: ६२ : आत्मधर्म : माह : २४७४ :
सिद्ध भगवानने जे ज्ञान अने आनंदनी रिद्धि प्रगटी ते रिद्धिनी अमने शीघ्र प्राप्ति होजो. ते ज अमारी खरी
रिद्धि छे. पूर्णदशाना परिपूर्ण आत्मसामर्थ्यने पोताना ज्ञानमां लईने साधकजीव भावना करे छे के–हुं कम्मर
बांधीने मोहनो नाश करवा तैयार थयो छुं. मारा स्वभावनी उग्रता वडे मोह–अस्थिरतानो नाश करीने
केवळज्ञान पामुं–एवो पुरुषार्थ मारामां भर्यो छे.
आ रीते पूर्णदशारूपी सुप्रभातमां अनंत उत्तमवीर्य प्रगटवानी वात करी. हवे केवळज्ञान अने
केवळदर्शन प्रगटवानी वात करे छे. ज्ञान, दर्शन, वीर्य अने आनंद ए अनंत चतुष्टय तो एक साथे ज प्रगटे छे,
तेना प्रगटवामां कांई क्रम नथी, परंतु कथनमां क्रम–आवे छे.
(२१) केवळज्ञान अने केवळदशर्नुं प्रगटवापणुं : – ‘समस्त ज्ञानावरण अने दर्शनावरणनो प्रलय थयो
होवाथी अधिक जेनुं केवळज्ञान अने केवळदर्शन नामनुं तेज छे–एवो आ (स्वयंभू) आत्मा स्वयमेव ज्ञान
अने सुख थईने परिणमे छे.’ ज्यां आत्माना ज्ञान अने दर्शन स्वभावमां लीन थईने पूर्ण शुद्धरूपे परिणम्या
त्यां कर्मनो प्रलय ज छे. जे त्रिकाळी शुद्धस्वभाव छे तेमां उपयोगनी एकाग्रताथी ज साधकदशा प्रगटीने
पूर्णता थाय छे. पर्यायमां जे कांई पवित्रता थाय छे ते पूर्णस्वभावना आश्रये ज थाय छे. एवा स्वभावनी
श्रद्धाज्ञान करी हती तेना फळमां, चैतन्यनुं जे सर्वथी अधिक केवळज्ञान अने केवळदर्शन रूपी तेज छे ते प्रगट
थयुं छे. जेम अंधकार टळीने सवारमां बे चक्षुओ खूली जाय छे तेम चैतन्यशक्तिनो संपूर्ण विकास थतां
अपूर्ण ज्ञाननो नाश थयो अने केवळज्ञान तथा केवळदर्शनरूपी बे चक्षुओ खूल्यां; तेनाथी आत्मस्वभावना
पूर्ण सामर्थ्यने प्रत्यक्ष जाणी लीधुं अने लोकालोकने पण प्रकाशी लीधां. हवे ज्ञान–दर्शनमां एक समयमात्रनी
ऊंघ रही नहि. जेनां ज्ञान अने दर्शनरूपी चक्षु संपूर्ण ऊघडी गयां तेने ज सुप्रभात छे. केवळज्ञान अने
दर्शननुं तेज अधिक छे उत्कृष्ट छे. मति–श्रुत–अवधि के मनःपर्यय ज्ञानथी के चक्षु–अचक्षु के अवधि दर्शनथी
एनुं तेज अनंतगुणुं छे. स्वयमेव आत्मा एकला ज्ञानदर्शनरूपे परिणमवा लाग्यो. ते अन्य सर्वथी निरपेक्ष
छे. जे जीव पोताना ज्ञान–दर्शन स्वभावने निरपेक्ष स्वीकारे छे–जाणे–छे अनुभवे छे तेने ज स्वाश्रयथी
ज्ञानदर्शननो विकास थईने पूर्णता प्रगटे छे.
