Atmadharma magazine - Ank 053
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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: ७२ : आत्मधर्म : फागण : २४७४ :
पंचमकाळनां अज्ञानी जीवोने – धर्मनो उपदेश
श्री समयसारजी मोक्षअधिकार गा. २९८ – २९ उपरनां व्याख्यानमांथी
(१) धर्मी थवुं होय तो चैतन्यने समज
पंचम आरामां थयेला मुनि पंचम आराना जीवोने धर्म समजावे छे के हे जीव! जो तुं तारा
चैतन्यस्वभावने समज तो तारा भवना छेडा आवशे. जेओ चोथा आरामां थई गया तेमने के जेओ समजी
गया छे एवा ज्ञानीओने संबोधीने आ कहेता नथी पण जे सत्य समजीने आत्मकल्याण करवाना जिज्ञासु छे
एवा जीवोने संबोधीने कह्युं छे. ‘तुं बीजानी सेवा–भक्ति कर तो धर्म थाय अथवा तो कंदमूळ–वगेरे खावानो
त्याग कर तो तेटलाथी धर्म थई जाय’–एम कह्युं नहि, पण आत्मस्वभावनुं ज अनेक प्रकारे व्याख्यान करीने ते
ज समजवानुं कह्युं अने ते समजणथी ज धर्म थाय एम कह्युं छे. जेवो चैतन्यस्वभाव कह्यो तेवो ज तारा
ज्ञानमां समज अने पछी तेमां स्थिरता कर तो ज तारा उपवास, दया, भक्ति, व्रत वगेरे बधुं साचुं थाय; परंतु
त्यां पण जे समजण अने स्थिरता छे ते ज धर्म छे, व्रतादिनो राग ते धर्म नथी.
(२) स्वभावनी समजण वगर त्याग होय नहि
जो सेवा–भक्तिना भावथी के कंदमूळादिना त्यागथी धर्म थतो होय तो अज्ञानी अने अभव्यने पण धर्म
थात, केम के तेओ पण सेवा भक्तिना शुभभाव अने कंदमूळादिनो त्याग करे छे. आचार्य भगवान कहे छे के जो
तारे धर्म करवो होय तो सत्समागमे साचा प्रयत्नवडे तुं तारा चैतन्य स्वभावने समज. साची समजण थतां तेमां
ज विशेष स्थिरतावडे राग टळे छे अने राग टळतां तेनां निमित्तो पण होतां नथी. ए रीते साची समजणपूर्वक
परथी उदासीन थईने राग टाळ्‌यो त्यां ‘बहारनो त्याग कर्यो’ एम उपचारथी कहेवाय छे. प्रथम आत्माना
स्वभावने जाण्या वगर अने तेनो महिमा आव्या वगर परथी खरी उदासीनता आवे नहि; अने अंतरथी खरी
उदासीनता आव्या वगर त्याग कई रीते कहेवो? जेम आंधळो वणे अने वाछडो चावे तेम हे अज्ञानी! तुं गमे
तेटली शुभक्रिया कर पण तारी बधी शुभक्रियाने मिथ्यात्वरूपी वाछडो चावी जाय छे. तुं गमे तेटला शुभभाव कर
पण तेनाथी मिथ्यात्वनुं मोटुं पाप टळवानुं नथी. मिथ्यात्वनुं पाप तो साची समजणथी ज टळे छे.
(३) ज्ञानी शुं करे छे?
बोलवानी रीत बहारथी होय पण समजणनी रीत तो स्वभावमां छे. ज्ञानीनी भाषामां पण एम आवे के
में आ लीधुं–आ दीधुं–आ काम कर्युं. पण खरेखर तो ते वाणी बोलवानुं काम पण ज्ञानीए कर्युं नथी अने परवस्तु
लेवा देवानुं काम पण ते पोतानुं मानता नथी, एणे तो ज्ञान ज कर्युं छे. अज्ञानीने एम लागे छे के ज्ञानी आम केम
बोले? अथवा आम केम करे? पण भाई, ए तो तें बहारनी रीते जोयुं, तने अंतर स्वभावनी रीत जोतां न
आवडयुं. तारी बाह्यद्रष्टिथी तने बहारनी क्रिया अने बहु तो राग देखाणो, पण ज्ञानीनो अंतर अभिप्राय शुं छे
अने ज्ञानीनुं ज्ञान शुं काम करे छे एनी तने खबर पडी नहि. बहारनी क्रिया तो तद्न स्वतंत्र छे अने जे राग
ज्ञानीने देखाय छे ते रागनो पण तेओ स्वभावमां स्वीकार करता नथी तेथी तेओ रागने करता ज नथी, पण
स्वभावने अने रागने जुदा पणे जाणे ज छे. ज्यां सुधी तने पोताने स्वभाव अने राग वच्चे भेदज्ञान न थाय
तथा जडनी क्रिया स्वतंत्र न भासे त्यां सुधी, ज्ञानी शुं करे छे तेना अंतरनी तने खबर पडशे नहि.
(४) जेओ आत्मानी समजणनी ना पाडे छे तेओ धर्मक्रियानी ज ना पाडे छे.
धर्मने माटे यथार्थ समजण ए ज पहेली क्रिया छे. हजी तो आत्मानी यथार्थ वात समजवानी ज जेओ ना
पाडे छे अने शरीरनी क्रियाने ज जेओ उपवास–प्रतिक्रमणादि मानी रह्या छे अने तेमां धर्म मानी रह्या छे, तेओ
साची धर्मक्रियानो अनादर करनारा छे, तेओ आत्माने नहि माननारा पण जडने माननारा छे; तेथी तेमने जड
शरीरनी क्रिया भासे छे पण आत्मानी चैतन्यक्रिया भासती ज नथी. एवा जीवोने धर्म क्यांथी थाय?
(५) जे पोताने पवित्रस्वरूपे जाणे तेने पवित्रता प्रगटे, अने विकारस्वरूपे जाणे तेने विकार प्रगटे
पोतानो स्वभाव ज कोई अमूल्य अचिंत्य छे, परथी निरपेक्ष छे, ज्ञान–आनंद स्वरूप छे. निरपेक्ष
एटले शुं? परना संबंध विनानो, एटले के पोताथी ज पूरो एक–