ञान–दर्शननी नास्ति बतावी. कथनमां क्रम पडे
छे पण एक ज समयना भावमां आ बधुं थई जाय छे.
() र् व्? : आ केवळीभगवानने माटेनी वात नथी; ‘केवळज्ञानदशा आवी छे,
अने शुद्धोपयोगना सामर्थ्यथी आ रीते ते थाय छे’ –एवो भरोंसो कोना ज्ञानमां थाय छे? जीवना पोताना
ज्ञानमां भरोंसो थाय छे. जेना ज्ञानमां एवो भरोंसो थयो तेनुं ज्ञान विकारथी छूटीने स्वभावमां परिणमवा
लाग्युं एटले के ते जीव पोते केवळज्ञान अने मुक्ति तरफ परिणमवा मांडयो. आ ज धर्म छे. मारो स्वभाव
परथी जुदो छे, ने ईन्द्रिय वगर ज मारां ज्ञान अने सुख थाय छे–आम नक्की कर्युं त्यां स्वभाव तरफ वळवानुं
ज आचरण रह्युं, ने विकारथी पाछो फर्यो. आवी प्रतीतना भावो सहितनुं आ कथन छे. खरेखर पोताना जे
ज्ञानमां केवळीभगवाननी अने अतीन्द्रिय स्वभावनी ओळखाण अने प्रतीति थई ते ज्ञाननो महिमा छे.
आत्मानी पूर्णदशामां अधूरा ज्ञान साथे संपर्क (संबंध) नथी, अने ईन्द्रियोनुं आलंबन नथी, त्यां
स्वभावथी ज अतीन्द्रिय ज्ञान अने सुखरूपे आत्मानुं परिणमन थई गयुं छे. –आवी स्वभावनी वात जेने
समजाय तेने, ‘ईन्द्रियो–विकार के अपूर्णज्ञान मारुं स्वरूप नथी पण पूर्ण–निर्विकार ज्ञानस्वभाव ज हुं छुं’ एवी
सम्यक् प्रतीति थाय ज. ए रीते सम्यक्प्रतीति सहित अनुभव थतां आत्मा तरफनी जागृतिनो शुद्धोपयोग थाय
ज. ‘माराथी आ न थाय’ एम मानवुं नहि, बधा आत्माथी आ थई शके छे, ने आ ज करवा जेवुं छे, माटे
बराबर प्रयत्न करीने आ समजवुं.
() च् ि? : पूर्ण स्वभावनो स्वीकार अने अपूर्णतानो नकार–एवी
सम्यक्प्रतीतिना जोरे शुद्धोपयोग थाय छे अने ए शुद्धोपयोगना जोरे केवळज्ञान थाय छे. कोई कहे के अत्यारे
तो पूर्णता नथी; ऊणा अने पूरा वच्चे केटलो विरह छे? तेनो जवाब–अरे भाई, विरह केवा! ऊणुं पोते ज्यां
पूरा स्वभावमां लीन थई गयुं त्यां ऊणा अने पूरा वच्चे आंतरो ज नथी. पहेला ज्यारे ऊणुं ज्ञान
पर्यायद्रष्टिमां ज अटकतुं त्यारे ऊणा अने पूरा वच्चे अंतर हतुं, पण हवे अपूर्णतानो ज निषेध करतुं–
पर्यायद्रष्टि छोडतुं ते पूरा स्वभावमां ज एकाग्र थई गयुं त्यां ऊणुं अने पूरुं अभेद थई गया, विरह तूटी गयो.
पर्यायद्रष्टिथी पूर्णता भासती न हती, पण स्वभावमां एकाग्र थईने द्रव्यद्रष्टिथी जोयुं त्यां पूर्णस्वभाव ज भासे
छे, अपूर्णता भासती नथी. अधूरीदशा ने पूरीदशा एवो भेद तो पर्याय अपेक्षाए छे, पण द्रव्यस्वभावनी
अपेक्षाए जुओ तो दरेक समये पूर्णता ज छे. आवा स्वभाव तरफना वलणमां केवळज्ञान साथेना विरह छे ज
क्यां? द्रव्यस्वभाव केवळज्ञानथी भरेलो छे. जो द्रव्यस्वभावना विरह होय तो केवळज्ञानना विरह होय.