(१०) भेद विज्ञान जग्यो जिन्हके घट
शीतल चित्त भयौ जिम चंदन।
केलि करै शिवमारगमें
जगमांहि जिनेसुरके लधुनंदन।।
सत्य सरूप सदा जिन्हके
प्रगट्यो अवदात मिथ्यात–निकंदन।
सांत दशा तिन्हकी पहिचानी
करै कर जोरि बनारसी वंदन।।
–नाटक–समयसार–
(११) सुर–असुर–नरपति वंद्यने, प्रविनष्ट घातिकर्मने,
प्रणमन करुं हुं धर्मकर्ता तीर्थ श्रीमहावीरने. १.
वळी शेष तीर्थंकर अने सौ सिद्ध शुद्धास्तित्वने,
मुनि ज्ञान–द्रग–चारित्र–तप–वीर्याचरण संयुक्तने. २.
ते सर्वने साथे तथा प्रत्येकने प्रत्येकने.
वंदुं वळी हुं मनुष्यक्षेत्रे वर्तता अर्हंतने ३.
–प्रवचनसार–
(१२)
: फागण : २४७४ : आत्मधर्म : ७७ :
मोक्षदशारूपी कार्य प्रगटे छे तथा भेदनुं लक्ष ने राग तूटी जाय छे. परद्रव्य तो जुदां छे ज.
(२०) मोक्षार्थीने कोनुं आलंबन छे? :– एक मात्र चैतन्यतत्त्व सिवाय बीजा कोईनुं आलंबन मोक्षार्थीने नथी.
मारा चैतन्यतत्वनी एकाग्रतावडे जेटली ज्ञाताद्रष्टाभावनी निर्मळता वधती जाय छे तेटलो ज हुं छुं, अने
रागादि नाश थता जाय छे माटे ते हुं नथी. आम भेद पाडीने चैतन्यस्वभावना अनुभवमां लीनता करवी ते ज
परमानंदथी भरपूर मोक्ष दशानो उपाय छे.
आ प्रमाणे पंचमकाळना जीवोने मुक्तिनो मार्ग आचार्य भगवाने करुणाथी उपदेश्यो छे अने
पंचमकाळना जीवो ते समजीने मुक्तिमार्ग प्रगट करी शके छे.
‘श्री मंडप’नी दीवालेथी
भगवानश्री कुन्दकुन्द – प्रवचन मंडपनी दीवालो पर लखायेलां
ज्ञान, ध्यान, भक्ति अने वैराग्यथी भरपूर
पुरुषार्थप्रेरक वचनामृत
(१) हे शिवपुरीना पथिक! :– प्रथम भावने जाण. भावरहित लिंगथी तारे शुं प्रयोजन छे? शिवपुरीनो पंथ
जिनभगवंतोए प्रयत्नसाध्य कह्यो छे. –भावप्राभृत–
(२) सुणी ‘घातिकर्मविहीननुं सुख सौ सुखे उत्कृष्ट छे’ श्रद्धे न तेह अभव्य छे ने भव्य ते संमत करे. –प्रवचनसार–
(३) हे भाई, जो तारी शक्ति होय तो अहो! ध्यानमय प्रतिक्रमणादिक करजे अने जो एटली शक्ति न होय तो त्यां
सुधी श्रद्धा तो जरूर करजे. –नियमसार–
(४) कुंदपुष्पनी प्रभा धरनारी जेमनी कीर्तिवडे दिशाओ विभूषित थई छे, जेओ चारणोना (चारणऋद्धिधारीमहा
मुनीओना) सुंदर हस्तकमळोना भ्रमर हता अने जे पवित्रात्माए भरत क्षेत्रमां श्रुतनी प्रतिष्ठा करी छे, ते विभु
कुंदकुंद आ पृथ्वीपर कोनाथी वंद्य नथी? –अर्थात् सर्वथी वंद्य छे. (चंद्रगिरि पर्वतपरनो शिलालेख)
(५) यतीश्वर (श्रीकुंदकुंदस्वामी) रजःस्थानने–भूमितळने छोडीने चार आंगळ उंचे आकाशमां चालता हता, ते द्वारा
हुं एम समजुं छुं के, तेओश्री अंदरमां तेम ज बहारमां रजथी (पोतानुं) अत्यंत अस्पृष्टपणुं व्यक्त करता हता.
(अंदरमां तेओ रागादिक मळथी अस्पृष्ट हता अने बहारमां धूळथी अस्पृष्ट हता.) (विध्यगिरि शिलालेख)
(६) आत्मामां स्थिर थवाथी मोक्ष थाय छे माटे तमे ते आत्माने प्रयत्नवडे जाणो अने तेने त्रिविधे श्रद्धो के जेथी
मोक्षनी प्राप्ति थाय. –भावप्राभृत–
(७) जिनेन्द्रदेवोए जिनशासनमां एम कह्युं छे के पूजादिकमां अने व्रतथी पुण्य छे तथा मोह अने क्षोभरहित एवो
आत्मानो परिणाम ते धर्म छे. –भावप्राभृत–
(८) नहि मानतो–ए रीत पुण्ये पापमां न विशेष छे, ते मोहथी आच्छन्न घोर अपार संसारे भमे. –प्रवचनसार–
(९) हे भाई! तुं कोई पण रीते महा कष्टे अथवा मरीने पण तत्त्वोनो कौतूहली थई आ शरीरादि मूर्त द्रव्योनो एक
मुहूर्त (बे घडी) पाडोशी थई आत्मानो अनुभव कर के जेथी पोताना आत्माने सर्व परद्रव्योथी जुदो विलसतो देखी
आ शरीरादि मूर्तिक पुद्गल द्रव्य साथे एकपणाना मोहने तुं तुरत ज छोडशे. –आत्मख्याति–
आत्मा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं ज्ञानादन्यत्करोति किम्।
परभावस्य कर्तात्मा मोहोऽयं व्यवहारिणाम्।।