पंचम आरामां थयेला मुनि पंचम आराना जीवोने धर्म समजावे छे के हे जीव! जो तुं तारा
गया छे एवा ज्ञानीओने संबोधीने आ कहेता नथी पण जे सत्य समजीने आत्मकल्याण करवाना जिज्ञासु छे
त्याग कर तो तेटलाथी धर्म थई जाय’–एम कह्युं नहि, पण आत्मस्वभावनुं ज अनेक प्रकारे व्याख्यान करीने ते
ज समजवानुं कह्युं अने ते समजणथी ज धर्म थाय एम कह्युं छे. जेवो चैतन्यस्वभाव कह्यो तेवो ज तारा
ज्ञानमां समज अने पछी तेमां स्थिरता कर तो ज तारा उपवास, दया, भक्ति, व्रत वगेरे बधुं साचुं थाय; परंतु
त्यां पण जे समजण अने स्थिरता छे ते ज धर्म छे, व्रतादिनो राग ते धर्म नथी.
जो सेवा–भक्तिना भावथी के कंदमूळादिना त्यागथी धर्म थतो होय तो अज्ञानी अने अभव्यने पण धर्म
तारे धर्म करवो होय तो सत्समागमे साचा प्रयत्नवडे तुं तारा चैतन्य स्वभावने समज. साची समजण थतां तेमां
परथी उदासीन थईने राग टाळ्यो त्यां ‘बहारनो त्याग कर्यो’ एम उपचारथी कहेवाय छे. प्रथम आत्माना
स्वभावने जाण्या वगर अने तेनो महिमा आव्या वगर परथी खरी उदासीनता आवे नहि; अने अंतरथी खरी
उदासीनता आव्या वगर त्याग कई रीते कहेवो? जेम आंधळो वणे अने वाछडो चावे तेम हे अज्ञानी! तुं गमे
तेटली शुभक्रिया कर पण तारी बधी शुभक्रियाने मिथ्यात्वरूपी वाछडो चावी जाय छे. तुं गमे तेटला शुभभाव कर
पण तेनाथी मिथ्यात्वनुं मोटुं पाप टळवानुं नथी. मिथ्यात्वनुं पाप तो साची समजणथी ज टळे छे.
बोलवानी रीत बहारथी होय पण समजणनी रीत तो स्वभावमां छे. ज्ञानीनी भाषामां पण एम आवे के
बोले? अथवा आम केम करे? पण भाई, ए तो तें बहारनी रीते जोयुं, तने अंतर स्वभावनी रीत जोतां न
आवडयुं. तारी बाह्यद्रष्टिथी तने बहारनी क्रिया अने बहु तो राग देखाणो, पण ज्ञानीनो अंतर अभिप्राय शुं छे
अने ज्ञानीनुं ज्ञान शुं काम करे छे एनी तने खबर पडी नहि. बहारनी क्रिया तो तद्न स्वतंत्र छे अने जे राग
ज्ञानीने देखाय छे ते रागनो पण तेओ स्वभावमां स्वीकार करता नथी तेथी तेओ रागने करता ज नथी, पण
स्वभावने अने रागने जुदा पणे जाणे ज छे. ज्यां सुधी तने पोताने स्वभाव अने राग वच्चे भेदज्ञान न थाय
तथा जडनी क्रिया स्वतंत्र न भासे त्यां सुधी, ज्ञानी शुं करे छे तेना अंतरनी तने खबर पडशे नहि.
धर्मने माटे यथार्थ समजण ए ज पहेली क्रिया छे. हजी तो आत्मानी यथार्थ वात समजवानी ज जेओ ना
साची धर्मक्रियानो अनादर करनारा छे, तेओ आत्माने नहि माननारा पण जडने माननारा छे; तेथी तेमने जड
शरीरनी क्रिया भासे छे पण आत्मानी चैतन्यक्रिया भासती ज नथी. एवा जीवोने धर्म क्यांथी थाय?
पोतानो स्वभाव ज कोई अमूल्य अचिंत्य छे, परथी निरपेक्ष छे, ज्ञान–आनंद स्वरूप छे. निरपेक्ष