शुभभाव कांई मोक्षपणे थता नथी मोक्षपणे थनार तो पवित्र स्वभाव छे; ते स्वभावने पवित्रपणे जाणे तो
पवित्रता थाय. जे वस्तु मोक्षपणे थाय छे ते वस्तुने जाणे नहि तो मोक्ष क्यांथी थाय? क्षणिक विकार ते
आत्मानुं स्वरूप नथी, आत्मानुं स्वरूप तो त्रिकाळ विकार वगरनुं पवित्र छे, तेमांथी ज पवित्र मोक्षदशा प्रगटे
छे. जो पोताना आत्माने पवित्र स्वरूपे जाणे तो अपवित्रभावोनो नाश करीने पवित्रदशा प्रगट करे. अने जो
पोताना आत्माने विकार वाळो ज माने तो विकारनी द्रष्टिथी विकार ज कर्या करे, पण तेने टाळे नहि. जो
पोताना आत्माने जडनो कर्ता माने, शरीरवाळो माने तो जड–शरीरनो संबंध तूटे नहि. पोताने जडरूपे
रहित अने विकारी भावोथी पण रहित एवा पोताना पवित्र ज्ञानस्वभावने जाणवो ते ज पवित्र थवानो
उपाय छे. ‘पवित्र स्वरूपने जाणवुं’ ए सिवाय मोक्षनो बीजो उपाय नथी. तेथी आ मोक्षअधिकारमां कह्युं के–
ज्ञाता–द्रष्टाभाव ते ज हुं छुं एटले के हुं मारा स्वरूपनो ज जाणनार अने देखनार छुं, जाणनार–देखनार भाव
सिवाय बीजा जे कोई भावो छे ते बधाय मारा स्वरूपथी पर छे–आम प्रज्ञावडे अंतरमां जुदापणुं देखवुं. अने
पछी ते प्रज्ञावडे ज आत्मामां एकाग्र थवुं ने पुण्य–पापरूप सर्वे भावो छोडवा. आ रीते ‘प्रज्ञा’ ते ज मुक्तिनो
मार्ग छे. कोई जीव अशुभ छोडीने शुभभाव करे तो तेटलुं करवानी तेने ज्ञानीओ ना नथी कहेता, परंतु
एनाथी ए जीवनुं कल्याण नथी, धर्म नथी. आ कांई शुभनो मार्ग नथी, आ तो स्वभावनो मार्ग छे. जे मार्गे
अनंतकाळथी चाल्यो छे तेना करतां जुदी जातनो मार्ग छे.
श्रीगणधरदेवो, ईन्द्रो, चक्रवर्तीओ, वासुदेव–बळदेव ईत्यादि बधाय महान पुरुषो आ मार्गने जाणीने आ
तेने पोताना मानता नथी. श्रीगणधरदेव पण सामायिक करे छे, परंतु ए सामायिक केवी? अज्ञानी जीवो जेने
सामायिक माने छे तेवी ए नथी होती, पण पोताना छूटा चैतन्यतत्त्वना स्वानुभवनी मस्तीमां लीन थतां
परभावोथी तद्न उदासीनता थई जाय छे एवी ते सामायिक होय छे; त्यां पुण्यपाप भावोरूप विषमता
जाण्यो होय तो तेमां ठरे ने? बहारना लक्षे जे परभाव थाय ते मारा स्वभावनी जातथी जुदा छे एम जेणे
जाण्युं नथी अने परभावने ज पोतानी जात मानीने तेमां जे लीन थई रह्यो छे ते जीव परभावोथी खसीने
स्वभावमां ठरशे केवी रीते? स्वभावमां ठर्या वगर परभावोथी उदासीनता केम थशे? अने परभावोथी
उदासीनता थया वगर स्वभावरूप सामायिक क्यांथी होय? पोतानी जे वस्तु छे तेने जाण्या वगर एके प्रकारनो
धर्म होय ज नहि. धर्मनी रीत ए ज छे के–पोतानी ज्ञानशक्तिवडे पहेलांं आत्माने एम जाणवो के–जे ज्ञान–
दर्शनवडे चेतनारो ते ज निश्चयथी हुं छुं, बीजा बधा जे भावो छे ते हुं नथी.
जेने पुण्यनी रुचि छे तेने जडनी रुचि छे पण आत्मानी रुचि नथी. केम के पुण्यनुं फळ जडनो संयोग
विकारनुं फळ. अने देवपदनुं शरीर तो जड. शुं हुं विकाररूपे के जडरूपे थईश? शुं विकारथी ने जडथी आत्मानी
शोभा छे? ना, ना. मारी मोटप तो मारी स्वभावदशाथी ज छे. आम ज्ञानीने स्वभावनी रुचि छे, ने विकार
तथा संयोग प्रत्ये उदासीनता प्रवर्ते छे. पण जेने पुण्यनी के देवपदनी होंश छे तेने आत्माना स्वभावनी रुचि
नथी, एटले के धर्मनी ज रुचि नथी. ज्ञानी कहे छे के हुं रागवाळो नहि थाउं, स्वर्गनो देव नहि थाउं, पण हुं तो
मारा स्वभावमां रहीने जडना संयोगरहित सिद्ध थईश.
थाय छे, अने जडनो धणी थाय छे, ते जड जेवो मूढ थई जशे.