Atmadharma magazine - Ank 053
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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: फागण : २४७४ : आत्मधर्म : ७१ :
जणाय तोय जे ज्ञान थाकी जतुं नथी अने ज्ञानमां विकल्प पण ऊठतो नथी–एवो ज्ञानस्वभाव छे, एटले के
ज्ञानस्वभाव सदाय पूरो अने विकार रहित छे, एवा ज्ञानस्वभावने जरा पण पराश्रयवाळो मानवो ते साची
मान्यता नथी. विकल्पनो एक अंश पण वस्तुस्वभावमां नथी; एवा स्वभावनो आश्रय ते मुक्तिनुं कारण छे;
अने विकल्पनो एक अंश पण मारो छे एवो पराश्रयभाव ते मिथ्यात्व छे, ने संसारनुं कारण छे.
() म्ग्द्रिष्ट जी : सम्यग्द्रष्टिने जे स्वाश्रयभाव प्रगट्यो होय छे ते भाव सिद्ध
भगवाननी जातनो होय छे. सिद्धभगवंतोने संपूर्णपणे स्वाश्रयभाव प्रगट्यो छे अने सम्यग्द्रष्टि वगेरेने अंशे
स्वाश्रयभाव प्रगट्यो छे–एथी तेमनामां साध्य–साधकनो भेद छे, परंतु बंनेना भावनी जात एक ज छे.
पूर्णभावनो साधकभाव पण पूर्णनी जातनो ज होय छे. नाटक–समयसारमां सम्यग्द्रष्टिने जिनेश्वरदेवना
लघुनंदन कहेल छे, ते श्लोक नीचे प्रमाणे छे–
भेदविज्ञान जग्यो जिन्हके घट, शीतल चित्त भयो जिम चंदन
केलि करै शिवमारगमैं, जगमांहि जिनेश्वर के लघुनंदन.
अर्थ:– जेमना हृदयमां स्व–परनो विवेक प्रगट थयो छे, जेमनुं चित्त चंदन समान शीतळ थयुं छे अर्थात्
कषायोनो आतप नथी अने स्व–परनो विवेक होवाथी जेओ मोक्षमार्गमां केलि (–मोज) करे छे एवा
सम्यग्द्रष्टि जीवो आ जगतमां जिनेश्वरदेवना लघु पुत्र छे अर्थात् थोडा ज काळमां तेओ अरिहंत पद प्राप्त
करवाना छे.–ईत्यादि सम्यग्दर्शननो महिमा करीने पं. बनारसीदासजीए सम्यग्द्रष्टि जीवोनी शात पवित्र दशाने
नमस्कार कर्या छे.
() ि : अहीं आचार्यदेव कहे छे के–हे जीवो, तमे सम्यग्दर्शनने
अंतरंगभावथी धारण करो. अंतरंगभाव एटले शुं? अंतरस्वभावना आश्रये परिणति प्रगट करवी ते
अंतरंगभाव छे; एवी परिणति अंशे प्रगट करवी ते सम्यग्दर्शन छे. नवतत्त्वनी श्रद्धा वगेरे रागभाव छे, ते
अंतरंगभाव नथी पण बहिरंगभाव छे, एटले के तेनाथी सम्यग्दर्शन थतुं नथी. बहारना लक्षे जे कोई भाव
थाय ते बधोय बहिरंगभाव छे. आत्मस्वभाव शुद्ध चैतन्यमय छे तेना अंतरना अंगमांथी परिणति प्रगट कर.
आ जड शरीरमांथी सम्यग्दर्शन प्रगटवानुं नथी, तेम ज देव–गुरु–शास्त्रमांथी के नवतत्त्वना विकल्पमांथी पण
तारूं सम्यग्दर्शन प्रगटवानुं नथी. माटे ते बधानुं लक्ष छोडीने तारा चैतन्यरूपी शरीरमांथी सम्यग्दर्शन काढ. जे
पुण्य–पापना परिणाम थाय ते तारूं चैतन्यअंग नथी पण कार्मणअंग छे. व्यवहार सम्यग्दर्शन पण कार्मणअंग
छे, चैतन्यने चूकीने कर्मना संबंधे जे भाव उत्पन्न थाय ते बहिरंगभाव छे, ते अंतरंगभाव नथी, अने तेमांथी
सम्यग्दर्शननी उत्पत्ति नथी.
‘अंतरंगभाव’ कहीने आचार्यदेवे बधा परभावोनो निषेध कर्यो छे. शरीरादिनी क्रिया तो जड छे अने
व्रत, तप, पूजा, भक्ति, पडिमा वगेरेनो शुभराग ते बहिरंगभाव छे–विकार छे, तेनाथी आत्मकल्याण थतुं
नथी. माटे ते जडनी क्रियामां अने बहिरंगभावोमां एकत्वबुद्धि छोडीने (अर्थात् परभावोमां आत्मबुद्धि
छोडीने) एकला आत्मस्वभावनो आश्रय करवो ते अंतरंगभाव छे अने एवा भावथी सम्यग्दर्शन प्रगट थाय
छे, ते ज आत्मानुं कल्याण छे.
() म्ग्र् स्श्र : श्री सर्वज्ञदेवे कहेला आत्माना ज्ञानादि बधा धर्मोमां
सम्यग्दर्शन प्रधान छे, सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप मोक्षमार्गमां सौथी प्रधान सम्यग्दर्शन छे, एना वगर
मोक्षमार्ग होतो नथी. एवुं सम्यग्दर्शन अंतरंग स्वभावना अवलंबने पमाय छे, परंतु वीतरागदेवनी वाणीनुं
श्रवण के नवतत्त्वना विचारो ईत्यादि बहिरंगभावोथी पमातुं नथी. पहेली भूमिकामां सत्नुं श्रवण, मनन,
विचार ईत्यादि भावो होय खरा; परंतु पहेलेथी ज जो अंतरंग स्वाश्रितस्वभावनो निर्णय करवानुं लक्ष होय तो
ते रागादि बहिरंग भावोनो निषेध करीने स्वभाव–सन्मुख थईने स्वाश्रितभाववडे सम्यग्दर्शन प्रगट करे. परंतु
पहेलेथी ज जो ते श्रवण–विचार वगेरेना शुभरागने सम्यग्दर्शननुं खरूं कारण मानी ल्ये तो ते रागमां ज
एकत्वबुद्धि करीने अटकी जाय, तेथी रागनो निषेध करीने स्वाश्रय स्वभाव मां ढळे नहि अने ते जीवने
सम्यग्दर्शन थाय नहि. माटे ‘
दंसणरयणं धरेह भावेण अर्थात् हे जीव! तुं सम्यग्दर्शनरूपी रत्नने अंतरंगभावथी
धारण कर! ’ एम कहीने आचार्यभगवाने सम्यग्दर्शननो उपाय पण जणावी दीधो छे. –२१–