Atmadharma magazine - Ank 053
(Year 5 - Vir Nirvana Samvat 2474, A.D. 1948)
(Devanagari transliteration).

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: ७६ : आत्मधर्म : फागण : २४७४ :
पण राग वध्यो नहि. माटे रागथी ज्ञान नथी थतुं अने ज्ञानथी राग नथी थतो; पण त्रिकाळी ज्ञानमय एक
वस्तु छे तेमांथी ज्ञान प्रगटे छे, अने ते त्रिकाळी वस्तुमां रागनो अभाव छे. आ प्रमाणे राग अने स्वभाव
वच्चे यथार्थ भेदज्ञान करीने आत्मानो अनुभव करवो ते ज मोक्षनो उपाय छे, ते ज धर्म छे.
(१७) निमित्तने लीधे राग–द्वेष नथी अने ज्ञानने लीधे पण राग–द्वेष नथी.
कोईए गाळ दीधी अने ते तरफ लक्ष जतां तीव्र द्वेष थयो; ते द्वेष गाळने कारणे थयो नथी, तेम ज
गाळने जाणी ते कारणे पण थयो नथी. केम के परद्रव्य रागद्वेषनुं कारण नथी अने ज्ञान पण रागद्वेषनुं कारण
नथी. पण पोते ज्ञाननी एकाग्रताथी खस्यो तेथी ज राग–द्वेष थाय छे. केवळीभगवान पण ते गाळने जाणे छे
अथवा तो वीतरागी संतमुनि पण ते गाळने जाणता होय, छतां तेओने राग–द्वेष थतो नथी, केम के तेओ
ज्ञाननी एकाग्रताथी खसता नथी. आ न्यायथी एम सिद्ध कर्युं के परना कारणे राग–द्वेष थतो नथी पण
पोताना ज्ञानना लक्षना फेरे ज राग–द्वेष थाय छे. अने ज्ञानस्वभावमां ते राग–द्वेष नथी. एटले निमित्त जुदुं,
राग–द्वेष जुदा अने ज्ञानस्वभाव जुदो.
(१८) ज्ञान अने रागनुं जुदापणुं अनुभवीने, ज्ञाननुं ग्रहण अने रागनो त्याग करवो ते मोक्षनो
उपाय छे.
आ प्रमाणे, कोई पर पदार्थना कारणे राग–द्वेष थता नथी पण पोताना ज पर वलणथी थाय छे एम
नक्की कर्युं, एटले पोतानो विचार परमांथी खसीने पोता तरफ वळ्‌यो. ज्यां स्व तरफनो विचार करवा मांडयो
त्यां रागद्वेष तो घटवा मांडया ने ज्ञान वधवा मांड्युं. माटे राग अने ज्ञान तो जुदां ज छे. केम के जो राग अने
ज्ञान एक होत तो जेम जेम रागद्वेष वधे तेम तेम ज्ञान पण वधे अने जेम जेम रागद्वेष घटे तेम तेम ज्ञान पण
घटी जाय. परंतु अहीं तो ऊलटुं ज देखाय छे अर्थात् जेम जेम स्वभावना लक्षे ज्ञान वधतुं जाय छे तेम तेम
रागद्वेष टळता जाय छे, माटे रागद्वेष ते ज्ञाननो उपाय नथी अने ज्ञानमां रागद्वेष नथी. बीजी रीते कहीए तो
ज्ञान रागद्वेषनुं कर्ता नथी, रागद्वेष ते आत्मानुं कार्य नथी. रागना आधारे मारुं ज्ञान थतुं नथी पण मारा
त्रिकाळ कारणस्वभावमांथी ज्ञाननुं कार्य प्रगटे छे. आवा भेदज्ञाननो साक्षात् अनुभव करवो ते ज आत्मानुं
ग्रहण अने रागादिबंधनो त्याग छे. आत्मा अने बंध वच्चे उपर प्रमाणे वहेंचणी करीने जे स्वभावने
पोतापणे अनुभव्यो ते स्वभावमां अभेद थईने ज पूर्णता थाय छे. आत्माना स्वभावने जाणीने तेनुं ग्रहण
करवुं ते ज पहेलो–वचलो अने छेल्लो उपाय छे,–शरूआतमां पण ते छे, पछी पण ते छे अने छेवटे पण ते ज
छे. वच्चे बीजा बंधभाव आवे तो ते उपाय नथी पण ते बंधभावने, ‘स्वभावथी जुदा छे’ एम जाणीने छोडी
देवा ते मुक्तिनो उपाय छे.
(१९) परद्रव्यने कारणे राग नथी, ने वांचन–श्रवणना रागने कारणे ज्ञान नथी, पण ज्ञाननी
एकाग्रताथी ज ज्ञान थाय छे.
कोई गाळ आपे तेने लीधे क्रोध थतो नथी तेवी ज रीते कोई पण परद्रव्यथी राग के द्वेष थतो नथी. ए
तो परद्रव्योथी पोतानुं छूटापणुं बताव्युं. परंतु अहीं तो ‘आत्मामां राग–द्वेष नथी, अने राग–द्वेषमां आत्मा
नथी’ एम आत्मा अने रागनुं जुदापणुं समजाववुं छे. आम जुदापणुं जाणीने स्व सन्मुख थतां रागद्वेष तूटया
ने ज्ञाननी निर्मळता वधी. स्वसन्मुख ज्ञाननी एकता थईने जे निर्मळभाव प्रगट्यो ते गुण नथी पण पर्याय
छे, ते वर्तमान नवो प्रगट्यो छे, पूर्वनी अवस्थामांथी ते निर्मळ अवस्था आवी नथी केम के पहेली अवस्था तो
ओछी निर्मळ हती, ओछी निर्मळदशामांथी वधारे निर्मळता आवे नहि. पण ज्ञानस्वभाव एटले के जागृत
चेतनसत्ता कायम पूर्ण निर्मळ छे तेमांथी ज विशेष निर्मळदशा थई छे.
कोई कहे के घणुं वांचवाथी ज्ञान वधे अथवा घणुं सांभळवाथी ज्ञान वधे–तो तेनी वात खोटी छे. अने
तेम माननारने रागमां एकताबुद्धि छे पण राग अने ज्ञान वच्चे भेदज्ञान नथी. जेम जेम श्रवण के वांचन वधे
तेम तेम ज्ञान वधतुं नथी पण जेम जेम ज्ञानस्वभावमां एकाग्र थईने राग तोडे छे तेम तेम ज्ञान वधे छे.
वांचन अने श्रवण तरफनी वृत्ति तो राग छे, शुं राग वधारवाथी ज्ञान वधे? जे जातनुं कार्य होय ते ज जातनुं
तेनुं कारण होय. ज्ञाननुं कारण रागमय न होय पण ज्ञाननुं कारण ज्ञानमय ज होय. ज्ञानरूपी कार्यनुं कारण तो
अंदर जे शक्ति पडी छे ते छे. ते शक्तिस्वभावना अवलंबने भेदज्ञान थाय छे, ने तेना ज अवलंबने