Atmadharma magazine - Ank 052
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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वर्ष पांचमुं : सळंग अंक : माह
अंक चोथो : ५२ : २४७४
पुरुषार्थ अने काळ
पंचमकाळ कठण छे–एम कहीने अज्ञानी जीवो आत्मस्वभावनी समजणनो पुरुषार्थ ज मांडी वाळे छे;
ज्ञानीओ तेने कहे छे के भाई रे, शुं काळ के कर्मो कांई तारुं कांडु पकडीने तने पुरुषार्थ करतां रोके छे? अर्थात् शुं तारी
स्वपर्यायने काळ के कर्मो रोके छे? नहि, ए तो परद्रव्यो छे, ते तारी पर्यायने रोकवा समर्थ नथी. माटे हे भाई! तुं
पराधीन द्रष्टि छोडीने तारा स्वभावना लक्षे पुरुषार्थ कर. पुरुषार्थवडे अवश्य मोक्षमार्गनी प्राप्ति थई शके छे.
आत्माना स्वतंत्र पुरुषार्थने नहि स्वीकारनारा जीवो एम माने छे के ‘पंचमकाळ छे माटे जीवोने
पुरुषार्थ न थई शके. ’ ए पराधीनद्रष्टि छे जेओ आत्माना स्वतंत्र पुरुषार्थने स्वीकारे छे अने स्वाधीनद्रष्टिथी
जोनारा छे तेओ एम जाणे छे के ‘अत्यारना जीवो पोते ज ओछा पुरुषार्थनी लायकातवाळा छे माटे पंचमकाळ
कहेवाय छे. ’ आमां एकनी द्रष्टि काळ उपर छे, बीजानी द्रष्टि आत्माना पुरुषार्थ उपर छे, ए मोटो द्रष्टिभेद छे.
खरी रीते काळ द्रव्यनी पर्याय तो त्रणे काळ एक सरखी ज छे, तेमां कोई भेद नथी; अने जीवनी
पर्यायमां तो ते मात्र निमित्त छे. जीवना भाव अनुसार काळद्रव्यनी पर्यायमां चोथो काळ के पंचमकाळ एम
उपचार करवामां आवे छे. पंचमकाळे भरतक्षेत्रमां जन्मेला जीवो मुक्ति न पामे एनो खरो अर्थ ए छे के ते ते
जीवोनी वर्तमान स्वपर्यायनी लायकात ज मुक्ति पामे एवी नथी अने तेथी ज काळने ते प्रकारनुं (मुक्तिनुं)
निमित्त कहेवातुं नथी. परंतु महाविदेहक्षेत्रना कोई मुनिने उपाडीने देवो अहीं मूकी जाय तो ते मुनि अहीं पण
मोक्ष पामी शके छे. आ ज भरतक्षेत्र अने आ ज पंचमकाळ होवा छतां ते जीव पोतानी स्वपर्यायनी
लायकातवडे मोक्ष पामी शके छे. जो जीवनी पोतानी स्वपर्यायनी लायकात मोक्ष पामवानी होय तो तेने आ ज
क्षेत्र अने आ ज काळ मोक्षनुं निमित्त कही शकाय छे. सिद्धांत ए छे के उपादाननी स्वपर्यायनी लायकात मुजब
परद्रव्यमां आरोप करीने तेने निमित्त कहेवाय छे; परंतु परद्रव्यने अनुसरीने उपादाननी पर्याय थती नथी.
पोतानी दरेक समयनी पर्यायनी लायकात जीव पोते पोताना ते ते समयना पुरुषार्थथी करे छे. एटले
लायकातमां बीजुं कोई कारण नथी पण ते वखतनो पुरुषार्थ ज ते लायकातनुं कारण छे. जेवो पुरुषार्थ करे तेवी
लायकात ते समये थाय छे.
पर्याय ते तो द्रव्यनो स्वभाव छे, दरेक द्रव्य पोताथी स्वतंत्रपणे परिणमे छे, अने ते ते समयनी
पोतानी लायकात अनुसार पर्याय थाय छे. जीव पोताना पुरुषार्थथी जे समये जेवी लायकात करे ते समये तेवी
पर्याय थाय छे. कदी कोई पर द्रव्य आत्मानी पर्यायने वश करतुं नथी, पण आत्मा पोते सवलक्ष चूकीने पर
लक्षमां एकाग्र थाय छे, ए ज पराधीनता छे. अज्ञानीओ स्वपर्यायने न जोतां परद्रव्यनो दोष काढे छे. “पर
द्रव्यो तो सौ पोतपोताना भावमां हतां, पण तुं पोते शा माटे स्वभावनी एकाग्रताथी छूटयो? ” एम
ज्ञानीओ कहे छे. पर द्रव्यना कारणे दोष थयो नथी. रस्तामां कूवो होय अने तेमां कोई माणस पडे तो कोनो
दोष? शुं कूवो वच्चे आव्यो माटे ते पड्यो? नहि; ते पोते शा माटे आंधळो थईने (–बेदरकारीथी) तेमां
पड्यो? तेणे जोईने सावधानीथी चालवुं हतुं; कूवो तो तेना ठेकाणे ज पड्यो हतो, कूवाए कांई माणसने पराणे
खेंचीने पाडयो न हतो. जो माणस पोते कूवाथी जुदा रस्ते चाले तो कूवो कांई तेने बळजबरीथी पोता तरफ
खेंची लावतो नथी. तेम काळ अने कर्मो वगेरे बधां परद्रव्यो पोत पोताना कारणे आ जीवथी भिन्नपणे स्थित
छे, ते कोई आ जीवना पुरुषार्थने बळजबरीथी रोकता नथी, जीव पोते ऊंधा पुरुषार्थवडे पोताना उपयोगने ते
तरफ लई जईने विकारी थाय छे. जो सवळा पुरुषार्थथी ते तरफना उपयोगने खसेडीने पोताना स्वभाव तरफ
परिणमन करे तो कांई ते काळ के कर्म वगेरे परद्रव्यो तेने कांडु झालीने ना पाडता नथी. माटे जीवोए प्रथम तो
पोताना चैतन्य स्वभावने परथी भिन्न जाणीने, चैतन्यनो जे उपयोग पर तरफ एकाग्र थई रह्यो छे ते
उपयोगने पोताना आत्मा तरफ एकाग्र करवानो छे, एटले मात्र पोतानो उपयोग बदलवानो छे, ए ज
मुक्तिनो उपाय छे. ‘उपयोग स्वतरफ एकाग्र करवो’ तेमां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र त्रणे समाई जाय छे.
[श्री समयसार–मोक्ष अधिकार उपरना व्याख्यानोमांथी]