: ५२ : आत्मधर्म : माह : २४७४ :
क्रियाने के पुद्गलनी कोई पण क्रियाओने तो अज्ञान–भावथी पण जीव करी शकतो नथी. ए वातने अहीं द्रढ करी छे.
आत्माने अनादिथी परद्रव्यना कर्ता–कर्मपणानुं अज्ञान छे, ते अज्ञान जो शुद्धस्वरूपना अनुभवथी एक
वार पण नाश पामे तो फरीने न आवे, एम हवे कलशमां कहे छे–
(शार्दूल – )
आसंसारत एव धावति परं कुर्वेऽहमित्युच्चकै– र्दुर्वारं ननु मोहिनामिह महाहंकाररूपं तमः।
तद्भूतार्थपरिग्रहेण विलयं यधेकवारं व्रजेत् तत्किंज्ञानघनस्य बंधनमहो भूयो भवेदात्मनः।। ५५।।
‘ज्ञानावरणादि कर्मने के परद्रव्यने हुं करुं छुं’ एवो, मिथ्याद्रष्टि जीवोनो अत्यंत दुर्निवार मिथ्यात्वरूप
महा अंधकार अनादिसंसारथी अत्रूट–संतानरूपे चाल्यो आवे छे; देव हो के मनुष्य, तिर्यंच हो के नरक–ए बधा
कर्मना पर्यायोमां पोतापणानी बुद्धि करे छे–एवा महाअहंकाररूप ते मिथ्यात्व छे. श्री आचार्यदेव कहे छे के जो
भूतार्थने बराबर ग्रहण करवाथी (एटले के परथी छूटा पोताना शुद्धस्वरूपना अनुभवथी) ते मिथ्यात्व एक
वार पण नाश पामे तो, अहो! फरीथी ज्ञानघन आत्माने बंधन केम थाय?
अहीं ए बताव्युं छे के, आ जीवने ‘हुं परद्रव्योनो कर्ता छुं’ एवी बुद्धि अनादिकाळथी थई रही छे.
पोताना स्वद्रव्यनी परिणतिने भूलीने, परनी ज परिणतिनो हुं कर्ता छुं एवी मान्यता ते ज घोर मिथ्यात्व छे.
जो कोई पण रीते–शुद्धात्मद्रव्यना अभ्यासथी एकवार पण सम्यक्त्व प्रगट करे अने ते मिथ्यात्व छूटे तो फरीथी
कदी अज्ञानभाव थाय नहि, कदी पण परमां अहंबुद्धि करे नहि. अज्ञान टळी गया पछी संसारनुं बंधन कई
रीते रहे? न ज रहे अर्थात् मोक्ष ज थाय–एम जाणवुं. एनो उपाय शुद्धात्मस्वरूपना अनुभवनो अभ्यास
करवो ते ज छे. श्रीतत्त्वज्ञान–तरंगिणीमां कह्युं छे के–शुद्ध चैतन्यस्वरूप मारा आत्मा सिवायना बीजा कोई पण
चेतन के अचेतन पदार्थोने कोई रीते, कोई काळे के कोई क्षेत्रे हुं मारी चेतनाथी स्पर्श पण करतो नथी.
[जुओ समयसार कलश टीका. पूष्ट ७० थी ७३]
पर द्रव्य जीवने राग – द्वेष करावतुं नथी
कोई अज्ञानीओ एम माने छे के, ‘जीवनो स्वभाव रागद्वेषरूप परिणमवानो नथी पण परद्रव्यो–
ज्ञानावरणादि कर्म, शरीर तथा संसार–भोगनी सामग्रीओ जीवने बलात्कारथी राग–द्वेषरूपे परिणमावे छे.’ –ए
वात खोटी छे. परद्रव्यो जीवने रागद्वेषरूपे परिणमावता नथी, जीव पोते ज राग–द्वेषादि भावे परिणमे छे,
जीवनी विभाव–परिणाम शक्ति जीवमां छे तेने लीधे (अर्थात् पोतानी विभावशक्तिनी वर्तमान योग्यताथी)
जीव पोते ज मिथ्यात्व अने रागद्वेषरूपे परिणमे छे, पर वस्तुओनो तेमां कांई सहारो (मदद) नथी. ए वात
आचार्यदेव कलशमां कहे छे–
(शालिनी)
रागद्वेषोत्पादकं तत्त्वद्रष्टया नान्यद्द्रव्यं वीक्ष्यते किंचनापि।
सर्वद्रव्योत्पत्तिरन्तश्चकास्ति व्यक्तात्यंतं स्वस्वभावेन यस्मात्।। २१९।।
अर्थ–तत्त्वद्रष्टिथी जोतां, रागद्वेषने उपजावनारूं अन्य द्रव्य जराय देखातुं नथी, कारण के सर्व द्रव्योनी
उत्पत्ति पोताना स्वभावथी ज थती अंतरंगमां अत्यंत प्रगट प्रकाशे छे.
भावार्थ:– द्रव्यना स्वरूपने जोवामां आवे तो–साची द्रष्टिथी जोवामां आवे तो–आठ कर्मो, शरीर, मन,
वचन के बाह्य भोग सामग्री ईत्यादि जेटलां परद्रव्यो छे ते कोई पण, जीवमां अशुद्धचेतनास्वरूप राग–
द्वेषपरिणामने उपजाववा समर्थ नथी; केम के चेतन के अचेतन बधांय द्रव्योनी परिणतिनी उत्पत्ति (–अखंड
धारारूप परिणाम) पोत पोताना भावथी ज–पोत पोताना स्वरूपथी ज थाय छे, ए अत्यंत प्रगट छे.
अहीं आ स्पष्ट कर्युं छे के, राग–द्वेषादि परिणामो जीवना ज विभावभाव छे, केम के जीवमां एक प्रकारनी
वैभाविक शक्ति छे, तेनी योग्यताथी जीवनो ज्ञानभाव स्वयं विभावरूप थई जाय छे, परंतु कोई पण बीजुं द्रव्य
बलात्कारथी जीवमां राग–द्वेष उत्पन्न करी देतुं नथी. जेम–जेपाणीमां उष्णतारूपे थवानी लायकात छे ते ज अग्निना
संयोगे उष्ण थाय छे, तेम जे जीवमां रागद्वेष–मोहरूपे परिणमवानी लायकात छे ते ज ते–रूपे परिणमे छे, कांई
कर्मोनो उदय तेने राग–द्वेष करावतो नथी. [श्री समयसार–कलश टीका. पृ. २५६–२५७ ना आधारे]