भेदज्ञान ते ज मुक्तिनो उपाय छे.
ज्ञानीओ सदाय पोताने रागथी भिन्न स्वभावपणे अनुभवे छे, पण विकारपणे के विकारना फळपणे
जडना स्वामी माने छे, तेथी तेओ विकारने ज अनुभवे छे पण स्वभावने अनुभवता नथी. अहीं
आचार्यभगवान एवा जीवोने कहे छे के– ज्ञाताद्रष्टा शक्ति ते ज तुं छो, राग तुं नथी पण ज्ञान ज तुं छो, ज्ञान
ने आत्मा एकमेक छे पण राग साथे तारे एकपणुं नथी, माटे तारी भेदज्ञान शक्ति प्रगट करीने तुं तारा
चेतकस्वभावने अनुभव. मारो स्वभाव ‘चेतक’ छे पण राग नथी, माटे हुं सदा चेतक–ज्ञाताद्रष्टा–पणे ज
रहीश, पण विकारपणे नहि थाउं. आम, विकारने अने स्वभावने जुदापणे जाणीने, पूरा ज्ञाताद्रष्टापणे ज रही
जवुं अने विकारपणे न थवुं ते ज मोक्ष छे.
पाम्या छीए तो निरांते पुण्य करी लईए, पछी सत् समजशुं. पुण्य करतां करतां क्यारेक सत् समजाई जशे.’
क्यांय खोवाई जशे. अने जो साची समजणरूपी दोरो परोवी लईश तो गमे त्यां जतां पण तारी सोय खोवाशे
नहि. अनंत संसारमां रखडतां तें पुण्य तो अनंतवार कर्यां छे पण आत्मा शुं? तेनी साची समजण एकेय वार
थवानी नथी, अने भवनो अंत आववानो नथी. माटे आ पंचमकाळे पण आत्मानी समजण ए ज कर्तव्य छे,
ए ज धर्म छे, अने ए अत्यारे पण थई शके छे.
भगवान तो तारामां अत्यारे विद्यमान छे, तारो पुण्य–पाप रहित पूर्ण स्वभाव छे ते ज भगवान छे, अहीं
कदाच जईश तो भगवान पासे जईने पण तुं शुं करवानो हतो? ‘सीमंधर’ एटले पोताना स्वरूपनी मर्यादाने
धारी राखनार. तुं तारा स्वभावनी मर्यादाने धारी राखनार छो, तारे तारा रागरहित चैतन्य स्वरूपनी श्रद्धा
करवी ते ज परमार्थे सीमंधर भगवाननो भेटो छे. सीमंधर भगवान पण स्वभावनो ज उपदेश करे छे. अहींथी
ज स्वभावनो नकार करीने अने पुण्यनो आदर करीने मिथ्यात्वभावने पोषतो जाय छे तो त्यां जईने तने सत्
स्वभाव सांभळवानो अवकाश ज क्यांथी रहेशे?
केटलुं झेर भेगुं करवाथी अमृत थाय? लाखगणुं करो के अनंतगणुं करो पण झेरना सरवाळाथी अमृत न
विकारना गुणाकारथी स्वभावनी प्राप्ति न थाय. एटले के पुण्य करतां करतां कोई काळे धर्म थाय नहि.
जेवो पोतानो गुण छे तेवो ओळखीने ते गुणना आकारे पोतानी परिणति करे तो ते साचो गुणांकार छे.
बादबाकी छे. गुणनी वृद्धि अने दोषनी हानि करतां करतां जेवो छे तेवो पूरो स्वभाव रही गयो अने दोष टळी