(२) ईिन्द्रयो िवना ज्ञान अने अानंदनुं होवापणुं : – ए रीते उत्तमवीर्य तथा केवळज्ञान अने केवळदर्शन
प्रगटवानी वात करी; हवे सुखने पण साथे भेळवीने कहे छे. ‘–एवो ते स्वयंभू आत्मा, समस्त मोहनीयना
अभावने लीधे अत्यंत निर्विकार शुद्ध चैतन्यस्वभाववाळा आत्माने अनुभवतो थको स्वयमेव (पोते ज)
स्वपर प्रकाशकतालक्षण ज्ञान अने अनाकुळतालक्षण सुख थईने परिणमे छे. ’ पोताना शुद्धोपयोगना बळथी
स्वचतुष्टयरूप थयेलो आत्मा पोते ज्ञान अने आनंदस्वरूप ज थई गयो छे, पोतानुं स्वरूप ज ज्ञान अने
आनंद छे, तेमां शुं विघ्न होय? ईन्द्रियो विना ज आत्मामां ज्ञान अने सुखरूप परिणमन छे. ज्ञान अने आनंद
तो स्वभावमांथी प्रगटे छे, कांई ईन्द्रियोमांथी नथी प्रगटता. जे स्वभावमांथी ज्ञान अने आनंद प्रगटे छे ते
स्वभावनी जो स्वानुभवथी श्रद्धा करे तो ईन्द्रिय वगरना स्वाभाविक–सुखनो वर्तमान पोताने अनुभव थाय
अने ईन्द्रियोमांथी सुखबुद्धि टळी जाय. पूर्ण ज्ञान अने सुख माटेनो आ ज पहेलो उपाय छे. पोताना अतीन्द्रिय
स्वभावने जाण्या अने अनुभव्या वगर कदी पण ईन्द्रियोमांथी सुखबुद्धि टळे नहि एटले के मिथ्यात्व टळे नहि
अने धर्म थाय नहि, अने तेनो वैराग्य पण साचो होय नहि. सत् स्वभाव समजे तेने सहजपणे ईन्द्रिय
विषयो प्रत्ये खरेखरो वैराग्य होय छे. पोताना स्वभावमां ज ज्ञान अने आनंद छे तेने जे मानतो नथी तथा
अनुभवतो नथी अने बहारमांथी ईन्द्रियो वगेरे द्वारा ज्ञान–आनंद मेळववा मागे छे ते जीव मिथ्यात्वथी सदा
व्याकूळ रह्या करे छे. मारुं ज्ञान के सुख क्यांय बहारना अवलंबने थतुं नथी पण हुं पोते ज्ञान ने सुखरूपे थाउं
छुं–एम स्वभावनी सन्मुख थईने, शुद्धोपयोगथी ज्यां भगवान आत्मा पोतामां लीन थयो त्यां, अत्यंत
निर्विकार शुद्धचैतन्यभावने अनुभवतो थको ते आत्मा पोते ज ज्ञानरूप अने सुखरूप थई जाय छे. चक्षु वगेरे
ईन्द्रियो सारी होय अने स्पर्श–रस वगेरे पदार्थो सारा होय तेने लीधे कांई जीवने ज्ञान के सुख थतुं नथी, पण
शुद्धोपयोगवडे पोताना स्वरूपमां एकाग्रता करवाथी ज ज्ञान ने सुख थाय छे, ते वखते ईन्द्रियो तरफ के तेना
विषयो तरफ लक्ष पण होतुं नथी.
आत्मानो स्वभाव ज अत्यंत शुद्ध चैतन्यरूप छे; एवा पोताना आत्माना अनुभवथी ज्ञान अने सुख
थाय छे. ज्ञान केवुं छे? स्व–पर प्रकाशक छे. कोईनी पण मदद वगर आत्मा पोताना ज्ञानथी स्वयं स्वने अने
परने यथार्थपणे जाणे छे. अने सुख केवुं छे?