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मान्यता नथी. विकल्पनो एक अंश पण वस्तुस्वभावमां नथी; एवा स्वभावनो आश्रय ते मुक्तिनुं कारण छे;
अने विकल्पनो एक अंश पण मारो छे एवो पराश्रयभाव ते मिथ्यात्व छे, ने संसारनुं कारण छे.
स्वाश्रयभाव प्रगट्यो छे–एथी तेमनामां साध्य–साधकनो भेद छे, परंतु बंनेना भावनी जात एक ज छे.
पूर्णभावनो साधकभाव पण पूर्णनी जातनो ज होय छे. नाटक–समयसारमां सम्यग्द्रष्टिने जिनेश्वरदेवना
लघुनंदन कहेल छे, ते श्लोक नीचे प्रमाणे छे–
केलि करै शिवमारगमैं, जगमांहि जिनेश्वर के लघुनंदन.
सम्यग्द्रष्टि जीवो आ जगतमां जिनेश्वरदेवना लघु पुत्र छे अर्थात् थोडा ज काळमां तेओ अरिहंत पद प्राप्त
करवाना छे.–ईत्यादि सम्यग्दर्शननो महिमा करीने पं. बनारसीदासजीए सम्यग्द्रष्टि जीवोनी शात पवित्र दशाने
नमस्कार कर्या छे.
अंतरंगभाव छे; एवी परिणति अंशे प्रगट करवी ते सम्यग्दर्शन छे. नवतत्त्वनी श्रद्धा वगेरे रागभाव छे, ते
अंतरंगभाव नथी पण बहिरंगभाव छे, एटले के तेनाथी सम्यग्दर्शन थतुं नथी. बहारना लक्षे जे कोई भाव
थाय ते बधोय बहिरंगभाव छे. आत्मस्वभाव शुद्ध चैतन्यमय छे तेना अंतरना अंगमांथी परिणति प्रगट कर.
आ जड शरीरमांथी सम्यग्दर्शन प्रगटवानुं नथी, तेम ज देव–गुरु–शास्त्रमांथी के नवतत्त्वना विकल्पमांथी पण
पुण्य–पापना परिणाम थाय ते तारूं चैतन्यअंग नथी पण कार्मणअंग छे. व्यवहार सम्यग्दर्शन पण कार्मणअंग
छे, चैतन्यने चूकीने कर्मना संबंधे जे भाव उत्पन्न थाय ते बहिरंगभाव छे, ते अंतरंगभाव नथी, अने तेमांथी
सम्यग्दर्शननी उत्पत्ति नथी.
छोडीने) एकला आत्मस्वभावनो आश्रय करवो ते अंतरंगभाव छे अने एवा भावथी सम्यग्दर्शन प्रगट थाय
छे, ते ज आत्मानुं कल्याण छे.
मोक्षमार्ग होतो नथी. एवुं सम्यग्दर्शन अंतरंग स्वभावना अवलंबने पमाय छे, परंतु वीतरागदेवनी वाणीनुं
श्रवण के नवतत्त्वना विचारो ईत्यादि बहिरंगभावोथी पमातुं नथी. पहेली भूमिकामां सत्नुं श्रवण, मनन,
विचार ईत्यादि भावो होय खरा; परंतु पहेलेथी ज जो अंतरंग स्वाश्रितस्वभावनो निर्णय करवानुं लक्ष होय तो
ते रागादि बहिरंग भावोनो निषेध करीने स्वभाव–सन्मुख थईने स्वाश्रितभाववडे सम्यग्दर्शन प्रगट करे. परंतु
पहेलेथी ज जो ते श्रवण–विचार वगेरेना शुभरागने सम्यग्दर्शननुं खरूं कारण मानी ल्ये तो ते रागमां ज
सम्यग्दर्शन थाय नहि. माटे ‘